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UCC पर राज्यपाल ने की आदिवासी समाज की तरफदारी, कहा- जबतक खुद तैयार नहीं होते, तब तक न हो हस्तक्षेप, क्या कहते हैं आदिवासी मामलों के जानकार

यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर आदिवासी संगठन और आदिवासी समाज इसे अपने हितों की अनदेखी मान रहे हैं. आदिवासी संगठन मानते हैं कि यूसीसी से आदिवासी समाज की परम्परा, संस्कृति, मान्यता और आरक्षण पर असर पड़ेगा साथ ही सीएनटी, एसपीटी, पेसा समेत तमाम सामाजिक ताना बाना भी बिगड़ जाएगा. यूसीसी पर क्या है झारखंड के आदिवासी संगठन और नेताओं का रुख, साथ ही क्या है झारखंड में आदिवासी कानून. पढ़ें-रांची ब्यूरो चीफ राजेश सिंह की रिपोर्ट.

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Published : Jul 18, 2023, 7:41 PM IST

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रांची: इन दिनों समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ी हुई है. वैसे तो मुस्लिम समाज के संदर्भ में इसकी जरूरत पर ज्यादा चर्चा हो रही है लेकिन आदिवासी समाज भी इसको अशंकाओं की नजर से देख रहा है. पिछले कुछ दिनों में कई आदिवासी संगठनों ने बैठक कर यूसीसी के खिलाफ अपनी मंशा जाहिर की है.

एक अंग्रेजी मीडिया को दिए इंटरव्यू में राज्यपाल सीपी राधाकृष्ण का वक्तव्य आदिवासी समाज को सुकून दे सकता है. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इस मसले पर अपनी व्यक्तिगत मंशा जाहिर की है. उनका मानना है कि आदिवासियों को पारंपरिक तरीके से जीवनयापन करने देना चाहिए. जबतक वे खुद तैयार नहीं होते, तबतक यूसीसी से नहीं जोड़ना चाहिए. क्योंकि आदिवासियों का रहन सहन और माहौल गैर आदिवासी समाज से अलग होता है. उनके मुताबिक सभी जानते हैं कि आदिवासी समाज बहुत पिछड़ा हुआ है. खासकर शिक्षा के मामले हैं. सरकारी नौकरी में भी उनकी भागीदारी बहुत कम है.

आदिवासी मामलों के जानकारों की प्रतिक्रिया: मंझगांव से एक बार निर्दलीय और तीन बार कांग्रेस की टिकट पर विधायर रह चुके आदिवासी मामलों के जानकार सह बिहार विधानसभा के पूर्व उपाध्यक्ष देवेंद्र नाथ चंपिया ने कहा कि वह राज्यपाल के बयान का समर्थन करते हैं. उन्होंने बिल्कुल सही बात कही है. रूढ़ी प्रथा के साथ आदिवासी समाज बिना अपराधिक घटनाओं के संचालित होता है. कानून बनता है सुशासन और शांति व्यवस्था के लिए. फिर इस समाज को इसकी क्या जरूरत है. उन्होंने कहा कि झारखंड में पांचवी अनुसूची लागू है. यहां कॉमन लॉ लागू नहीं हो सकता. इसी वजह से हिन्दू मैरेज एक्ट में आदिवासियों को शामिल नहीं किया गया है. क्योंकि आदिवासी समाज एक पुरानी परंपरा पर चलता है.

आर्टिकल 44 पॅालिसी: जहां तक आर्टिकल 44 की बात है तो यह डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी में आता है. अगर राज्य सरकार चाहे तो इसे लागू कर सकती है और चाहे तो नहीं भी कर सकती है.अब सवाल है कि जब संविधान हमारे समाज पर कॉमन लॉ लागू करने से मना करता है तो क्या यूसीसी लागू होने से आदिवासी समाज प्रभावित नहीं होगा. उन्होंने कहा कि शिड्यूल एरिया के कस्टोडियन गवर्नर होते हैं. अगर राज्य सरकार यूसीसी लाना भी चाहती है तो जब तक ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल सुनिश्चित नहीं करता कि इससे आदिवासी हित प्रभावित नहीं होगा, तबतक राज्यपाल भी अपनी सहमति नहीं दे सकते.

अदिवासी समाज का आरक्षण: पूर्व विधायक और आदिवासी मामलों के जानकार देवकुमार धान ने राज्यपाल के सुझाव का स्वागत किया. उन्होंने ईटीवी भारत को बताया है कि आज भी आदिवासी समाज असमान्य हालत में है. इसी वजह से अदिवासी समाज को अलग से आरक्षण मिलता है. अगर हमे सामान्य की नजर से जोड़ दिया जाएगा तो हमलोग पिछड़ जाएंगे. सबसे पहले समान रूप से स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक व्यवस्था में आदिवासी समाज की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए. अगर ऐसा हो जाता है तो जरूर यूसीसी पर विचार किया जा सकता है. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इसलिए भी यूसीसी पर आपत्ति है क्योंकि इसकी वजह से सीएनटी, एसपीटी, पेसा समेत सामाजिक तानाबाना प्रभावित हो जाएगा.

आदिवासी जनपरिषद के अध्यक्ष प्रेमशाही मुंडा ने कहा कि राज्यपाल ने जो कहा है वह उनका व्यक्तिगत बयान है. उनकी भावना का सम्मान करते हैं. अगर यह बयान प्रधानमंत्री देत तो हमलोग संतुष्ट होते. लेकिन हमारा आंदोलन तब रूकेगा, जब प्रधानमंत्री हमारे पक्ष में बोलेंगे. उन्होंने कहा कि आदिवासी जनपरिषद की ओर से इस मसले पर लॉ कमीशन को सुझाव दिया जा चुका है.

क्या है समान नागरिक संहिता: यह एक देश, एक कानून की विचारधारा पर आधारित है. इसके तहत सभी धर्म और समुदाय के लिए एक ही कानून होना चाहिए. हालाकि भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है. यहां संविधान के मुताबिक सभी धर्म और संप्रदाय मानने वालों को अपने धर्म के हिसाब से कानून बनाने का अधिकार है. इसी आधार पर हिन्दू मैरिज एक्ट 1956 है. लेकिन कहा जाता है कि मुस्लिमों के लिए बना मुस्लिम पर्सन लॉ बिल्कुल अलग है. इसलिए मुस्लिम धर्म को भी समान कानून के दायरे में लाने की जरूरत है. इसपर कई मुस्लिम संगठन सवाल खड़े कर रहे हैं. जबकि पाकिस्तान, मलेशिया, बांग्लादेश, तुर्की, अमेरीका, मिश्र, आयरलैंड समेत कई देशों में समान नागरिक संहिता का पालन होता है.

यूसीसी पर क्या कर रहा है लॉ कमीशन: समान नागरिक संहिता की जरूरत को समझने के लिए लॉ कमीशन ने जनता से राय लेने के लिए 14 जून को एक माह का समय दिया था. 14 जुलाई 2023 को डेडलाइन समाप्त होने के बाद लोगों, संस्थाओं और संगठनों के अनुरोध को देखते हुए सुझाव मांगने की मियाद दो सप्ताह बढ़ाकर 28 जुलाई तक कर दी गई है. 14 जुलाई तक लॉ कमिशन के पास ऑनलाइन और हार्ड कॉपी के जरिए 50 लाख से ज्यादा सुझाव आ चुके थे.

भाजपा के घोषणा पत्र का हिस्सा है यूसीसी: फिलहाल, यूसीसी पर जमकर राजनीति हो रही है. कई पार्टियां ड्राफ्ट आने के बाद प्रतिक्रिया देने की बात कर रही हैं. हालाकि गैर भाजपा दलों का कहना है कि यह 2019 के चुनाव के वक्त भाजपा के घोषणा पत्र का एक हिस्सा था, इसलिए 2024 के चुनाव से पहले इसको उछाला जा रहा है. भाजपा की दलील है कि यूसीसी लागू होने से विवाह से तलाक तक, संपत्ति के अधिकार, उत्तराधिकार और गोद लेने तक के नियम सभी पर समान रूप से लागू होंगे. देश को आगे बढ़ने के लिए इसकी जरूरत है. लेकिन विविधताओं वाले देश में इसको आसानी से धरातल पर उतारना आसान नहीं है. इसलिए लॉ कमीशन लोगों से सीधी राय ले रहा है. खास बात है कि देश में एकमात्र गोवा ही ऐसा राज्य है जहां समान नागरिक संहिता लागू है.

यूसीसी से पांचवी अनुसूची कैसे होगी प्रभावित: राजनीति से इतर झारखंड की बात करें तो यहां के 24 जिलों में से 13 जिले पूर्ण रूप से अनुसूचित क्षेत्र में आते हैं. इसके अलावा तीन जिलों का कुछ भाग भी अनुसूचित क्षेत्र में आता है. इसके बावजूद 1996 में पारित पंचायत एक्सटेंशन टू शिड्यूल एरिया यानी पेसा लागू नहीं हो पाया है. पांचवी अनुसूची क्षेत्र में पंचायती व्यवस्था को आदिवासी समुदाय के पारंपरिक व्यवस्था और संस्कृति के तहत लागू करना है, जो अधूरा है. इसको लेकर आए दिन सड़क से लेकर सदन तक चर्चा होती रहती है लेकिन नतीजा नहीं निकलता. अब यूसीसी पर बहस छिड़ने से कई आदिवासी संगठनों को लग रहा है कि उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा.

रांची: इन दिनों समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर राष्ट्रव्यापी बहस छिड़ी हुई है. वैसे तो मुस्लिम समाज के संदर्भ में इसकी जरूरत पर ज्यादा चर्चा हो रही है लेकिन आदिवासी समाज भी इसको अशंकाओं की नजर से देख रहा है. पिछले कुछ दिनों में कई आदिवासी संगठनों ने बैठक कर यूसीसी के खिलाफ अपनी मंशा जाहिर की है.

एक अंग्रेजी मीडिया को दिए इंटरव्यू में राज्यपाल सीपी राधाकृष्ण का वक्तव्य आदिवासी समाज को सुकून दे सकता है. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इस मसले पर अपनी व्यक्तिगत मंशा जाहिर की है. उनका मानना है कि आदिवासियों को पारंपरिक तरीके से जीवनयापन करने देना चाहिए. जबतक वे खुद तैयार नहीं होते, तबतक यूसीसी से नहीं जोड़ना चाहिए. क्योंकि आदिवासियों का रहन सहन और माहौल गैर आदिवासी समाज से अलग होता है. उनके मुताबिक सभी जानते हैं कि आदिवासी समाज बहुत पिछड़ा हुआ है. खासकर शिक्षा के मामले हैं. सरकारी नौकरी में भी उनकी भागीदारी बहुत कम है.

आदिवासी मामलों के जानकारों की प्रतिक्रिया: मंझगांव से एक बार निर्दलीय और तीन बार कांग्रेस की टिकट पर विधायर रह चुके आदिवासी मामलों के जानकार सह बिहार विधानसभा के पूर्व उपाध्यक्ष देवेंद्र नाथ चंपिया ने कहा कि वह राज्यपाल के बयान का समर्थन करते हैं. उन्होंने बिल्कुल सही बात कही है. रूढ़ी प्रथा के साथ आदिवासी समाज बिना अपराधिक घटनाओं के संचालित होता है. कानून बनता है सुशासन और शांति व्यवस्था के लिए. फिर इस समाज को इसकी क्या जरूरत है. उन्होंने कहा कि झारखंड में पांचवी अनुसूची लागू है. यहां कॉमन लॉ लागू नहीं हो सकता. इसी वजह से हिन्दू मैरेज एक्ट में आदिवासियों को शामिल नहीं किया गया है. क्योंकि आदिवासी समाज एक पुरानी परंपरा पर चलता है.

आर्टिकल 44 पॅालिसी: जहां तक आर्टिकल 44 की बात है तो यह डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी में आता है. अगर राज्य सरकार चाहे तो इसे लागू कर सकती है और चाहे तो नहीं भी कर सकती है.अब सवाल है कि जब संविधान हमारे समाज पर कॉमन लॉ लागू करने से मना करता है तो क्या यूसीसी लागू होने से आदिवासी समाज प्रभावित नहीं होगा. उन्होंने कहा कि शिड्यूल एरिया के कस्टोडियन गवर्नर होते हैं. अगर राज्य सरकार यूसीसी लाना भी चाहती है तो जब तक ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल सुनिश्चित नहीं करता कि इससे आदिवासी हित प्रभावित नहीं होगा, तबतक राज्यपाल भी अपनी सहमति नहीं दे सकते.

अदिवासी समाज का आरक्षण: पूर्व विधायक और आदिवासी मामलों के जानकार देवकुमार धान ने राज्यपाल के सुझाव का स्वागत किया. उन्होंने ईटीवी भारत को बताया है कि आज भी आदिवासी समाज असमान्य हालत में है. इसी वजह से अदिवासी समाज को अलग से आरक्षण मिलता है. अगर हमे सामान्य की नजर से जोड़ दिया जाएगा तो हमलोग पिछड़ जाएंगे. सबसे पहले समान रूप से स्वास्थ्य, शिक्षा और आर्थिक व्यवस्था में आदिवासी समाज की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए. अगर ऐसा हो जाता है तो जरूर यूसीसी पर विचार किया जा सकता है. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इसलिए भी यूसीसी पर आपत्ति है क्योंकि इसकी वजह से सीएनटी, एसपीटी, पेसा समेत सामाजिक तानाबाना प्रभावित हो जाएगा.

आदिवासी जनपरिषद के अध्यक्ष प्रेमशाही मुंडा ने कहा कि राज्यपाल ने जो कहा है वह उनका व्यक्तिगत बयान है. उनकी भावना का सम्मान करते हैं. अगर यह बयान प्रधानमंत्री देत तो हमलोग संतुष्ट होते. लेकिन हमारा आंदोलन तब रूकेगा, जब प्रधानमंत्री हमारे पक्ष में बोलेंगे. उन्होंने कहा कि आदिवासी जनपरिषद की ओर से इस मसले पर लॉ कमीशन को सुझाव दिया जा चुका है.

क्या है समान नागरिक संहिता: यह एक देश, एक कानून की विचारधारा पर आधारित है. इसके तहत सभी धर्म और समुदाय के लिए एक ही कानून होना चाहिए. हालाकि भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है. यहां संविधान के मुताबिक सभी धर्म और संप्रदाय मानने वालों को अपने धर्म के हिसाब से कानून बनाने का अधिकार है. इसी आधार पर हिन्दू मैरिज एक्ट 1956 है. लेकिन कहा जाता है कि मुस्लिमों के लिए बना मुस्लिम पर्सन लॉ बिल्कुल अलग है. इसलिए मुस्लिम धर्म को भी समान कानून के दायरे में लाने की जरूरत है. इसपर कई मुस्लिम संगठन सवाल खड़े कर रहे हैं. जबकि पाकिस्तान, मलेशिया, बांग्लादेश, तुर्की, अमेरीका, मिश्र, आयरलैंड समेत कई देशों में समान नागरिक संहिता का पालन होता है.

यूसीसी पर क्या कर रहा है लॉ कमीशन: समान नागरिक संहिता की जरूरत को समझने के लिए लॉ कमीशन ने जनता से राय लेने के लिए 14 जून को एक माह का समय दिया था. 14 जुलाई 2023 को डेडलाइन समाप्त होने के बाद लोगों, संस्थाओं और संगठनों के अनुरोध को देखते हुए सुझाव मांगने की मियाद दो सप्ताह बढ़ाकर 28 जुलाई तक कर दी गई है. 14 जुलाई तक लॉ कमिशन के पास ऑनलाइन और हार्ड कॉपी के जरिए 50 लाख से ज्यादा सुझाव आ चुके थे.

भाजपा के घोषणा पत्र का हिस्सा है यूसीसी: फिलहाल, यूसीसी पर जमकर राजनीति हो रही है. कई पार्टियां ड्राफ्ट आने के बाद प्रतिक्रिया देने की बात कर रही हैं. हालाकि गैर भाजपा दलों का कहना है कि यह 2019 के चुनाव के वक्त भाजपा के घोषणा पत्र का एक हिस्सा था, इसलिए 2024 के चुनाव से पहले इसको उछाला जा रहा है. भाजपा की दलील है कि यूसीसी लागू होने से विवाह से तलाक तक, संपत्ति के अधिकार, उत्तराधिकार और गोद लेने तक के नियम सभी पर समान रूप से लागू होंगे. देश को आगे बढ़ने के लिए इसकी जरूरत है. लेकिन विविधताओं वाले देश में इसको आसानी से धरातल पर उतारना आसान नहीं है. इसलिए लॉ कमीशन लोगों से सीधी राय ले रहा है. खास बात है कि देश में एकमात्र गोवा ही ऐसा राज्य है जहां समान नागरिक संहिता लागू है.

यूसीसी से पांचवी अनुसूची कैसे होगी प्रभावित: राजनीति से इतर झारखंड की बात करें तो यहां के 24 जिलों में से 13 जिले पूर्ण रूप से अनुसूचित क्षेत्र में आते हैं. इसके अलावा तीन जिलों का कुछ भाग भी अनुसूचित क्षेत्र में आता है. इसके बावजूद 1996 में पारित पंचायत एक्सटेंशन टू शिड्यूल एरिया यानी पेसा लागू नहीं हो पाया है. पांचवी अनुसूची क्षेत्र में पंचायती व्यवस्था को आदिवासी समुदाय के पारंपरिक व्यवस्था और संस्कृति के तहत लागू करना है, जो अधूरा है. इसको लेकर आए दिन सड़क से लेकर सदन तक चर्चा होती रहती है लेकिन नतीजा नहीं निकलता. अब यूसीसी पर बहस छिड़ने से कई आदिवासी संगठनों को लग रहा है कि उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा.

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