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झारखंड के महानायकों के बिना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अधूरी, जानिए सेनानियों की पूरी गाथा

स्वतंत्रता संग्राम की गाथा बिना झारखंड के स्वतंत्रता सेनानियों के अधूरी है. प्रदेश के स्वतंत्रता सेनानियों ने 1857 के पहले ही अंग्रेजों के खिलाफ बिगूल फूंक दिया था. इन महानयकों ने सबसे पहले अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ा था और उनका कमर भी तोड़ दी थी.

झारखंड के महानायकों के बिना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम अधूरी
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Published : Aug 14, 2019, 10:08 PM IST

रांची: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गाथा झारखंड के स्वतंत्रता सेनानियों के बगैर पूरी नहीं हो सकती है. वैसे तो स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 1857 का सिपाही विद्रोह अंग्रेजों के खिलाफ पहला विद्रोह माना जाता है, लेकिन झारखंड में उससे भी पहले ही यहां रहने वाले आदिवासियों ने तत्कालीन अंग्रेजी शासन व्यवस्था के खिलाफ कड़ी आवाज उठाई थी. हालांकि 1855 में मौजूदा साहिबगंज जिले के भोगनाडीह में हुए उस आंदोलन की चर्चा संथाल विद्रोह से शुरू होती है. जब मौजूदा संथाल परगना इलाके में आदिवासियों ने न केवल अंग्रेजों के दांत खट्टे किए बल्कि उन्हें पीछे भी धकेल दिया.

देखें स्पेशल स्टोरी

उसी तरह 1857 के विद्रोह की चिंगारी छोटानागपुर, पलामू और मौजूदा कोल्हान तक पहुंची. तत्कालीन बंगाल के 1854 में लेफ्टिनेंट बने फ्रेड्रिक हेलिडे ने भी लिखा है कि बंगाल के किसी भाग में विप्लव नहीं हुआ था. छोटानागपुर का इलाका जो तत्कालीन रांची, रामगढ़, हजारीबाग और गिरिडीह में फैला बुआ था वहां भी अंग्रेजों के खिलाफ आग सुलग रही थी. उन इलाकों में वीर कुंवर सिंह के विद्रोह संदेश पहुंचाए गए. रांची के ठाकुर विश्वनाथ, पांडे गणपत राय, रामगढ़ बटालियन के जमादार माधव सिंह, डोरंडा बटालियन के जय मंगल पांडे, पलामू के नीलाम्बर पीताम्बर, पोड़ैयाहाट के राजा अर्जुन सिंह ने भी सुनियोजित ढंग से विद्रोह संचालन की गुप्त मंत्रणा की. 1857 से पहले हुआ था संथाल विद्रोह. वहीं, मौजूदा संथाल परगना इलाके के भोगनाडीह में सिद्धू-कानू और चांद-भैरव संथाल भाइयों ने अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाई. हालांकि उनका विद्रोह महाजनी प्रथा के सीधे खिलाफ था.

इसे भी पढ़ें:- रांची के ऑड्रे हाउस का इतिहास है दिलचस्प, भगवान बिरसा मुंडा के केस की सुनवाई का है गवाह

दरअसल अंग्रेजों का प्रश्रय बाहर से आए महाजन और व्यापारियों को मिला हुआ था. वे आदिवासियों से सूद और मुनाफा लेते थे जिसका इन संथाल भाइयों ने विरोध किया. नतीजा यह हुआ कि 30 जून 1855 को लगभग 10,000 संथालों ने विद्रोह कर दिया.


झारखंड के नायक थे तिलका मांझी
अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने वाले तिलका मांझी झारखंड के नायक थे. 1770 में संथाल परगना इलाके में इन्होंने अंग्रेजों की जमीन अधिग्रहण नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई. अंग्रेजी अधिकारी वारेन हेस्टिंग्स के खिलाफ उन्होंने विद्रोह का बिगुल फूंका. सिद्धू और कान्हू दोनों भाई थे, जिन्होंने 1855 में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंका और उनके दांत खट्टे कर दिए.


बिरसा मुंडा को भगवान दर्जा
छोटानागपुर इलाके में बिरसा मुंडा का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है. इन्हें यहां के आदिवासी भगवान मानते हैं. बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश राज के खिलाफ 19वीं सदी में आवाज उठाई. आदिवासी समुदाय के मुंडाओं के बीच में उन्हें धरती आबा कहा जाता है. तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर ने उनकी गिरफ्तारी के लिए 500 रुपये का इनाम भी रखा था.


शहीद नीलांबर-पीतांबर थे पराक्रमी
स्वतंत्र भारत में अगर जंग-ए-आजादी की चर्चा हो या फिर देश में स्वतंत्रता संबंधित कोई समारोह, पलामू की धरती पर जन्मे वीर शहीद नीलांबर और पीतांबर की चर्चा न हो ये हो नहीं सकता. शहीद नीलांबर-पीतांबर बड़े पराक्रमी धीर-वीर तथा गंभीर राष्ट्रभक्त थे. पलामू इलाके में नीलाम्बर पीताम्बर का नाम भी सम्मान से लिया जाता है. पलामू में आंदोलन के सूत्रधार नीलांबर-पीतांबर का एक संबंधी के यहां से गिरफ्तार कर बिना मुकदमा चलाये ही 28 मार्च 1859 को लेस्लीगंज में फांसी दे दी गई थी.

अंग्रेजों के शासनकाल में पलामू में जो कमिश्नरी व्यवस्था बहाल की गई थी. वहीं व्यवस्था अभी भी झारखंड के अलग-अलग जिलों में है. हर जिले में एक उपायुक्त होता है और कुछ जिलों को मिलाकर कमिश्नरी बनाई गई है, जिसके प्रशासनिक प्रमुख कमिश्नर होते हैं. छोटानागपुर रीजन को दक्षिण और उत्तरी छोटानागपुर में बांट दिया गया, जबकि अंग्रेजी शासनकाल में छोटानागपुर कमिश्नर हुआ करते थे. हालांकि इस व्यवस्था को अडॉप्ट करने के पीछे वजह यह बताई गई कि यह इलाके अनुसूचित जिले और पांचवें शेड्यूल के अंतर्गत आते हैं.

रांची: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गाथा झारखंड के स्वतंत्रता सेनानियों के बगैर पूरी नहीं हो सकती है. वैसे तो स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 1857 का सिपाही विद्रोह अंग्रेजों के खिलाफ पहला विद्रोह माना जाता है, लेकिन झारखंड में उससे भी पहले ही यहां रहने वाले आदिवासियों ने तत्कालीन अंग्रेजी शासन व्यवस्था के खिलाफ कड़ी आवाज उठाई थी. हालांकि 1855 में मौजूदा साहिबगंज जिले के भोगनाडीह में हुए उस आंदोलन की चर्चा संथाल विद्रोह से शुरू होती है. जब मौजूदा संथाल परगना इलाके में आदिवासियों ने न केवल अंग्रेजों के दांत खट्टे किए बल्कि उन्हें पीछे भी धकेल दिया.

देखें स्पेशल स्टोरी

उसी तरह 1857 के विद्रोह की चिंगारी छोटानागपुर, पलामू और मौजूदा कोल्हान तक पहुंची. तत्कालीन बंगाल के 1854 में लेफ्टिनेंट बने फ्रेड्रिक हेलिडे ने भी लिखा है कि बंगाल के किसी भाग में विप्लव नहीं हुआ था. छोटानागपुर का इलाका जो तत्कालीन रांची, रामगढ़, हजारीबाग और गिरिडीह में फैला बुआ था वहां भी अंग्रेजों के खिलाफ आग सुलग रही थी. उन इलाकों में वीर कुंवर सिंह के विद्रोह संदेश पहुंचाए गए. रांची के ठाकुर विश्वनाथ, पांडे गणपत राय, रामगढ़ बटालियन के जमादार माधव सिंह, डोरंडा बटालियन के जय मंगल पांडे, पलामू के नीलाम्बर पीताम्बर, पोड़ैयाहाट के राजा अर्जुन सिंह ने भी सुनियोजित ढंग से विद्रोह संचालन की गुप्त मंत्रणा की. 1857 से पहले हुआ था संथाल विद्रोह. वहीं, मौजूदा संथाल परगना इलाके के भोगनाडीह में सिद्धू-कानू और चांद-भैरव संथाल भाइयों ने अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाई. हालांकि उनका विद्रोह महाजनी प्रथा के सीधे खिलाफ था.

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दरअसल अंग्रेजों का प्रश्रय बाहर से आए महाजन और व्यापारियों को मिला हुआ था. वे आदिवासियों से सूद और मुनाफा लेते थे जिसका इन संथाल भाइयों ने विरोध किया. नतीजा यह हुआ कि 30 जून 1855 को लगभग 10,000 संथालों ने विद्रोह कर दिया.


झारखंड के नायक थे तिलका मांझी
अंग्रेजों के खिलाफ आवाज उठाने वाले तिलका मांझी झारखंड के नायक थे. 1770 में संथाल परगना इलाके में इन्होंने अंग्रेजों की जमीन अधिग्रहण नीतियों के खिलाफ आवाज उठाई. अंग्रेजी अधिकारी वारेन हेस्टिंग्स के खिलाफ उन्होंने विद्रोह का बिगुल फूंका. सिद्धू और कान्हू दोनों भाई थे, जिन्होंने 1855 में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंका और उनके दांत खट्टे कर दिए.


बिरसा मुंडा को भगवान दर्जा
छोटानागपुर इलाके में बिरसा मुंडा का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है. इन्हें यहां के आदिवासी भगवान मानते हैं. बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश राज के खिलाफ 19वीं सदी में आवाज उठाई. आदिवासी समुदाय के मुंडाओं के बीच में उन्हें धरती आबा कहा जाता है. तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर ने उनकी गिरफ्तारी के लिए 500 रुपये का इनाम भी रखा था.


शहीद नीलांबर-पीतांबर थे पराक्रमी
स्वतंत्र भारत में अगर जंग-ए-आजादी की चर्चा हो या फिर देश में स्वतंत्रता संबंधित कोई समारोह, पलामू की धरती पर जन्मे वीर शहीद नीलांबर और पीतांबर की चर्चा न हो ये हो नहीं सकता. शहीद नीलांबर-पीतांबर बड़े पराक्रमी धीर-वीर तथा गंभीर राष्ट्रभक्त थे. पलामू इलाके में नीलाम्बर पीताम्बर का नाम भी सम्मान से लिया जाता है. पलामू में आंदोलन के सूत्रधार नीलांबर-पीतांबर का एक संबंधी के यहां से गिरफ्तार कर बिना मुकदमा चलाये ही 28 मार्च 1859 को लेस्लीगंज में फांसी दे दी गई थी.

अंग्रेजों के शासनकाल में पलामू में जो कमिश्नरी व्यवस्था बहाल की गई थी. वहीं व्यवस्था अभी भी झारखंड के अलग-अलग जिलों में है. हर जिले में एक उपायुक्त होता है और कुछ जिलों को मिलाकर कमिश्नरी बनाई गई है, जिसके प्रशासनिक प्रमुख कमिश्नर होते हैं. छोटानागपुर रीजन को दक्षिण और उत्तरी छोटानागपुर में बांट दिया गया, जबकि अंग्रेजी शासनकाल में छोटानागपुर कमिश्नर हुआ करते थे. हालांकि इस व्यवस्था को अडॉप्ट करने के पीछे वजह यह बताई गई कि यह इलाके अनुसूचित जिले और पांचवें शेड्यूल के अंतर्गत आते हैं.

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