रांची: आज संपूर्ण देश में हिंदी दिवस मनाया जा रहा है. हिंदी भाषा को बढ़ावा देना, हिंदी की पहुंच को दूर-दूर तक बढ़ावा देने के उद्देश्य से हिंदी दिवस हर साल मनाया जाता है. हिंदी दिवस के अवसर पर जिन्होंने भी काम किया है यह उन्हें याद करने का दिन है. ऐसे में फादर कामिल बुल्के को इस दिन याद न किया जाए तो यह हिंदी के साथ अन्याय है.
कौन हैं फादर कामिल बुल्के
बेल्जियम में 1 सितंबर 1919 को पैदा हुए फादर बुल्के 26 वर्ष की उम्र में ईसाई धर्म का प्रचार करने भारत आए थे. लेकिन यहां की सभ्यता-संस्कृति में ऐसे रमे की यहीं के होकर रह गए. मूल रूप से बेल्जियम के रहने वाले बुल्के ने अपने जीवन के 73 सालों में से 37 वर्ष भारत में ही बिताए. ऐसा कहा जाता है कि कामिल बुल्के तुलसी और वाल्मीकि के भक्त रहे हैं. राम कथा की उत्पत्ति पर सबसे प्रमाणिक शोध बाल्के ने किया था. हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश इन्होंने ही बनाया था. हिंदी को बढ़ावा देने को लेकर ऐसे कई कीर्तिमान है जो इन्होंने हासिल किया है.
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ब्रज-अवधि भाषा के उत्थान के लिए भी किए उल्लेखनीय काम
बुल्के हिंदी के ऐसे समर्पित सेवक रहे हैं, जिनकी देश-विदेश में मिसाल दी जाती है, लेकिन बुल्के हिंदी ही नहीं बल्कि ब्रज, अवधी और संस्कृत भाषा में भी पारंगत रहे हैं. हिंदी साहित्य और शोध के अलावा तुलसीदास पर शोध के कारण भी इन्हें प्रसिद्धि मिली.
अविभाजित बिहार को बनाया था अपनी कर्मस्थली
फादर कामिल बुल्के ने अविभाजित बिहार और अब के झारखंड को अपनी कर्मस्थली बनाया था. शुरुआती दिनों में गुमला के एक कॉलेज में गणित पढ़ाने के बाद वे रांची के जेवियर्स कॉलेज में हिंदी और संस्कृत के प्रोफेसर बन गए थे. हालांकि बाद में उन्होंने खुद को पूरी तरह से हिंदी साहित्य और भाषा के लिए समर्पित कर दिया. उनकी लिखित कई अमूल्य ग्रंथ आज भी सत्य भारती कामिल बुल्के पुस्तकालय में मौजूद है. वहीं आज भी रांची में उनके बनाए गए लाइब्रेरी मानरेसा हाउस में उनकी स्मृति मिल जाएगी.
पद्मभूषण से हो चुके हैं सम्मानित
फादर बुल्के ने 1950 में भारत की नागरिकता हासिल की और हिंदी के प्रति सेवा के लिए उन्हें 1974 में देश के तीसरे सर्वोच्च सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया. हिंदी के प्रति उन्होंने जो सेवा कार्य किया है उसे भुला पाना असंभव है.