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हिंदी दिवस स्पेशल: फादर कामिल बुल्के जिन्होंने हिंदी सेवा में समर्पित किया अपना जीवन

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Published : Sep 14, 2019, 6:06 PM IST

हिंदी के विकास-उत्थान के लिए फादर कामिल बुल्के के किए योगदान को भुला पाना असंभव है. हिंदी के प्रति सेवा के लिए उन्हें 1974 में देश के तीसरे सर्वोच्च सम्मान पद्मभूषण से भी सम्मानित किया जा चुका है.

फादर कामिल बुल्के

रांची: आज संपूर्ण देश में हिंदी दिवस मनाया जा रहा है. हिंदी भाषा को बढ़ावा देना, हिंदी की पहुंच को दूर-दूर तक बढ़ावा देने के उद्देश्य से हिंदी दिवस हर साल मनाया जाता है. हिंदी दिवस के अवसर पर जिन्होंने भी काम किया है यह उन्हें याद करने का दिन है. ऐसे में फादर कामिल बुल्के को इस दिन याद न किया जाए तो यह हिंदी के साथ अन्याय है.

देखें पूरी खबर

कौन हैं फादर कामिल बुल्के
बेल्जियम में 1 सितंबर 1919 को पैदा हुए फादर बुल्के 26 वर्ष की उम्र में ईसाई धर्म का प्रचार करने भारत आए थे. लेकिन यहां की सभ्यता-संस्कृति में ऐसे रमे की यहीं के होकर रह गए. मूल रूप से बेल्जियम के रहने वाले बुल्के ने अपने जीवन के 73 सालों में से 37 वर्ष भारत में ही बिताए. ऐसा कहा जाता है कि कामिल बुल्के तुलसी और वाल्मीकि के भक्त रहे हैं. राम कथा की उत्पत्ति पर सबसे प्रमाणिक शोध बाल्के ने किया था. हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश इन्होंने ही बनाया था. हिंदी को बढ़ावा देने को लेकर ऐसे कई कीर्तिमान है जो इन्होंने हासिल किया है.

यह भी पढ़ें- हिंदी दिवस: बदलते दौर में युवाओं को नहीं है हिंदी की अच्छी जानकारी, अंग्रेजी को दे रहे तवज्जो

ब्रज-अवधि भाषा के उत्थान के लिए भी किए उल्लेखनीय काम
बुल्के हिंदी के ऐसे समर्पित सेवक रहे हैं, जिनकी देश-विदेश में मिसाल दी जाती है, लेकिन बुल्के हिंदी ही नहीं बल्कि ब्रज, अवधी और संस्कृत भाषा में भी पारंगत रहे हैं. हिंदी साहित्य और शोध के अलावा तुलसीदास पर शोध के कारण भी इन्हें प्रसिद्धि मिली.

अविभाजित बिहार को बनाया था अपनी कर्मस्थली
फादर कामिल बुल्के ने अविभाजित बिहार और अब के झारखंड को अपनी कर्मस्थली बनाया था. शुरुआती दिनों में गुमला के एक कॉलेज में गणित पढ़ाने के बाद वे रांची के जेवियर्स कॉलेज में हिंदी और संस्कृत के प्रोफेसर बन गए थे. हालांकि बाद में उन्होंने खुद को पूरी तरह से हिंदी साहित्य और भाषा के लिए समर्पित कर दिया. उनकी लिखित कई अमूल्य ग्रंथ आज भी सत्य भारती कामिल बुल्के पुस्तकालय में मौजूद है. वहीं आज भी रांची में उनके बनाए गए लाइब्रेरी मानरेसा हाउस में उनकी स्मृति मिल जाएगी.

पद्मभूषण से हो चुके हैं सम्मानित
फादर बुल्के ने 1950 में भारत की नागरिकता हासिल की और हिंदी के प्रति सेवा के लिए उन्हें 1974 में देश के तीसरे सर्वोच्च सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया. हिंदी के प्रति उन्होंने जो सेवा कार्य किया है उसे भुला पाना असंभव है.

रांची: आज संपूर्ण देश में हिंदी दिवस मनाया जा रहा है. हिंदी भाषा को बढ़ावा देना, हिंदी की पहुंच को दूर-दूर तक बढ़ावा देने के उद्देश्य से हिंदी दिवस हर साल मनाया जाता है. हिंदी दिवस के अवसर पर जिन्होंने भी काम किया है यह उन्हें याद करने का दिन है. ऐसे में फादर कामिल बुल्के को इस दिन याद न किया जाए तो यह हिंदी के साथ अन्याय है.

देखें पूरी खबर

कौन हैं फादर कामिल बुल्के
बेल्जियम में 1 सितंबर 1919 को पैदा हुए फादर बुल्के 26 वर्ष की उम्र में ईसाई धर्म का प्रचार करने भारत आए थे. लेकिन यहां की सभ्यता-संस्कृति में ऐसे रमे की यहीं के होकर रह गए. मूल रूप से बेल्जियम के रहने वाले बुल्के ने अपने जीवन के 73 सालों में से 37 वर्ष भारत में ही बिताए. ऐसा कहा जाता है कि कामिल बुल्के तुलसी और वाल्मीकि के भक्त रहे हैं. राम कथा की उत्पत्ति पर सबसे प्रमाणिक शोध बाल्के ने किया था. हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश इन्होंने ही बनाया था. हिंदी को बढ़ावा देने को लेकर ऐसे कई कीर्तिमान है जो इन्होंने हासिल किया है.

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ब्रज-अवधि भाषा के उत्थान के लिए भी किए उल्लेखनीय काम
बुल्के हिंदी के ऐसे समर्पित सेवक रहे हैं, जिनकी देश-विदेश में मिसाल दी जाती है, लेकिन बुल्के हिंदी ही नहीं बल्कि ब्रज, अवधी और संस्कृत भाषा में भी पारंगत रहे हैं. हिंदी साहित्य और शोध के अलावा तुलसीदास पर शोध के कारण भी इन्हें प्रसिद्धि मिली.

अविभाजित बिहार को बनाया था अपनी कर्मस्थली
फादर कामिल बुल्के ने अविभाजित बिहार और अब के झारखंड को अपनी कर्मस्थली बनाया था. शुरुआती दिनों में गुमला के एक कॉलेज में गणित पढ़ाने के बाद वे रांची के जेवियर्स कॉलेज में हिंदी और संस्कृत के प्रोफेसर बन गए थे. हालांकि बाद में उन्होंने खुद को पूरी तरह से हिंदी साहित्य और भाषा के लिए समर्पित कर दिया. उनकी लिखित कई अमूल्य ग्रंथ आज भी सत्य भारती कामिल बुल्के पुस्तकालय में मौजूद है. वहीं आज भी रांची में उनके बनाए गए लाइब्रेरी मानरेसा हाउस में उनकी स्मृति मिल जाएगी.

पद्मभूषण से हो चुके हैं सम्मानित
फादर बुल्के ने 1950 में भारत की नागरिकता हासिल की और हिंदी के प्रति सेवा के लिए उन्हें 1974 में देश के तीसरे सर्वोच्च सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया. हिंदी के प्रति उन्होंने जो सेवा कार्य किया है उसे भुला पाना असंभव है.

Intro:हिंदी दिवस स्पेशल....

रांची।

फादर कामिल बुल्के युवावस्था में भारत आए और यहां की बोली बानी मैं ऐसे रमे की यहीं का होकर रह गए .हिंदी दिवस के अवसर पर फादर कामिल बुल्के को ना याद करना यह बेमानी होगा .मूल रूप से बेल्जियम के रहने वाले बुल्के अपने जीवन के 73 सालों में से 37 वर्ष भारत में ही बिताए. ऐसा कहा जाता है की तुलसी और बाल्मीकि के भक्त रहे हैं कामिल बुल्के. राम कथा की उत्पत्ति पर सबसे प्रमाणिक शोध किया था . हिंदी अंग्रेजी शब्दकोश इन्होंने ही बनाया था . हिंदी को बढ़ावा देने को लेकर ऐसे कई कीर्तिमान है जो इन्होंने हासिल किया है . इससे जुड़ी स्मृति रांची में आज भी मौजूद है...


Body:फादर कामिल बुल्के बेल्जियम से भारत आए एक मिशनरी थे. भारत आकर इन्होंने तुलसी और बाल्मीकि के अनुसरण किया और तुलसी की आराधना भी की थी. राम कथा की उत्पत्ति पर सबसे प्रमाणिक शोध फादर कामिल बुल्के द्वारा ही किया गया था. बुलके हिंदी के ऐसे समर्पित सेवक रहे हैं. जिनकी मिसाल दी जाती है .हिंदी ही नहीं बल्कि ब्रज, अवधी और संस्कृत भाषा में भी कामिल बुल्के काफी पारंगत रहे हैं .जीवन के 73 सालों में से 37 वर्ष भारत में ही कामिल बुल्के ने बिताए हैं और यही के नागरिकता भी इन्होंने हासिल किया .पद्म भूषण से सम्मानित भी कह गए. हिंदी साहित्य और शोध के अलावे तुलसीदास पर शोध के लिए इन्हें प्रसिद्धि मिली. 26 साल की उम्र में ईसाई धर्म का प्रचार करने ये भारत आए थे .लेकिन यहां आकर उन्होंने अपना पूरा जीवन हिंदी भाषा के लिए खपा दिया. भारत आने पर उनको भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिंदी ने ऐसा मोहित किया कि. उन्होंने अपना पूरा जीवन हिंदी की सेवा में खपा दिया. बेल्जियम में 1 सितंबर 1919 को पैदा हुए फादर बुल्के ने 1950 में भारत की नागरिकता हासिल की थी .हिंदी के प्रति सेवा के लिए उन्हें 1974 में देश का तीसरा सर्वोच्च सम्मान पद्मभूषण से नवाजा गया .अभी भी रांची में उनके बनाए गए लाइब्रेरी मानरेसा हाउस जैसे स्मृति मिल जाएंगे. वहीं फादर कामिल बुलके सत्य भारती पुस्तकालय भी रांची में ही मौजूद है..


Conclusion:फादर कामिल बुल्के ने उस समय के बिहार और अब के झारखंड को अपनी कर्मस्थली बनाया था .शुरुआती दिनों में गुमला के एक कॉलेज में गणित पढ़ाने के बाद वे रांची के जेवियर्स कॉलेज में हिंदी और संस्कृत के प्रोफेसर भी बन गए थे .हालांकि बाद में उन्होंने खुद को पूरी तरह से हिंदी साहित्य और भाषा के लिए समर्पित कर दिया .इसका परिणाम उनके द्वारा रचे गए कई अमूल्य ग्रंथ आज भी सत्य भारती कामिल बुल्के पुस्तकालय में मौजूद है.

बाइट-इमानुएल बाखला,निदेशक, कामिल बुल्के शोध संस्थान.
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