रांची: भागदौड़ भरी जिंदगी में समय के पहिए के साथ सामंजस्य बनाने के लिए फास्ट फूड मजबूरी बन गई है. लेकिन आगे चलकर इसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है और अस्पतालों के चक्कर काटने पड़ते हैं. शहरों में व्यस्त जिंदगी जीने वाले लोग चाहते हैं कि उन्हें बाजार में घर जैसा खाना मिले. राजधानी में एक ऐसी जगह है जहां आदिवासी रीत-रिवाज के साथ पारंपरिक तरीके से लजीज व्यंजन परोसा जाता है. जहां लोगों की अच्छी-खासी भीड़ भी देखी जाती है.
XISS से पास आउट है अरुणा तिर्की
शहर के चर्चित संस्थान XISS से ग्रामीण प्रबंधन की डिग्री लेने वाली आदिवासी महिला अरुणा तिर्की ने फास्ट फूड की जगह स्लो फूड को अपने व्यवसाय का जरिया बनाया है. यहां पहुंचने पर सबसे पहले आदिवासी परंपरा के अनुसार लोटा में पानी भरकर हाथ धुलाया जाता है और फिर चटाई पर बिठाकर घर की तरह खाना खिलाया जाता है. मड़ुआ की रोटी, धुस्का, खुखड़ी, रुगड़ा, बांस करील, पिठ्ठा, चिमटी साग, फुटकल साग, देसी चिकन, मटन, काड़हा, जड़ी बूटियों का सूप यहां की खासियत है. अब दूर-दूर से लोग अरुणा तिर्की के अजम एंबा रेस्टोरेंट में खाने आने लगे हैं. मेनू में आप हर व्यंजन का रेट भी देख सकते हैं. खास बात है कि जिस तरीके से लोगों का यहां सत्कार किया जाता है वह उनके दिलो-दिमाग पर एक छाप छोड़ जाता है.
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लकड़ी के चूल्हे पर तैयार होता है खाना
सबसे खास बात यह है कि अरुणा के इस अजम एंबा रेस्टोरेंट् में लकड़ी के चूल्हे पर खाना तैयार होता है. चावल को ढेंकी में कूटा जाता है, मसालों को भी सीलोटी से पिसा जाता है. यहां खाने के लिए थोड़ा इंतजार जरूर करना पड़ता है लेकिन जब खाना सामने आता है तो वह मन को छू जाता है. क्योंकि साल के पत्ते पर यहां खाना परोसा जाता है. लिक्विड आइटम को मिट्टी के बर्तन में परोसा जाता है और पीने का पानी कांसे के गिलास में दिया जाता है.
आदिवासी संस्कृति की पहचान अजम एंबा रेस्टोरेंट
अरुणा का अजम एंबा रेस्टोरेंट आदिवासी संस्कृति की पहचान बन गया है. रांची आने वाले दूसरे देशों के सैलानी भी ढाबे पर जरूर पहुंचते हैं और यहां के पारंपरिक जाएके का खूब लुफ्त उठाते हैं. यहां मैदा का नहीं बल्कि मड़ुआ का मोमो भी मिलता है. आदिवासियों की थाली से लगभग लुप्त हो चुकी गोंदली का हलवा भी यहां खाने को मिल जाएगा. बिरसा कृषि विश्वविद्यालय की फूड विशेषज्ञ डॉ रेखा सिन्हा ने बताया कि फास्ट फूड के कारण लोग गंभीर बीमारियों से ग्रसित हो रहे हैं. इससे बचने का सिर्फ एक ही रास्ता है कि हमें अपने पारंपरिक तौर-तरीके के साथ पारंपरिक भोजन की ओर लौटना पड़ेगा.