पलामू: मोहर्रम को लेकर मुस्लिम समुदाय को लोगों ने तैयारी तेज कर दी है. इस्लामिक कैलेंडर के पहले माह मोहर्रम को शहादत का महीना कहा गया है. दुनियाभर में मुसलमान इस माह को सादगी और इबादत के साथ गुजारते हैं. जिसको लेकर जिले के हुसैनाबाद और हैदरनगर में मुस्लिम समुदाय के लोग शुरुआती 2 महीने 8 दिन तक कोई शुभ कार्य नहीं करते हैं.
पलामू के इन जगहों में मोहर्रम मनाने का अंदाज है अनोखा
हुसैनाबाद और हैदरनगर में मोहर्रम मनाने का अंदाज कुछ खास है. मोहर्रम की चांद रात से ही मजलिसों और नौहा का कार्यक्रम यहां के सभी इमामबारगाहों में चल रहा है. जहां एक तरफ पुरुष और दूसरी तरफ महिलाएं शहीद-ए-कर्बला का जिक्र करते हैं. हुसैनाबाद और हैदरनगर के इलाकों में बड़ी संख्या में शिया समुदाय के लोग निवास करते हैं. जिसके कारण यहां पर मोहर्रम मनाये का अंदाज दूसरी जगह से अलग हो जाता है.
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10 साल के बच्चों से लेकर 60 साल के बुजुर्ग भी मनाते है जंजीरी मातम
शिया समुदाय के मुतवल्ली सैयद अयूब हुसैन ने बताया कि मोहर्रम के चांद रात से 2 महीना 8 दिन तक समुदाय की सभी महिलाएं श्रृंगार, चूड़ी, बिंदी नहीं लगाती हैं. साथ ही महिलाएं किसी भी तरह के श्रृंगार नहीं करती हैं. मोहर्रम की चांद रात से पुरूष भी सादगी पूर्ण जीवन जीते हैं. उन्होंने पूरी जानकारी देते हुए बताया कि हुसैनाबाद और हैदरनगर में राष्ट्रीय स्तर के उलेमाओं को भी बुलाया गया है. इस दौरान 13 दिनों तक दिन-रात मजलिस और मर्सिया का कार्यक्रम होता रहता है. मोहर्रम के पांचवें दिन अली-अकबर का ताबूत निकाला जाता है. छठे दिन कुजे का मातम मनाया जाता है. सातवीं को मेंहदी की रस्म अदा होती है. आठवीं को जंजीरी मातम मनाया जाता है, नवमीं को सभी इमामबारगाहों में मजलिस होती है जबकि दसवीं को मोहर्रम की मजलिस और ब्लेड से मातम करते हुए समुदाय के सभी लोग कर्बला तक जाते हैं.
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वहीं, दसवें दिन सभी आलम, सिपर और ताजिया का पहलाम किया जायेगा. इस दौरान समुदाय के लोग जंजीरी मातम मनाएंगे. जिसको देखने के लिए जिले के कोने-कोने से लोग हैदरनगर और हुसैनाबाद पहुंचते हैं. इसके अलावे गढ़वा, बिहार के रोहतास और औरंगाबाद के लोग भी मातमी जुलूस देखने यहां पहुंचते हैं. मुतवल्ली सैयद अयूब हुसैन ने बताया कि कर्बला की जंग में हुसैनियों की तकलीफ का अहसास खुद पर चाकू और ब्लेड चला कर लोग करते हैं. जिसमे 10 साल के बच्चे से लेकर 60 साल के बुजुर्ग भी रहते हैं.