पलामू: माओवादियों की सबसे मजबूत ताकत अब कमजोरी बन गई है. माओवादी अपने ठिकानों को सुरक्षित नहीं रख पा रहे हैं. नतीजा है कि पिछले आठ महीनों में माओवादियों को अपने सबसे मजबूत ठिकाना छकरबंधा और बूढ़ापहाड़ को छोड़ कर भागना पड़ा है. छरकरबंधा की सीमा बिहार के गया, औरंगाबाद के साथ साथ झारखंड के चतरा और पलामू से सटी हुई है.
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बूढ़ापहाड़ और छकरबंधा के इलाके में सुरक्षाबलों के अभियान के बाद माओवादी इलाका छोड़ कर भाग गए हैं. इन ठिकानों को बचाने के लिए माओवादी अक्सर लैंड माइंस का इस्तेमाल करते थे, लेकिन अब वे इसका इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं. एक टॉप सुरक्षा अधिकारी ने बताया कि माओवादियों के खिलाफ एक रणिनीति के तहत अभियान शुरू किया गया है. माओवादियों को एक जगह अधिक दिनों तक रुकने का मौका नहीं दिया जा रहा है. यही वजह है कि हाल के दिनों में सुरक्षाबल और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ की घटना हो रही है.
इन मुठभेड़ों में सुरक्षाबलों की सफलता मिल रही है. सुरक्षा अधिकारी ने बताया कि माओवादी अपने ठिकाने को लैंडमाइंस के माध्यम से सुरक्षित करते हैं. लेकिन सुरक्षाबलों के अभियान के कारण वे अपने ठिकानों पर रुक नहीं पा रहे हैं. यही वजह है कि वे लैंडमाइंस का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं. चतरा मुठभेड़ में शामिल सभी माओवादी लैंडमाइंस लगाने में एक्सपर्ट माने जाते रहे हैं, लेकिन वे एक ठिकाने पर रुक नहीं पा रहे थे. माओवादियों के पास लैंडमाइंस बनाने की सारी सामग्री बूढ़ापहाड़ और छकरबंधा के इलाके में थी, जिस पर सुरक्षाबलों का कब्जा हो गया है.
2004 के बाद पांच दर्जन से अधिक हुए हैं शहीद: माओवादियों ने सबसे पहले 2004 में लातेहार के बालूमाथ में लैंड माइंस का इस्तेमाल किया था. इस हमले में चार जवान शहीद हुए थे. 2004 से झारखंड-बिहार सीमा और बूढ़ापहाड़ के इलाके में 200 से अधिक लैंड माइंस विस्फोट हुए हैं. माओवादी हमले में 70 से अधिक जवान भी शहीद हुए हैं. माओवादियों के लैंड माइंस से निबटने के लिए सुरक्षाबलों ने कई तरह के एसओपी भी जारी किए थे.
सुरक्षाबल माओवादियों के खिलाफ पैदल अभियान में कई किलोमीटर का सफर तय करते है और लैंड माइंस ने निपटने के लिए कई तकनीक का भी सहारा ले रहे हैं. बूढ़ापहाड़ झारखंड बिहार सीमावर्ती क्षेत्रों से सुरक्षाबल एक दशक में 13,650 से अधिक लैंडमाइंस बरामद कर चुके हैं. माओवादियों ने बदलते वक्त के साथ लैंड माइंस के तरीकों में भी बदलाव लाया था.