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रामायण काल से चली आ रही है पांवरिया लोक कला की परंपरा, पीढ़ियों से दूसरों की खुशियों में ढूंढ रहे अपनी खुशी - पलामू न्यूज

पलामू में पांवरिया समाज के लोग इस कला को संरक्षित कर दूसरों की खुशियों में अपनी खुशी ढूंढते नजर आते हैं. रामायण काल से ही इस कला का प्रचलन(history of Pawaria in Jharkhand) है. हालांकि आधुनिकता के इस दौर का प्रभाव इस समाज और कला पर भी पड़ा है.

history of Pawaria in Jharkhand
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Published : Dec 6, 2022, 9:48 AM IST

Updated : Dec 6, 2022, 10:37 AM IST

पलामूः ललना जिए दूल्हा दुल्हिन लाखों बारिश के बोल पर ग्रामीण इलाके में शादियों के दौरान गाते हुए कुछ लोग नजर आ जांएगे. गाने वाला कभी अकेला नहीं होता बल्कि उसके साथ तीन से चार लोग होते हैं. इन लोगों रामायण काल से इस कला को जिंदा रखा है. इस कला को संरक्षित करने वाले लोगों को पांवरिया कहा जाता(history of Pawaria in Jharkhand) है. आधुनिकता के दौर में पांवरिया इस लोक कला और संस्कृति को संरक्षित कर दूसरों की खुशियों में अपनी खुशियों को ढूंढते हैं.

पांवरिया का आना शुभः किसी के यहां बच्चे का जन्म या शादी समारोह हो पांवरिया वहां पंहुचते हैं और अपने गीत और कला के माध्यम से आशीर्वाद देते हैं. कहा जाता है कि पांवरिया भगवान राम के जन्म के दौरान राजा दशरथ के यहां गाने बजाने के लिए पहुंचे थे. पलामू मंगला काली मंदिर के मुख्य पुजारी पंडित रवि शास्त्री ने कहा कि शास्त्रों में पांवरिया का जिक्र है. राजा दशरथ के जब चार पुत्र हुए तो सभी को बुलाया गया था. इस दौरान पांवरियों को राजा दशरथ ने काफी उपहार दिए थे. पंडित रवि शास्त्री बताते हैं कि पांवरिया का आगमन बच्चे के लिए दीर्घायु माना जाता है और यह काफी शुभ होता है जिसका शास्त्रों में जिक्र है.

देखें स्पेशल रिपोर्ट
पांवरिया गीत लोक कला के धरोहरः इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ कुमार वीरेंद्र बताते हैं कि पांवरिया लोक कला के धरोहर हैं. वह अपने गीतों के माध्यम से समाज में एक तरह से संतुलन करते हैं. डॉ कुमार वीरेंद्र बताते हैं कि पहले देखा जाता था कि पांवरिया बच्चों के जन्म के दौरान पांवरिया गीतों को गाते थे लेकिन आज हर तरह की खुशी में वे शरीक होते हैं. इनके कपड़ो की पहनावट में काफी सादगी होती है. यह कभी अकेले गाते हुए नजर नहीं आते. इनके गीतों में आल्हा उदल, तुलसीदास के भी अंश देखने को मिलते हैं. सोहर गाने के दौरान यह भक्ति निर्गुण को भी गाते हैं, कभी-कभी इनके गीतों में प्रवासियों का दर्द भी देखने को मिलता है. पांवरिया लोक संस्कृति से जुड़ी हुई कला है. देश के कई हिस्सों में हैं पांवरियाः पांवरिया अपनी कला को पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाते जाते हैं. पांवरिया पलामू के साथ-साथ झारखंड, बिहार, यूपी समेत कई इलाकों में पाए जाते हैं. अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग इनकी मान्यता है. पलामू के पाटन के इलाके में 8 से 10 परिवार पांवरिया के हैं. जिनका संबंध बिहार के औरंगाबाद और यूपी के इलाकों से है. पांवरिया का तरीका किन्नर और अन्य समुदाय से बिल्कुल अलग है. पांवरिया पूरी तरह से लोक कला पर आधारित है और इनकी एक अलग संस्कृति है. कई घरों में लोग इनका खुशी से स्वागत करते हैं. इनकी एक धार्मिक मान्यता भी रही है. बिगन पांवरिया बताते हैं कि वे कई पीढ़ियों से इस कला को संजोए हुए हैं. उन्होंने बताया कि समय के साथ धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहे हैं. आज समुदाय के कई लोग पढ़ लिख कर आगे बढ़ रहे हैं. उन्होंने बताया कि अपनी कला के माध्यम से परिवार को पालते हैं. खुशी में लोग उन्हें कुछ उपहार देते हैं, इसी उपहार के माध्यम से वे अपनी जीविका उपार्जन करते हैं. उन्होंने बताया कि बदलते समय के साथ अब आगे की पीढ़ी यह नहीं करना चाहती है.

पलामूः ललना जिए दूल्हा दुल्हिन लाखों बारिश के बोल पर ग्रामीण इलाके में शादियों के दौरान गाते हुए कुछ लोग नजर आ जांएगे. गाने वाला कभी अकेला नहीं होता बल्कि उसके साथ तीन से चार लोग होते हैं. इन लोगों रामायण काल से इस कला को जिंदा रखा है. इस कला को संरक्षित करने वाले लोगों को पांवरिया कहा जाता(history of Pawaria in Jharkhand) है. आधुनिकता के दौर में पांवरिया इस लोक कला और संस्कृति को संरक्षित कर दूसरों की खुशियों में अपनी खुशियों को ढूंढते हैं.

पांवरिया का आना शुभः किसी के यहां बच्चे का जन्म या शादी समारोह हो पांवरिया वहां पंहुचते हैं और अपने गीत और कला के माध्यम से आशीर्वाद देते हैं. कहा जाता है कि पांवरिया भगवान राम के जन्म के दौरान राजा दशरथ के यहां गाने बजाने के लिए पहुंचे थे. पलामू मंगला काली मंदिर के मुख्य पुजारी पंडित रवि शास्त्री ने कहा कि शास्त्रों में पांवरिया का जिक्र है. राजा दशरथ के जब चार पुत्र हुए तो सभी को बुलाया गया था. इस दौरान पांवरियों को राजा दशरथ ने काफी उपहार दिए थे. पंडित रवि शास्त्री बताते हैं कि पांवरिया का आगमन बच्चे के लिए दीर्घायु माना जाता है और यह काफी शुभ होता है जिसका शास्त्रों में जिक्र है.

देखें स्पेशल रिपोर्ट
पांवरिया गीत लोक कला के धरोहरः इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ कुमार वीरेंद्र बताते हैं कि पांवरिया लोक कला के धरोहर हैं. वह अपने गीतों के माध्यम से समाज में एक तरह से संतुलन करते हैं. डॉ कुमार वीरेंद्र बताते हैं कि पहले देखा जाता था कि पांवरिया बच्चों के जन्म के दौरान पांवरिया गीतों को गाते थे लेकिन आज हर तरह की खुशी में वे शरीक होते हैं. इनके कपड़ो की पहनावट में काफी सादगी होती है. यह कभी अकेले गाते हुए नजर नहीं आते. इनके गीतों में आल्हा उदल, तुलसीदास के भी अंश देखने को मिलते हैं. सोहर गाने के दौरान यह भक्ति निर्गुण को भी गाते हैं, कभी-कभी इनके गीतों में प्रवासियों का दर्द भी देखने को मिलता है. पांवरिया लोक संस्कृति से जुड़ी हुई कला है. देश के कई हिस्सों में हैं पांवरियाः पांवरिया अपनी कला को पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाते जाते हैं. पांवरिया पलामू के साथ-साथ झारखंड, बिहार, यूपी समेत कई इलाकों में पाए जाते हैं. अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग इनकी मान्यता है. पलामू के पाटन के इलाके में 8 से 10 परिवार पांवरिया के हैं. जिनका संबंध बिहार के औरंगाबाद और यूपी के इलाकों से है. पांवरिया का तरीका किन्नर और अन्य समुदाय से बिल्कुल अलग है. पांवरिया पूरी तरह से लोक कला पर आधारित है और इनकी एक अलग संस्कृति है. कई घरों में लोग इनका खुशी से स्वागत करते हैं. इनकी एक धार्मिक मान्यता भी रही है. बिगन पांवरिया बताते हैं कि वे कई पीढ़ियों से इस कला को संजोए हुए हैं. उन्होंने बताया कि समय के साथ धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहे हैं. आज समुदाय के कई लोग पढ़ लिख कर आगे बढ़ रहे हैं. उन्होंने बताया कि अपनी कला के माध्यम से परिवार को पालते हैं. खुशी में लोग उन्हें कुछ उपहार देते हैं, इसी उपहार के माध्यम से वे अपनी जीविका उपार्जन करते हैं. उन्होंने बताया कि बदलते समय के साथ अब आगे की पीढ़ी यह नहीं करना चाहती है.
Last Updated : Dec 6, 2022, 10:37 AM IST
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