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ईटीवी भारत की खास रिपोर्टः जानिए, झारखंड के जंगल का नॉर्थ ईस्ट और बर्मा से कनेक्शन

अंग्रेजी शासन काल से पलामू में सागवान के पेड़ लगाने का काम शुरू हुआ था. एक अनुमान के मुताबिक पलामू रेंज के इलाके में सागवान के छह लाख से भी अधिक पेड़ मौजूद हैं. पलामू में सागवान के जंगल बढ़े हैं. लेकिन यहां वन्य जीव घटने लगे हैं. लेकिन क्या आपको पता है कि झारखंड के जंगल का नॉर्थ ईस्ट और बर्मा से कनेक्शन है. ईटीवी भारत की इस खास रिपोर्ट से जानिए, क्या है वो कनेक्शन.

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झारखंड के जंगल
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Published : May 30, 2022, 10:26 AM IST

पलामूः झारखंड के जंगलों का नॉर्थ ईस्ट और बर्मा से कनेक्शन है. राज्य के कई इलाकों में सागवान के पेड़ों से पटे कई जंगल भरे पड़े हैं. पलामू टाइगर रिजर्व समेत कई इलाकों में सागवान के पेड़ के बड़े जंगल मौजूद है. सागवान के पेड़ का इस्तेमाल इमारती लकड़ियों के लिए होता है. झारखंड में पाए जाने वाले सागवान की बड़ी ही रोचक कहानी है.

किसी जमाने में पलामू के इलाके में बांस के बड़े बड़े जंगल हुआ करते थे 70 के दशक तक इसका व्यापार फलता-फूलता रहा. व्यापार के कारण बांस के जंगल कम होते गए. इन जंगलों को भरने के लिए अंग्रेजों ने सागवान को लगाने का काम शुरू हुआ. पलामू में पाए जाने वाला सागवान बर्मा और नॉर्थ-ईस्ट के राज्यों से लाया गया था. पलामू में अंग्रेजों के शासन काल से ही सागवान के पेड़ लगाने का काम शुरू हुआ था. एक अनुमान के मुताबिक पलामू रेंज के इलाके में सागवान के छह लाख से भी अधिक पेड़ मौजूद हैं.

देखें स्पेशल रिपोर्ट

हाथियों पर पड़ा प्रभावः झारखंड के इलाके में जैसे-जैसे सागवान के पेड़ बढ़ते गए वैसे-वैसे वन्य जीवों की संख्या कम होती गयी. प्रोफेसर डीएस श्रीवास्तव बताते हैं कि सागवान के पत्तों को कोई भी वन्य जीव नहीं खाता है. हाथी को बांस के पेड़ काफी पसंद है. जिन इलाकों में सागवान के पेड़ बड़े हुए, उन इलाकों में हाथियों की संख्या कम होती गयी. जिसके बाद हाथियों ने इलाके को ही बदल दिया.

प्रोफेसर बताते हैं कि सागवान के पेड़ के नीचे कोई भी दूसरा पौधा फलता-फूलता नहीं है. इसके पत्ते काफी कड़वे होते हैं, जिस कारण वन्य जीव इसे खाते ही नहीं है. अंग्रेजों ने सागवान के पेड़ से जंगलों को भरने के लिए लगाया गया था. क्योंकि अंग्रेजों को व्यवसायिक इस्तेमाल वाले पेड़ चाहिए थे, जिस कारण इनकी संख्या इन इलाकों में लगातार बढ़ती गयी. वर्तमान में पलामू में इनकी संख्या 6 लाख के करीब है.


सागवान वन माफिया की पहली पसंदः पलामू के इलाके में सागवान के जंगल लगातार फैलते जा रहे हैं. कभी यह इलाका सखुआ, पलाश और महुआ के पेड़ के चर्चित हुआ करता था, अब यह इलाका सागवान के पेड़ के लिए चर्चित हो रहा है. सागवान बाजार में काफी ऊंची कीमत पर बिकती है. इसका इस्तेमाल इमारती लकड़ी के रूप में होता है, जिस कारण कई इलाकों में इसके जंगल भी काटे जा रहे हैं. पर्यावरणविद कौशल किशोर जायसवाल बताते हैं कि पेड़ कटना बेहद गंभीर है, मामले में हर स्तर पर कार्रवाई करने की जरूरत है. वो बताते हैं कि सागवान एक इमारती पेड़ है, जिसका इस्तेमाल व्यापार में अधिक हो रहा है. सागवान का पेड़ काफी धीरे-धीरे बढ़ता है लेकिन यह काफी मजबूत होती. एक पेड़ को तैयार होने में 16 से 20 वर्ष लग जाता है.

सागवान- एक संक्षिप्त परिचयः सागवान (सगौन) या टीकवुड द्विबीजपत्री पौधा है. यह चिरहरित यानि वर्ष भर हरा-भरा रहने वाला पौधा है. सागवान का पेड़ प्रायः 80 से 100 फुट लंबा होता है. इसका पेड़ काष्ठीय होता है. इसकी लकड़ी हल्की, मजबूत और काफी समय तक चलने वाली होती है. इसके पत्ते काफी बड़े होते हैं और फूल उभयलिंगी और संपूर्ण होते हैं. सागवान का वानस्पतिक नाम टेक्टोना ग्रैंडिस (Tectona grandis) यह कीमती इमारती लकड़ी है.

भारत में लगभग दो हजार वर्षों से जाना जाता है और इसका व्यापक रूप से उपयोग किया जा रहा है. यह वर्बिनेसी परिवार का एक बड़ा पर्णपाती वृक्ष है. यह शाखा और शिखर पर मुकुट ऐसा है जो चारों ओर फैला हुआ है. यह भारत, बर्मा और थाईलैंड के मूल पेड़ हैं लेकिन यह फिलीपीन द्वीप समूह, जावा और मलाया प्रायद्वीप में भी पाया जाता है. भारत में यह अरावली पर्वत श्रृंखला में पश्चिम में झांसी में पाया जाता है. इसे असम और पंजाब में सफलतापूर्वक उगाया गया है. यह गर्म स्थानों में अच्छी तरह से बढ़ता है. इसके लिए 3000 फीट की ऊंचाई वाले जंगल ज्यादा उपयुक्त होते हैं.

यह सभी प्रकार की मिट्टी में उग सकता है लेकिन पानी की निकासी या उप-भूमि को सूखा रखने के लिए आवश्यक है. इसके पत्ते गर्मियों में झड़ते हैं. जनवरी में गर्म स्थानों पर पत्ते गिरने लगते हैं लेकिन ज्यादातर जगहों पर मार्च तक पत्ते हरे रहते हैं. इसकी पत्तियां एक से दो फुट लंबी और 6 से 12 इंच चौड़ी होती हैं. इसके लच्छेदार फूल कुछ नीले रंग के साथ सफेद या सफेद होते हैं. इसके बीज गोलाकार होते हैं और पकने पर गिर जाते हैं, बीज में तेल होता है. इसका बीज बहुत धीरे-धीरे अंकुरित होता है.

सागवान का पेड़ आमतौर पर 100 से 150 फीट ऊंचे होता है और मोटाई 3 से 8 फीट व्यास का होता है. छाल आधा इंच मोटी, भूरे या भूरे रंग की होती है. इनका सैपवुड सफेद होता है और भीतरी लकड़ी हरे रंग की होती है. भीतरी लकड़ी की गंध लंबे समय तक रहती है. सागवान की लकड़ी बहुत कम सिकुड़ती है और बहुत मजबूत होती है. यह जल्दी पॉलिश हो जाता है जो इसे बहुत आकर्षक बनाता है. यह कई सौ साल पुरानी इमारतों में जैसा पाया गया है. सागवान की लकड़ी दो हजार साल बाद भी अच्छी स्थिति में पाई गयी है. सागवान की भीतरी लकड़ी पर दीमक नहीं लगता.

पलामूः झारखंड के जंगलों का नॉर्थ ईस्ट और बर्मा से कनेक्शन है. राज्य के कई इलाकों में सागवान के पेड़ों से पटे कई जंगल भरे पड़े हैं. पलामू टाइगर रिजर्व समेत कई इलाकों में सागवान के पेड़ के बड़े जंगल मौजूद है. सागवान के पेड़ का इस्तेमाल इमारती लकड़ियों के लिए होता है. झारखंड में पाए जाने वाले सागवान की बड़ी ही रोचक कहानी है.

किसी जमाने में पलामू के इलाके में बांस के बड़े बड़े जंगल हुआ करते थे 70 के दशक तक इसका व्यापार फलता-फूलता रहा. व्यापार के कारण बांस के जंगल कम होते गए. इन जंगलों को भरने के लिए अंग्रेजों ने सागवान को लगाने का काम शुरू हुआ. पलामू में पाए जाने वाला सागवान बर्मा और नॉर्थ-ईस्ट के राज्यों से लाया गया था. पलामू में अंग्रेजों के शासन काल से ही सागवान के पेड़ लगाने का काम शुरू हुआ था. एक अनुमान के मुताबिक पलामू रेंज के इलाके में सागवान के छह लाख से भी अधिक पेड़ मौजूद हैं.

देखें स्पेशल रिपोर्ट

हाथियों पर पड़ा प्रभावः झारखंड के इलाके में जैसे-जैसे सागवान के पेड़ बढ़ते गए वैसे-वैसे वन्य जीवों की संख्या कम होती गयी. प्रोफेसर डीएस श्रीवास्तव बताते हैं कि सागवान के पत्तों को कोई भी वन्य जीव नहीं खाता है. हाथी को बांस के पेड़ काफी पसंद है. जिन इलाकों में सागवान के पेड़ बड़े हुए, उन इलाकों में हाथियों की संख्या कम होती गयी. जिसके बाद हाथियों ने इलाके को ही बदल दिया.

प्रोफेसर बताते हैं कि सागवान के पेड़ के नीचे कोई भी दूसरा पौधा फलता-फूलता नहीं है. इसके पत्ते काफी कड़वे होते हैं, जिस कारण वन्य जीव इसे खाते ही नहीं है. अंग्रेजों ने सागवान के पेड़ से जंगलों को भरने के लिए लगाया गया था. क्योंकि अंग्रेजों को व्यवसायिक इस्तेमाल वाले पेड़ चाहिए थे, जिस कारण इनकी संख्या इन इलाकों में लगातार बढ़ती गयी. वर्तमान में पलामू में इनकी संख्या 6 लाख के करीब है.


सागवान वन माफिया की पहली पसंदः पलामू के इलाके में सागवान के जंगल लगातार फैलते जा रहे हैं. कभी यह इलाका सखुआ, पलाश और महुआ के पेड़ के चर्चित हुआ करता था, अब यह इलाका सागवान के पेड़ के लिए चर्चित हो रहा है. सागवान बाजार में काफी ऊंची कीमत पर बिकती है. इसका इस्तेमाल इमारती लकड़ी के रूप में होता है, जिस कारण कई इलाकों में इसके जंगल भी काटे जा रहे हैं. पर्यावरणविद कौशल किशोर जायसवाल बताते हैं कि पेड़ कटना बेहद गंभीर है, मामले में हर स्तर पर कार्रवाई करने की जरूरत है. वो बताते हैं कि सागवान एक इमारती पेड़ है, जिसका इस्तेमाल व्यापार में अधिक हो रहा है. सागवान का पेड़ काफी धीरे-धीरे बढ़ता है लेकिन यह काफी मजबूत होती. एक पेड़ को तैयार होने में 16 से 20 वर्ष लग जाता है.

सागवान- एक संक्षिप्त परिचयः सागवान (सगौन) या टीकवुड द्विबीजपत्री पौधा है. यह चिरहरित यानि वर्ष भर हरा-भरा रहने वाला पौधा है. सागवान का पेड़ प्रायः 80 से 100 फुट लंबा होता है. इसका पेड़ काष्ठीय होता है. इसकी लकड़ी हल्की, मजबूत और काफी समय तक चलने वाली होती है. इसके पत्ते काफी बड़े होते हैं और फूल उभयलिंगी और संपूर्ण होते हैं. सागवान का वानस्पतिक नाम टेक्टोना ग्रैंडिस (Tectona grandis) यह कीमती इमारती लकड़ी है.

भारत में लगभग दो हजार वर्षों से जाना जाता है और इसका व्यापक रूप से उपयोग किया जा रहा है. यह वर्बिनेसी परिवार का एक बड़ा पर्णपाती वृक्ष है. यह शाखा और शिखर पर मुकुट ऐसा है जो चारों ओर फैला हुआ है. यह भारत, बर्मा और थाईलैंड के मूल पेड़ हैं लेकिन यह फिलीपीन द्वीप समूह, जावा और मलाया प्रायद्वीप में भी पाया जाता है. भारत में यह अरावली पर्वत श्रृंखला में पश्चिम में झांसी में पाया जाता है. इसे असम और पंजाब में सफलतापूर्वक उगाया गया है. यह गर्म स्थानों में अच्छी तरह से बढ़ता है. इसके लिए 3000 फीट की ऊंचाई वाले जंगल ज्यादा उपयुक्त होते हैं.

यह सभी प्रकार की मिट्टी में उग सकता है लेकिन पानी की निकासी या उप-भूमि को सूखा रखने के लिए आवश्यक है. इसके पत्ते गर्मियों में झड़ते हैं. जनवरी में गर्म स्थानों पर पत्ते गिरने लगते हैं लेकिन ज्यादातर जगहों पर मार्च तक पत्ते हरे रहते हैं. इसकी पत्तियां एक से दो फुट लंबी और 6 से 12 इंच चौड़ी होती हैं. इसके लच्छेदार फूल कुछ नीले रंग के साथ सफेद या सफेद होते हैं. इसके बीज गोलाकार होते हैं और पकने पर गिर जाते हैं, बीज में तेल होता है. इसका बीज बहुत धीरे-धीरे अंकुरित होता है.

सागवान का पेड़ आमतौर पर 100 से 150 फीट ऊंचे होता है और मोटाई 3 से 8 फीट व्यास का होता है. छाल आधा इंच मोटी, भूरे या भूरे रंग की होती है. इनका सैपवुड सफेद होता है और भीतरी लकड़ी हरे रंग की होती है. भीतरी लकड़ी की गंध लंबे समय तक रहती है. सागवान की लकड़ी बहुत कम सिकुड़ती है और बहुत मजबूत होती है. यह जल्दी पॉलिश हो जाता है जो इसे बहुत आकर्षक बनाता है. यह कई सौ साल पुरानी इमारतों में जैसा पाया गया है. सागवान की लकड़ी दो हजार साल बाद भी अच्छी स्थिति में पाई गयी है. सागवान की भीतरी लकड़ी पर दीमक नहीं लगता.

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