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गुमनामी के अंधेरे में लातेहार का यह गांव, अंग्रेजी शासन काल में स्वतंत्रता सेनानियों ने लिया था शरण

स्वतंत्रता सेनानियों को मुसीबत के समय सहारा देने वाला लातेहार का कोने गांव आज खुद बेसहारा बना हुआ है. देश की आजादी में अपने प्राण न्योछावर करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के वंशज आज गुमनामी के अंधेरे में जी रहे हैं. यहां शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य तक की हालत दयनीय है, लेकिन आज तक किसी ने इस ओर ध्यान तक नहीं दिया.

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Published : Feb 7, 2021, 4:37 PM IST

Updated : Feb 7, 2021, 9:25 PM IST

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गुमनामी के अंधेरे में डूब रहा लातेहार का यह गांव

लातेहार: जिन अमर शहीद नीलांबर पीतांबर ने अपने अदम्य पराक्रम से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे. उनके वंशजों को मुसीबत के समय में शरण देने वाला लातेहार का कोने गांव आज भी विकास के लिए तरस रहा है. अंग्रेजों का आतंक आजादी के बाद तो समाप्त हो गया, ना तो शहीद के वंशजों के जीवन स्तर में बदलाव आ पाया और ना ही उन्हें शरण देने वाले कोने गांव की सूरत ही बदल पाई.

देखें स्पेशल खबर

अंग्रेजी अत्याचार से डरकर लोग पहुंचे थे कोने गांव

शहीद नीलांबर पीतांबर 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा थे. इस स्वतंत्रता संग्राम में दोनों वीरों ने पठारी इलाकों में अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था. दोनों वीरों के नेतृत्व में चल रहे अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे हो गए थे. ऐसे में अंग्रेजों ने इन दोनों को पकड़ने और इनकी हत्या करने के लिए इनके परिवार वालों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया. अंग्रेजों के अत्याचार से उनके परिजन इधर-उधर भाग कर छिपने लगे. वह दौर ऐसा था जब अंग्रेजी अत्याचार से डरकर लोग किसी को अपने गांव में शरण देने में भी डरने लगे थे.

ये भी पढ़ें-दशम फॉल का दीदार करने पटना हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पहुंचे रांची, यादगार लम्हों को कैमरे में सहेजा

कोने गांव पहुंची थी शहीद पीतांबर की गर्भवती पत्नी

अंग्रेजों का अत्याचार जब काफी अधिक बढ़ गया था तो शहीद पीतांबर की गर्भवती पत्नी छिपते-छिपाते कोने गांव पहुंच गई थी. उस समय यहां के ग्रामीणों ने बहादुरी का परिचय देते हुए अंग्रेजों से डरे बिना शहीद पीतांबर की पत्नी को अपने गांव में शरण दिया. ग्रामीणों ने उन्हें पूरी सुरक्षा भी प्रदान की थी. वर्षों तक अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के बाद देश आजाद हुआ. आजादी के बाद देश में विकास की गति भी बढ़ी, लेकिन शहीद के वंशजों को शरण देने वाले कोने गांव तक विकास की किरण नहीं पहुंच पाई.

2004 में तत्कालीन डीसी ने खोजा था शहीदों के वंशजों को

लगभग 500 की आबादी वाले इस गांव में रहने वाले अधिकांश परिवार आदिवासी समुदाय के हैं. ऐसे में विकास नहीं होने के कारण यह इलाका पूरी तरह उग्रवाद की चपेट में आ गया, जिससे विकास और बाधित हो गया. गांव के बच्चे शिक्षा से वंचित हो गए और लोग रोजगार से वंचित हो गए. इन सभी बाधाओं के बीच शहीद नीलांबर पीतांबर के वंशज भी गुमनामी के अंधेरे में गुम हो कर रह गए थे. गुमनामी के अंधेरे में जीवन बिता रहे शहीद के वंशजों को साल 2004 में तत्कालीन उपायुक्त कमल किशोर सोन ने गुमनामी के अंधेरे से बाहर निकाला था. उन्होंने शहीद के वंशजों को सम्मान दिलाने का पूरा प्रयास किया. उनके कार्यकाल में कोने गांव में विकास की रूपरेखा भी तैयार होने लगी थी, लेकिन उनके जाते ही यह गांव फिर से सुविधा विहीन हो गया.

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मूलभूत सुविधाओं का भी है अभाव

कोने गांव में मूलभूत सुविधाओं का अभाव है. कहने के लिए तो गांव में पक्की सड़क बनाई गई, लेकिन 1 साल में ही वह जर्जर हो गई. गांव में शिक्षा, पेयजल समेत अन्य समस्या भी है. शहीद के वंशजों ने कहा कि अंग्रेजों से संघर्ष कर गांव के ग्रामीणों ने उन्हें शरण दिया था, लेकिन आज तक ना तो उनके परिवार का विकास हुआ और ना ही गांव का. शहीद नीलांबर के प्रपौत्र रामनंदन सिंह ने बताया कि सरकार या प्रशासन को शहीद के वंशजों की कोई चिंता नहीं है. कोई उन्हें पूछता तक नहीं है.

बिना शिक्षक के स्कूल

कोने गांव के दुर्भाग्य का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस गांव में स्थित मिडिल और प्राइमरी स्कूल में एक भी शिक्षक नहीं है. ऐसे में हाई स्कूल के शिक्षक किसी प्रकार सभी बच्चों की पढ़ाई करवाते हैं. डीसी अबु इमरान ने कहा कि कोने गांव में शहीद के वंशज रहते हैं. इस गांव के विकास के लिए प्रशासन कटिबद्ध है. स्कूल में शिक्षक की कमी की भी जानकारी हुई है. जल्द ही पूरे मामले में सार्थक पहल की जाएगी.

लातेहार: जिन अमर शहीद नीलांबर पीतांबर ने अपने अदम्य पराक्रम से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे. उनके वंशजों को मुसीबत के समय में शरण देने वाला लातेहार का कोने गांव आज भी विकास के लिए तरस रहा है. अंग्रेजों का आतंक आजादी के बाद तो समाप्त हो गया, ना तो शहीद के वंशजों के जीवन स्तर में बदलाव आ पाया और ना ही उन्हें शरण देने वाले कोने गांव की सूरत ही बदल पाई.

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अंग्रेजी अत्याचार से डरकर लोग पहुंचे थे कोने गांव

शहीद नीलांबर पीतांबर 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा थे. इस स्वतंत्रता संग्राम में दोनों वीरों ने पठारी इलाकों में अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था. दोनों वीरों के नेतृत्व में चल रहे अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे हो गए थे. ऐसे में अंग्रेजों ने इन दोनों को पकड़ने और इनकी हत्या करने के लिए इनके परिवार वालों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया. अंग्रेजों के अत्याचार से उनके परिजन इधर-उधर भाग कर छिपने लगे. वह दौर ऐसा था जब अंग्रेजी अत्याचार से डरकर लोग किसी को अपने गांव में शरण देने में भी डरने लगे थे.

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कोने गांव पहुंची थी शहीद पीतांबर की गर्भवती पत्नी

अंग्रेजों का अत्याचार जब काफी अधिक बढ़ गया था तो शहीद पीतांबर की गर्भवती पत्नी छिपते-छिपाते कोने गांव पहुंच गई थी. उस समय यहां के ग्रामीणों ने बहादुरी का परिचय देते हुए अंग्रेजों से डरे बिना शहीद पीतांबर की पत्नी को अपने गांव में शरण दिया. ग्रामीणों ने उन्हें पूरी सुरक्षा भी प्रदान की थी. वर्षों तक अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के बाद देश आजाद हुआ. आजादी के बाद देश में विकास की गति भी बढ़ी, लेकिन शहीद के वंशजों को शरण देने वाले कोने गांव तक विकास की किरण नहीं पहुंच पाई.

2004 में तत्कालीन डीसी ने खोजा था शहीदों के वंशजों को

लगभग 500 की आबादी वाले इस गांव में रहने वाले अधिकांश परिवार आदिवासी समुदाय के हैं. ऐसे में विकास नहीं होने के कारण यह इलाका पूरी तरह उग्रवाद की चपेट में आ गया, जिससे विकास और बाधित हो गया. गांव के बच्चे शिक्षा से वंचित हो गए और लोग रोजगार से वंचित हो गए. इन सभी बाधाओं के बीच शहीद नीलांबर पीतांबर के वंशज भी गुमनामी के अंधेरे में गुम हो कर रह गए थे. गुमनामी के अंधेरे में जीवन बिता रहे शहीद के वंशजों को साल 2004 में तत्कालीन उपायुक्त कमल किशोर सोन ने गुमनामी के अंधेरे से बाहर निकाला था. उन्होंने शहीद के वंशजों को सम्मान दिलाने का पूरा प्रयास किया. उनके कार्यकाल में कोने गांव में विकास की रूपरेखा भी तैयार होने लगी थी, लेकिन उनके जाते ही यह गांव फिर से सुविधा विहीन हो गया.

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मूलभूत सुविधाओं का भी है अभाव

कोने गांव में मूलभूत सुविधाओं का अभाव है. कहने के लिए तो गांव में पक्की सड़क बनाई गई, लेकिन 1 साल में ही वह जर्जर हो गई. गांव में शिक्षा, पेयजल समेत अन्य समस्या भी है. शहीद के वंशजों ने कहा कि अंग्रेजों से संघर्ष कर गांव के ग्रामीणों ने उन्हें शरण दिया था, लेकिन आज तक ना तो उनके परिवार का विकास हुआ और ना ही गांव का. शहीद नीलांबर के प्रपौत्र रामनंदन सिंह ने बताया कि सरकार या प्रशासन को शहीद के वंशजों की कोई चिंता नहीं है. कोई उन्हें पूछता तक नहीं है.

बिना शिक्षक के स्कूल

कोने गांव के दुर्भाग्य का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस गांव में स्थित मिडिल और प्राइमरी स्कूल में एक भी शिक्षक नहीं है. ऐसे में हाई स्कूल के शिक्षक किसी प्रकार सभी बच्चों की पढ़ाई करवाते हैं. डीसी अबु इमरान ने कहा कि कोने गांव में शहीद के वंशज रहते हैं. इस गांव के विकास के लिए प्रशासन कटिबद्ध है. स्कूल में शिक्षक की कमी की भी जानकारी हुई है. जल्द ही पूरे मामले में सार्थक पहल की जाएगी.

Last Updated : Feb 7, 2021, 9:25 PM IST
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