लातेहारः किसान दिन भर खेत में मेहनत करने के बाद एक फसल की कमाई हासिल कर पाते हैं लेकिन झारखंड में प्रकृति ने एक पेड़ के तौर पर ऐसा वरदान दिया है, जिससे आदिवासियों को आसानी से दो फसलों की कमाई मिल सकती है. महुआ के पेड़ से मिले फल के अलावा बीज से भी कमाई होती है. स्थानीय बोली में इसे डोरी कहते है. इसका इस्तेमाल तेल बनाने में किया जाता है, जिसकी बहुत डिमांड है.
लातेहार में महुआ के पेड़ बड़ी संख्या में पाए जाते हैं. आदिवासियों के लिए ये किसी कल्पवृक्ष से कम नहीं है. इसके फूल, फल, बीज और लकड़ी सभी चीजें काम में आती हैं. मार्च और अप्रैल महीने में महुआ के फूल झरते हैं. इसका इस्तेमाल शराब के अलावा कई पकवान और लड्डू बनाने में भी होता है जो स्वादिष्ट होने के साथ सेहतमंद भी है. स्थानीय लोग इसे गरीबों का किशमिश कहते हैं. महुआ के फल को मोइया या डोरी कहते हैं. डोरी से तेल निकाला जाता है और बचे हुए अवशिष्ट को जानवरों को खिलाने के साथ साथ सांप भगाने के काम में भी लाया जाता है.
जून माह के दूसरे सप्ताह से ग्रामीण डोरी चुनने का काम शुरू कर देते हैं और करीब 15 दिन के अंदर डोरी से तेल निकालने का काम भी किया जाता है. ग्रामीणों ने बताया कि डोरी के तेल से सभी प्रकार के पकवान बनाए जाते हैं. इसके अलावे बुखार लगने पर इसका तेल शरीर में लगाने से बुखार खत्म हो जाता है.
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दवा के तौर पर इस्तेमाल
आयुर्वेद में महुआ को वातनाशक और पाष्टिक बताया गया है. इसका इस्तेमाल पेट की बीमारियों में और दर्द निवारक के तौर पर किया जाता है. सदर अस्पताल के डॉक्टर हरेंद्र चंद्र ने बताया कि डोरी काफी उपयोगी है और इसके इस्तेमाल से कोई हानि नहीं होती.
महुआ का पेड़ लगाने से लेकर फूल और फल प्राप्त करने तक किसी मेहनत की जरूरत नहीं पड़ती. ये ऐसा पेड़ है जिससे फूल और फल के रूप में दो बार फसल मिलती है. आदिवासियों को बिना पूंजी लगाए महुआ के जरिए कई फायदे मिलते हैं. यही वजह है कि महुआ आदिवासी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है.