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विश्व आदिवासी दिवसः अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं कोल आदिवासी

कोल आदिवासी मुंडा समूह के एक अत्यंत प्राचीन आस्ट्रिक से संबंधित हैं. सरकारी उदासीनता के कारण कोल आदिवासी पिछड़ेपन का शिकार होते जा रहे हैं. अब तो उनके वजूद पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं.

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Published : Aug 5, 2019, 10:48 PM IST

Updated : Aug 6, 2019, 1:23 PM IST

जामताड़ा: कोल आदिवासी अपना वजूद खोते नजर आ रहे हैं. राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टिकोण से आज भी यह समाज पिछड़ा हुआ है. इसे न तो पहचान ही मिल पायी और न ही इन्हें आदिम जनजाति का दर्जा ही मिल पाया है.

कोल आदिवासिओं को आदिम जनजाति के रूप में जाना जाता है. कोल मुंडा समूह के एक अत्यंत प्राचीन आस्ट्रिक से संबंधित हैं. जो मूल रूप से झारखंड समेत नौ राज्यों बिहार, यूपी, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं. कोल जाति की उत्पत्ति इसकी सांस्कृतिक रहन-सहन बिल्कुल आदिवासी संथालों से मिलता-जुलता है.

देखिए स्पेशल स्टोरी

संथाल से कोल आदिवासियों का रिश्ता
कोल आदिवासियों की उत्पत्ति कहां कैसे हुई यह तो सही सही कह पाना कठिन है. जानकारों की माने तो संथाल आदिवासी के साथ ही कोल आदिवासी की उत्पत्ति हुई है. कोल आदिवासियों का रहन-सहन और उसकी संस्कृति बिल्कुल संथाल आदिवासियों जैसी ही है. वे देवी- देवताओं को भी पूजते हैं और प्रकृति से जुड़ा त्योहार भी मनाते हैं. कर्मा और काली पूजा प्रमुख त्योहार हैं. सिंग-बोंगा इनके प्रमुख देवता हैं. ये ज्यादातर मिट्टी के मकानों में जंगल और पहाड़ों पर अधिकतर खुले स्थान पर रहना पसंद करते हैं.

ये भी पढ़ें- आखिर झारखंड में कांग्रेस क्यों हुई 'बेपटरी', कभी दी जाती थी पार्टी की मजबूती की मिसाल

खेती-मजदूरी से रोजी-रोटी
इनका रोजी-रोटी और कमाने खाने का मुख्य जरिया खेती और मजदूरी करना होता है. इनमें शिक्षा की भी काफी कमी है. जिसके कारण ये आगे नहीं बढ़ पाते हैं. राजनीतिक रूप से भी ये समाज पिछड़ा हुआ है. इस कारण इनकी राजनीतिक पार्टियों में पहचान नहीं बन पायी है.

साहित्यकार ने बताई विशेषता
कोल आदिवासियों का कहना है कि उन्हें देखने वाला कोई नहीं है. इन्हें संथाल जैसी कोई सुविधा भी नहीं मिल पाती है. जिस कारण वे अपने आप को उपेक्षित महसूस करते हैं. आदिवासी साहित्यकार राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित सुनील बास्की ने कोल की विशेषता के बारे में बताया कि कोल समाज आदिवासी समाज का ही एक अंग है. इनकी संस्कृति आदिवासी संस्कृति के साथ मिलती है लेकिन यह आदिम जनजाति है. बता दें कि ये आदिम जनजाति झारखंड समेत कुल 9 राज्यों में पाये जाते हैं. जिनका जन्म से लेकर मृत्यु तक सारे कर्मकांड प्रकृति से जुड़ा हुआ है.

जामताड़ा: कोल आदिवासी अपना वजूद खोते नजर आ रहे हैं. राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टिकोण से आज भी यह समाज पिछड़ा हुआ है. इसे न तो पहचान ही मिल पायी और न ही इन्हें आदिम जनजाति का दर्जा ही मिल पाया है.

कोल आदिवासिओं को आदिम जनजाति के रूप में जाना जाता है. कोल मुंडा समूह के एक अत्यंत प्राचीन आस्ट्रिक से संबंधित हैं. जो मूल रूप से झारखंड समेत नौ राज्यों बिहार, यूपी, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं. कोल जाति की उत्पत्ति इसकी सांस्कृतिक रहन-सहन बिल्कुल आदिवासी संथालों से मिलता-जुलता है.

देखिए स्पेशल स्टोरी

संथाल से कोल आदिवासियों का रिश्ता
कोल आदिवासियों की उत्पत्ति कहां कैसे हुई यह तो सही सही कह पाना कठिन है. जानकारों की माने तो संथाल आदिवासी के साथ ही कोल आदिवासी की उत्पत्ति हुई है. कोल आदिवासियों का रहन-सहन और उसकी संस्कृति बिल्कुल संथाल आदिवासियों जैसी ही है. वे देवी- देवताओं को भी पूजते हैं और प्रकृति से जुड़ा त्योहार भी मनाते हैं. कर्मा और काली पूजा प्रमुख त्योहार हैं. सिंग-बोंगा इनके प्रमुख देवता हैं. ये ज्यादातर मिट्टी के मकानों में जंगल और पहाड़ों पर अधिकतर खुले स्थान पर रहना पसंद करते हैं.

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खेती-मजदूरी से रोजी-रोटी
इनका रोजी-रोटी और कमाने खाने का मुख्य जरिया खेती और मजदूरी करना होता है. इनमें शिक्षा की भी काफी कमी है. जिसके कारण ये आगे नहीं बढ़ पाते हैं. राजनीतिक रूप से भी ये समाज पिछड़ा हुआ है. इस कारण इनकी राजनीतिक पार्टियों में पहचान नहीं बन पायी है.

साहित्यकार ने बताई विशेषता
कोल आदिवासियों का कहना है कि उन्हें देखने वाला कोई नहीं है. इन्हें संथाल जैसी कोई सुविधा भी नहीं मिल पाती है. जिस कारण वे अपने आप को उपेक्षित महसूस करते हैं. आदिवासी साहित्यकार राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित सुनील बास्की ने कोल की विशेषता के बारे में बताया कि कोल समाज आदिवासी समाज का ही एक अंग है. इनकी संस्कृति आदिवासी संस्कृति के साथ मिलती है लेकिन यह आदिम जनजाति है. बता दें कि ये आदिम जनजाति झारखंड समेत कुल 9 राज्यों में पाये जाते हैं. जिनका जन्म से लेकर मृत्यु तक सारे कर्मकांड प्रकृति से जुड़ा हुआ है.

Intro:जामताङा: आदिम जनजाति के रूप में जाना जाने वाला कोल समाज आज अपनी पहचान के लिए मोहताज है । राजनीतिक आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टिकोण से आज भी यह समाज पिछड़ा हुआ है। जिसकी पहचान नहीं मिल पायी है । नहीं इन्हें आदिम जनजाति का दर्जा ही अब तक मिल पाया है।


Body:कोल समाज आदिवासी समाज का ही एक अंग है ।जो आदिम जनजाति के रूप में जाना जाता है ।कोल मुंडा समूह का एक अत्यंत प्राचीन आस्ट्रिक से संबंधित है। जो मुलतःझारखंड समेत नौ राज्यों में लगभग बिहार यूपी पश्चिम बंगाल उड़ीसा छत्तीसगढ़ मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं ।कोल जाति की उत्पत्ति इसकी संस्कृति रहन-सहन बिल्कुल आदिवासी संथाल जैसा ही मिलता जुलता है।

कोल जाति की उत्पत्ति
जाति की उत्पत्ति कहां कैसे हुई यह तो सही सही कह पाना कठिन है ।पर जानकारों की माने तो संथाल आदिवासी के साथ ही कोल जाति की उत्पत्ति हुई है ।लेकिन कोल समाज के लोग रामायण आदिकाल महाभारत से भी जोड़ते हैं ।
कोल जाति का रहन सहन और उसकी संस्कृति बिल्कुल आदिवासी संथाल जैसा ही मिलता जुलता है। उनका रहन-सहन बिल्कुल संथाल आदिवासी संस्कृति जैसा ही है । देवी देवताओं को भी पूजते हैं और प्रकृति से जुड़ा हुआ त्योहार मनाते हैं ।कर्मा और काली पूजा त्यौहार मनाते हैं ।सिंग गोगा इनका प्रमुख देवता होते हैं। खासकर मिट्टी के मकान में जंगल और पहाड़ों पर अधिकतर खुले स्थान पर रहना पसंद करते हैं।

कोल जाति के लोग आर्थिक सामाजिक राजनीतिक एवं शैक्षणिक दृष्टिकोण से काफी पिछड़ा हुआ है। आर्थिक रूप से यह काफी कमजोर हैं। इनका रोजी-रोटी कमाने खाने का मुख्य धंधा खेती मजदूरी करना होता है। मजदूरी भी करते हैं। उसी से इनका परिवार का भरण पोषण चलता है ।रोजी रोजगार का घोर अभाव है ।शिक्षा की भी काफी कमी है। शिक्षा और रोजी रोजगार के के कमी के कारण ये आगे बढ़ नहीं पाते हैं । राजनीतिक रूप से समाज पिछड़ा हुआ है। आज तक राजनीतिक पार्टियों में इनकी पहचान नहीं बन पायी है ।

कोल समाज के लोगों का कहना है कि वे काफी पिछड़ा हैं। उनको देखने वाला कोई नहीं है ।वह मुख्य रूप से मजदूरी करते हैं। बाल बच्चा भी उनका मजदूरी करता है। मजदूरी करने के बाद ही उनका रोजी रोजगार चलता है। और संथाल जैसा कोई सुविधा नहीं मिल पाता है ।जबकि वह आदिम जनजाति में आते हैं। लेकिन वह भी उनका दर्जा नहीं मिल पाया है। अपने आप को उपेक्षित महसूस करते हैं।
कोल समाज के विषय को लेकर आदिवासी साहित्यकार राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित सुनील बास्की ने कोल समाज के संस्कृति रहन-सहन और उसकी विशेषता के बारे में चर्चा करते हुए जानकारी देते हुए बताया कि कोल समाज आदिवासी समाज का ही एक अंग है। उसकी संस्कृति आदिवासी संस्कृति के साथ ही मिलता जुलता है। लेकिन वह एक आदिम जनजाति है। जिसकी स्थिति काफी दयनीय है और पिछड़ा हुआ है। काफी कमजोर है। जानकार सामाजिक कार्यकर्ता संजय पहना ने कोल के बारे में जानकारी देते हुये बताया कि कोल आदिवासी समाज का ही एक अंग है जो कि एक आदिम जनजाति है और झारखंड समेत कुल 9 राज्यों में कोल समाज पाया जाता है ।जिसका जन्म से लेकर मृत्यु तक कर्मकांड प्रकृति से जुड़ा हुआ है।
बाईट कोल समाज के लोग
बाईट सुनील बास्की आदिवासी साहित्यकार राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित शिक्षाविद
बाईट संजय चौहान समाजसेवी ट्राईबल ड्रीम्स




Conclusion:बाहर हाल जो भी हो कोल समाज राजनीतिक सामाजिक आर्थिक दृष्टिकोण से पिछड़ा हुआ है ।आदिम जनजाति रहने के बावजूद भी कोल समाज को आदिम जनजाति का दर्जा नहीं मिल पाया है। जिसे लेकर आज भी कोल समाज गोलबंद हो आंदोलन कर रहे हैं ।अब देखना यह है राजनीतिक आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टिकोण से पिछड़ा यह आदिम जनजाति कोल समाज को पहचान मिल पाती है या नहीं।

संजय तिवारी ईटीवी भारत जामताड़ा
Last Updated : Aug 6, 2019, 1:23 PM IST
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