जामताड़ा: कोल आदिवासी अपना वजूद खोते नजर आ रहे हैं. राजनीतिक, आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टिकोण से आज भी यह समाज पिछड़ा हुआ है. इसे न तो पहचान ही मिल पायी और न ही इन्हें आदिम जनजाति का दर्जा ही मिल पाया है.
कोल आदिवासिओं को आदिम जनजाति के रूप में जाना जाता है. कोल मुंडा समूह के एक अत्यंत प्राचीन आस्ट्रिक से संबंधित हैं. जो मूल रूप से झारखंड समेत नौ राज्यों बिहार, यूपी, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में पाए जाते हैं. कोल जाति की उत्पत्ति इसकी सांस्कृतिक रहन-सहन बिल्कुल आदिवासी संथालों से मिलता-जुलता है.
संथाल से कोल आदिवासियों का रिश्ता
कोल आदिवासियों की उत्पत्ति कहां कैसे हुई यह तो सही सही कह पाना कठिन है. जानकारों की माने तो संथाल आदिवासी के साथ ही कोल आदिवासी की उत्पत्ति हुई है. कोल आदिवासियों का रहन-सहन और उसकी संस्कृति बिल्कुल संथाल आदिवासियों जैसी ही है. वे देवी- देवताओं को भी पूजते हैं और प्रकृति से जुड़ा त्योहार भी मनाते हैं. कर्मा और काली पूजा प्रमुख त्योहार हैं. सिंग-बोंगा इनके प्रमुख देवता हैं. ये ज्यादातर मिट्टी के मकानों में जंगल और पहाड़ों पर अधिकतर खुले स्थान पर रहना पसंद करते हैं.
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खेती-मजदूरी से रोजी-रोटी
इनका रोजी-रोटी और कमाने खाने का मुख्य जरिया खेती और मजदूरी करना होता है. इनमें शिक्षा की भी काफी कमी है. जिसके कारण ये आगे नहीं बढ़ पाते हैं. राजनीतिक रूप से भी ये समाज पिछड़ा हुआ है. इस कारण इनकी राजनीतिक पार्टियों में पहचान नहीं बन पायी है.
साहित्यकार ने बताई विशेषता
कोल आदिवासियों का कहना है कि उन्हें देखने वाला कोई नहीं है. इन्हें संथाल जैसी कोई सुविधा भी नहीं मिल पाती है. जिस कारण वे अपने आप को उपेक्षित महसूस करते हैं. आदिवासी साहित्यकार राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित सुनील बास्की ने कोल की विशेषता के बारे में बताया कि कोल समाज आदिवासी समाज का ही एक अंग है. इनकी संस्कृति आदिवासी संस्कृति के साथ मिलती है लेकिन यह आदिम जनजाति है. बता दें कि ये आदिम जनजाति झारखंड समेत कुल 9 राज्यों में पाये जाते हैं. जिनका जन्म से लेकर मृत्यु तक सारे कर्मकांड प्रकृति से जुड़ा हुआ है.