गिरिडीह: नवरात्र मां दुर्गे की साधना का दिन है. 9 दिनों में लोग पूरी भक्ति भाव से शक्ति की देवी मां दुर्गे की आराधना करते हैं. इन नौ दिनों में आदिवासी समाज भी आराधना में जुटा रहता है. आदिवासी समाज इस वक्त विषहरी पूजा करते हैं.
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9 दिनों तक गुरु के सानिध्य में उनके अनुयायी जंगल में जाकर उन जड़ी बूटियों की खोज करते हैं जिससे विष या अन्य गंभीर बीमारी का इलाज हो सके. 10वें दिन विजयादशमी को गुरु के साथ उनके अनुयायी मां दुर्गा के समीप पहुंच कर उन जड़ी बूटियों को मां के चरणों में रखते हैं और यह प्रार्थना करते हैं कि 'मां आगे की दिशा आप ही बताए'. गिरिडीह में भी आदिवासी समाज इस पूजा में जुटा हुआ है. आदिवासी गांवों के अलावा मुख्य सड़कों पर भी आदिवासी समाज के लोग परम्परागत वेशभूषा में देखे जा सकते हैं.
वाद्ययंत्रों के साथ दिखते हैं झूमते
प्रकृति के पुजारी आदिवासी समाज इस दौरान वाद्ययंत्रों के साथ थिरकते भी देखे जाते हैं. गांव की गलियों के अलावा मुख्य सड़क पर भी ये लोग मांदर, नागड़ा, झाल बजाते दिखते हैं. मार्ग में तो लोगों से सहयोग लेते हैं और राहगीर भी खुशी खुशी सहयोग करते हैं.
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क्या कहते हैं जानकार
इस विषय पर समाज के जानकारों से ईटीवी ने बात की. पीरटांड़ के प्रमुख व आदिवासी नेता सिकंदर हेम्ब्रोम व समाज के सीताराम हांसदा बताते हैं कि कलश स्थापना के साथ ही विषहरी पूजा प्रारंभ हो जाता है. इस समय जंगल में जड़ी बूटी भी सुगमता से मिलता है. ऐसे में गुरु (जड़ी-बूटी के जानकार) के नेतृत्व में कलश स्थापना के दिन ही अनुयायी जंगल जाते हैं. काफी खोजबीन करने के बाद जड़ी बूटी को इकठ्ठा करते हैं.
सिकंदर हेम्ब्रोम बताते हैं कि दुर्गा पूजा समाज में उत्साह लेकर आता है. इस दौरान बीमारी से निपटने के लिए गुरु से ज्ञान प्राप्त किया जाता है. यह सीखा जाता है कि कौन सी जड़ी किस बीमारी के लिए उपयुक्त है. गांव की अशांति को दूर करने के लिए लोग घर-घर पहुंचते हैं. विजयदशमी के दिन गुरु के साथ पूरी टीम व घरवाले भी मां के पास पहुंचते हैं. यह भी बताया कि यह परम्परा सैकड़ों वर्ष पुरानी है.