जमशेदपुरः आज 21वीं सदी में जहां भारत मंगल ग्रह और चांद पर जीवन की तलाश कर रहा है, वहीं दूसरी ओर झारखंड में कुछ ऐसी परंपरा भी अस्तित्व में है, जो हमें पीछे की ओर धकेल रही है. इस अजीब परंपरा में चीख और दर्द है. आदिवासी समाज की ओर से इस परंपरा को आज भी निभाया जा रहा है, जो पुरे सिस्टम पर सवाल खड़ा करता है.
मकर संक्रांति के दूसरे दिन अखंड जातरा पर निभाई जाती है खास परंपराः मकर संक्रांति झारखंड प्रकृति पूजक आदिवासी समाज का एक बड़ा पर्व है. इस पर्व को मनाने के लिए ग्रामीण एक माह पूर्व से ही तैयारी में जुट जाते हैं. घरों में तरह-तरह के व्यंजन बनाए जाते हैं, वहीं मकर संक्रांति के दूसरे दिन को अखंड जातरा की परंपरा निभाई जाती है. यह परंपरा चीख और दर्द भरी है. जिसमें 21 दिन के नवजात बच्चे से लेकर बड़े तक को गर्म सीक से पेट पर दागा जाता है. जिसे चिड़ी दाग कहा जाता है.
क्या है चिड़ी दागः आदिवासी समाज में मकर के दूसरे दिन को अखंड जातरा कहते हैं. इस दिन ग्रामीण क्षेत्र के अलग-अलग इलाकों में अहले सुबह महिलाएं गोद में अपने बच्चे को लेकर आदिवासी धर्म गुरु के यहां पहुंचती हैं. धर्म गुरु के घर के आंगन में लकड़ी की आग जलते रहती है. इस आग में आदिवासी पुरोहित पतली तांबे की सिक को गर्म करता है. इसके बाद महिलाएं अपने बच्चे को पुरोहित के हवाले कर देती हैं. पुरोहित महिला से उसके गांव का पता बच्चे का नाम पूछकर ध्यान लगाकर पूजा करता है और वहीं जमीन पर सरसो तेल से एक दाग देता है और फिर बच्चे के पेट के नाभि के चारों तरफ तेल लगाकर तपते तांबे की सिक से नाभी के चारों तरफ चार बार दागता है. इस दौरान बच्चे की चीख निकल जाती है, लेकिन पुरोहित बच्चे के सिर पर हाथ रख उसे आशीर्वाद देता है और उसकी मां को सौंप देता है. बदले में आदिवासी पुरोहित कोई शुल्क या चढ़ावा नहीं लेता है.
आदिवासी समाज में नवजात से लेकर बड़े बुजुर्ग भी लेते हैं चिड़ी दागः इस संबंध में आदिवासी समाज के पुरोहित बताते हैं कि यह उनकी पुरानी परंपरा है. उनके परदादा, दादा और पिता के बाद आज वो इस परंपरा को निभा रहे हैं. आदिवासी समाज में यह माना जाता है कि मकर संक्रांति में कई तरह के व्यंजन खाने के बाद पेट दर्द या तबीयत खराब हो जाती है. चिड़ी दाग देने से ऊपर से नस का इलाज होता है और पेट दर्द ठीक हो जाता है. 21 दिन के नवजात से लेकर बड़े-बुजुर्ग भी लेते हैं चिड़ी दाग.
मेडिकल साइंस की नजर में है अंधविश्वासः हालांकि आदिवासियों की इस परंपरा को मेडिकल साइंस पूरी तरह अंधविश्वास बताता है, लेकिन ग्रामीणों को आज भी अपनी इस पुरानी परंपरा पर पूरा विश्वास है. बच्चे का चिड़ी दाग कराने के बाद मां को इस बात की खुशी होती है कि उसके बच्चे को अब पेट से संबंधित कोई तकलीफ नहीं होगी वो अपने बच्चे को गोद में लेकर खुशी-खुशी लौट जाती हैं. इस संबंध में आदिवासी महिलाओं का कहना है हम अपनी इस पुरानी परंपरा को मानते हैं. चिड़ी दाग कराने के वक्त बच्चा रोता है, लेकिन वो थोड़ी देर बाद शांत हो जाता है. वहीं समाज के बुद्धिजीवियों का कहना है यह वर्षों पुरानी परंपरा है, लेकिन अब विज्ञान काफी आगे बढ़ गया है. यही वजह है कि ग्रामीण अब दवा पर विश्वास कर रहे हैं. जिसकी वजह से अब कम बच्चे चिड़ी दाग के लिए आते हैं.
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