दुमका: 1890 से आयोजित होता आ रहा राजकीय जनजातीय हिजला मेला महोत्सव के आयोजन पर पिछले वर्ष की तरह इस बार भी ग्रहण लग सकता है. इस वर्ष मेला नहीं लगने की संभावना इसलिए प्रबल हो गई है कि फरवरी माह में ही यह लगता है जिसकी तैयारी 1 माह पूर्व ही होने लगती थी, पर इस बार ऐसा कुछ नहीं होता नजर आ रहा.
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हर साल फरवरी माह में एक सप्ताह तक लगने वाला हिजला मेला संथालपरगना प्रमंडल की सभ्यता संस्कृति से जुड़ चुका है. यहां के लोगों के लिए यह व्रत त्योहार की तरह है. इस मेले में स्थानीय और दूरदराज के हजारों लोगों को अच्छा रोजगार प्राप्त होता है. सरकार के द्वारा दर्जनों विभाग के स्टॉल लगाए जाते हैं. जिसमें सरकारी योजनाओं की जानकारी दी जाती है. खेलकूद का आयोजन होता है. तरह-तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं. सांस्कृतिक कार्यक्रम में झारखंड के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल के कलाकार आकर अपनी कला का जौहर दिखाते हैं. कुल मिलाकर पूरी तरह से एक भव्य आयोजन होता है. लाखों लोग इस मेले को देखने के लिए पहुंचते हैं. ऐसे में इस वर्ष मेले का आयोजन नहीं होता देख लोग काफी दुखी हैं, मायूस हैं.
क्या कहते हैं हिजला गांव के ग्राम प्रधान: हिजला गांव जहां यह हिजला महोत्सव आयोजित होता है उसके ग्राम प्रधान सुनीलाल हांसदा कहते हैं कि हमलोग लगभग कोरोना काल से निकल चुके हैं. सरकार ने स्कूल-कॉलेज खोल दिया है. चुनाव हो रहे हैं, तो फिर यह मेला क्यों नहीं आयोजित हो रहा. यह हमारी जिंदगी से जुड़ चुका है. मेले के सात दिनों में हम अपने रिश्तेदारों को बुलाते हैं और खुशियां मनाते हैं.
अंग्रेज अधिकारी ने शुरू किया था यह आयोजन: दुमका शहर से 5 किलोमीटर दूर मयूराक्षी नदी के तट पर लगने वाले हिजला मेले की शुरुआत 1890 में अंग्रेज अधिकारी आरसी कास्टेयर्स ने की थी. मेला आयोजित करने का उद्देश्य वही था जो आज सरकार आपके द्वार कार्यक्रम का उद्देश्य है. मतलब अंग्रेजी शासक के द्वारा लोगों से फीडबैक लिए जाते थे और उस अनुसार योजनाएं बनाई जाती थी. उस वक्त से यह लगातार आयोजित हो रहा है.
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मरांग बुरु थान की उपेक्षा से लोग दुखी: हिजला मेला परिसर के बीचो-बीच संथाल समाज के देवता मरांग बुरू का स्थान है. प्रतिवर्ष मेले की शुरुआत सरकारी स्तर पर इस जगह पूजा कर होता रहा है. कोरोना की वजह से पिछली बार भी यहां पूजा अर्चना नहीं की गई है. मरांग बुरु का जो स्थान है वह फूस (लकड़ी-पुआल) का बना हुआ है. देखभाल नहीं होने की वजह जर्जर हो चुका है. यहां के जो पुजारी (नायकी) सीताराम सोरेन हैं, वे कहते हैं कि हिजला मेला लगना चाहिए. अगर यह नहीं भी लगता है तो इस मरांग बुरू थान की मरम्मत होनी चाहिए. वे बताते हैं कि इसकी मरम्मत के लिए हम प्रशासन के अधिकारियों से मिले पर कोई ध्यान नहीं दे रहा.
मेला परिसर में छह करोड़ की लागत से हो रहे हैं कई काम: संथालपरगना के लाखों लोग जब दिल से इससे जुड़े हैं तो स्वभाविक है सरकार इसके विकास में लगी है. सरकार इस मेला को कितना तवज्जो देती है इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि इस मेला परिसर में सरकार के द्वारा छह करोड़ की लागत से कला संस्कृति भवन, ओपन थिएटर बनाने समेत कई काम किए जा रहे हैं. ऐसे में यह भी जरूरी है कि यहां जो संथाल समाज के देवता का स्थान है. उसे सुसज्जित करना चाहिए. सरकार और जिला प्रशासन को इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है.