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बाबा नगरी में कांवरियों की भीड़, भगवान राम ने शुरू की थी परंपरा, अश्वमेघ यज्ञ जितना मिलता है पुण्य! - झारखंड न्यूज

सावन का महीना शुरू हो चुका है. देवनगरी में कांवरियों का आना भी शुरू हो चुका. बम भोले की गूंज और शिव की आराधना कर हर कोई इस पावन पर्व का भागीदारी बन रहा है. इन सब के बीच कांवर लेकर शिव के दर्शन को जाते भक्तों का उत्साह देखते ही बनता है.

कांवर लेकर जाते भक्त
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Published : Jul 19, 2019, 4:52 PM IST

देवघरः बाबा भोले की महिमा अपरंपार है. पवित्र श्रावणी मेला में कांवरिया अपने कंधे पर कांवर रखकर सुल्तानगंज से जल भरकर देवनगरी आते हैं. बाबा भोले को जल अर्पण करते हैं. कांवर की महिमा का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि कांवर यात्रा करने से उतने ही पुण्य की प्राप्ति होता है, जितने अश्वमेघ यज्ञ करने से होता है. कांवर को लेकर चलने में कई नियमों का पालन करना पड़ता है. इसमें शुद्धता का भी ख्याल रखना पड़ता है.

देखें पूरी खबर

भगवान राम ने कांवर लाकर यहां की थी शिव की आराधना

पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान राम और रावण द्वारा कांवर लाया गया था. श्रवण कुमार ने भी कांवर में अपने माता-पिता को रखकर यात्रा कराई थी. कांवर यात्रा की महिमा बहुत पुरानी है, कथाओं के मुताबिक रावण पर विजय प्राप्त कर राजा राम के राज्याभिषेक के बाद भगवान राम, पत्नी सीता और तीन भाइयों सहित सुल्तानगंज से जल भर शिव को अर्पित किया था. तभी से शिवभक्त यहां जलाभिषेक करते हैं.

डाक बम दौड़ या चल कर बिना रुके आते है यहां

स्कंद पुराण के अनुसार कांवर यात्रा से अश्वमेघ करवाने जितनी फल की प्राप्ति होती है. इसलिए कांवरिया सभी कष्ट भूलकर दुर्गम रास्तों पर भी बम भोले को याद कर बाबा नगरी पहुंचते हैं, कहा यह भी गया है कि श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को कांवर में रखकर कांवर यात्रा कराई थी. तभी से श्रावण मास के जलाभिषेक का विशेष महत्व है.

तीन तरह की होती है कांवर यात्रा

कांवर यात्रा तीन तरह की होती है, एक वह जो रुक रुक कर चलते हैं, दूसरे वह जो डंडी कांवर लेकर आते है यानी दंडवत देते देते आते है. तीसरे वह जो बिना रुके बिना खाये पिए दौड़ कर या तेज चाल में चल कर आते हैं. इन्हें डाक कांवरिया कहते है.

ये भी पढ़ें- मॉब लिंचिंग भाजपा की देन: बाबूलाल मरांडी

कड़े नियमों का करना होता है पालन

कांवर यात्रा में भक्त पूरे नियमों का पालन करते हैं. कांवर यात्रा के दौरान ब्रह्मचार्य का पालन करना पड़ता है. एक साधु की जीवन शैली को साथ रखकर चलना पड़ता है. सबसे पहले भक्त सुल्तानगंज में जल भरकर संकल्प लेते हैं. कई नियमों का पालन करते हुए बाबा नगरी आते हैं. कांवर एक हिस्सा बाबा बैद्यनाथ के लिए होता है, तो दूसरा हिस्सा बासुकीनाथ के लिए. एक दूसरे पात्र में भी गंगाजल का होता है. जिसका उपयोग शुद्धि के लिए होता है.

कहा जाता है कि कांवर के दोनों पलड़े सुख-दुख के समान है. जो हमेशा से इंसान साथ चलते हैं. कांवर की सुंदरता कांवर की बनावट देखते ही बनती है. घुंघरू की मीठी आवाज ओर बोलबम की गूंज से पूरा वातावरण शिवमय हो जाता है.

देवघरः बाबा भोले की महिमा अपरंपार है. पवित्र श्रावणी मेला में कांवरिया अपने कंधे पर कांवर रखकर सुल्तानगंज से जल भरकर देवनगरी आते हैं. बाबा भोले को जल अर्पण करते हैं. कांवर की महिमा का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि कांवर यात्रा करने से उतने ही पुण्य की प्राप्ति होता है, जितने अश्वमेघ यज्ञ करने से होता है. कांवर को लेकर चलने में कई नियमों का पालन करना पड़ता है. इसमें शुद्धता का भी ख्याल रखना पड़ता है.

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भगवान राम ने कांवर लाकर यहां की थी शिव की आराधना

पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान राम और रावण द्वारा कांवर लाया गया था. श्रवण कुमार ने भी कांवर में अपने माता-पिता को रखकर यात्रा कराई थी. कांवर यात्रा की महिमा बहुत पुरानी है, कथाओं के मुताबिक रावण पर विजय प्राप्त कर राजा राम के राज्याभिषेक के बाद भगवान राम, पत्नी सीता और तीन भाइयों सहित सुल्तानगंज से जल भर शिव को अर्पित किया था. तभी से शिवभक्त यहां जलाभिषेक करते हैं.

डाक बम दौड़ या चल कर बिना रुके आते है यहां

स्कंद पुराण के अनुसार कांवर यात्रा से अश्वमेघ करवाने जितनी फल की प्राप्ति होती है. इसलिए कांवरिया सभी कष्ट भूलकर दुर्गम रास्तों पर भी बम भोले को याद कर बाबा नगरी पहुंचते हैं, कहा यह भी गया है कि श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को कांवर में रखकर कांवर यात्रा कराई थी. तभी से श्रावण मास के जलाभिषेक का विशेष महत्व है.

तीन तरह की होती है कांवर यात्रा

कांवर यात्रा तीन तरह की होती है, एक वह जो रुक रुक कर चलते हैं, दूसरे वह जो डंडी कांवर लेकर आते है यानी दंडवत देते देते आते है. तीसरे वह जो बिना रुके बिना खाये पिए दौड़ कर या तेज चाल में चल कर आते हैं. इन्हें डाक कांवरिया कहते है.

ये भी पढ़ें- मॉब लिंचिंग भाजपा की देन: बाबूलाल मरांडी

कड़े नियमों का करना होता है पालन

कांवर यात्रा में भक्त पूरे नियमों का पालन करते हैं. कांवर यात्रा के दौरान ब्रह्मचार्य का पालन करना पड़ता है. एक साधु की जीवन शैली को साथ रखकर चलना पड़ता है. सबसे पहले भक्त सुल्तानगंज में जल भरकर संकल्प लेते हैं. कई नियमों का पालन करते हुए बाबा नगरी आते हैं. कांवर एक हिस्सा बाबा बैद्यनाथ के लिए होता है, तो दूसरा हिस्सा बासुकीनाथ के लिए. एक दूसरे पात्र में भी गंगाजल का होता है. जिसका उपयोग शुद्धि के लिए होता है.

कहा जाता है कि कांवर के दोनों पलड़े सुख-दुख के समान है. जो हमेशा से इंसान साथ चलते हैं. कांवर की सुंदरता कांवर की बनावट देखते ही बनती है. घुंघरू की मीठी आवाज ओर बोलबम की गूंज से पूरा वातावरण शिवमय हो जाता है.

Intro:देवघर कावर यात्रा का क्या है महत्व कैसे करते है कांवरिये कावर यात्रा,भगवान राम ने की थी शुरुआत तब से चली आ रही है परंपरा।


Body:एंकर बाबा भोले की महिमा अपरमपार है पवित्र श्रावणी मेला में कावरिया अपने कंधे पर कावर रखकर सुल्तानगंज से जल भरकर देवनगरी आते है और बाबा भोले को जल अर्पण करते है। कावर की महिमा का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि कावर यात्रा करने से उतने ही पुण्य की प्राप्ति होती है जितने अश्वमेघ यज्ञ करने में होता है कावर को लेकर चलने में कई नियमो का पालन करना पड़ता है और इस इसमें शुद्धता का भी ख्याल रखना पड़ता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान राम और रावण के द्वारा भी कावर लाया गया था। श्रवण कुमार ने भी कावर में अपने माता पिता को कावर में रखकर यात्रा कराया था। कावर यात्रा की महिमा बहुत पुरानी है कथाओं के मुताबिक रावण पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से राजा राम के राज्याभिषेक के बाद भगवान राम पत्नी सीता और तीनों भाई सहित सुल्तानगंज से जल भरके शिव को अर्पित किया था। तभी से शिवभक्त यहाँ जलाभिषेक करते है। स्कंद पुराण के अनुसार कावर यात्रा से अश्वमेघ करवाने जितनी फल की प्राप्ति होतीं है इस लिए कावरिया सभी कस्ट भूलकर दुर्गम रास्तो पर भी बम भोले का सुमिरन कर बाबा नगरी पहुँचते है साथ ही कहा यह भी गया है कि श्रवण कुमार ने अपने माता पिता को कावर में रखकर कावर यात्रा कराए थे तभी से श्रावण मास के जलाभिषेक का विशेष महत्व है। कावर यात्रा तीन तरह की होती है एक वह जो रुक रुक कर चलते है दुसरे वह जो डंडी कावर लेकर आते है यानी यह दंड देते देते आते है और तीसरे वह होते है जो बिना रुके बिना खाये पिए दौड़ कर या तेज चाल में चल कर आते है इन्हें डाक कावरिया कहते है कावर यात्रा में भक्त पूरे नियमो का पालन करते है कावर यात्रा के दौरान ब्रह्मचारी का पालन करना पड़ता है और एक साधु की जीवन शैली को साथ रखकर चलना पड़ता है सबसे पहले भक्त सुल्तानगंज में जल भरकर संकल्प लेते है और कई नियमो का पालन करते हुए बाबा नगरी आते है कावर का एक तरफ बाबा बैद्यनाथ के लिए होता है तो दूसरे तरफ बासुकीनाथ के लिए तो एक अन्य पात्र भी गंगाजल का होता है जिसका उयोग सुद्धि के नाम से भी गंगाजल साथ लाते है।


Conclusion:बहरहाल,कहा जाता है कि कावर के दोनों पलड़े सुख दुख के समान है जो हमेशा के इंसान साथ चलते है कावर की सुंदरता कावर की बनावट देखते ही बनती है घुंघरू की मीठी आवाज ओर बोलबम की गूंज से पूरा वातावरण शिवमय हो जाता है।

बाइट प्रमोद श्रृंगारी,पुरोहित बाबा मंदिर।
बाइट श्रद्धालु।
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