देवघर: बाबाधाम का उल्लेख पुराणों में भी है और यहां पूजा अनवरत चलती आ रही है. कोरोना काल के बाद एक तरफ जहां शिवरात्रि की धूम है. वहीं, दूसरी तरफ शिव बारात न निकलने से लोगों में नाराजगी भी है. देवघर को जिस प्रकार परंपराओं की नगरी कहा जाता है. ठीक उसी प्रकार यहां के रीति रिवाज भी अन्य मंदिरों से भिन्न हैं.
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मोर मुकुट की डिमांड
देवघर के बाबा मंदिर में एक अनूठी परंपरा निभाई जाती है. यहां महाशिवरात्रि के दिन बाबा भोले पर मोर का मुकुट चढ़ाया जाता है. जिसे आम बोलचाल की भाषा में शेहरा भी कहा जाता है. बाबा भोले पर मोर मुकुट चढ़ाने का बहुत ही प्राचीन परंपरा रही है. कन्याओं की शादी की मनोकामना पूरी करने के लिए इस दिन बाबा भोले पर मोर मुकुट चढ़ाया जाता है. जब मनोकामना पूरी हो जाती है या नई-नई शादी होती है तो बाबा को मुकुट चढ़ाने की परंपरा रही है. ऐसे में महाशिवरात्रि के दिन मोर मुकुट की डिमांड काफी रहती है.
आज भी बरकरार है प्राचीन परंपरा
देवघर से 7 किलोमीटर दूर बसा रोहिणी ग्राम इस मोर मुकुट के लिए प्रसिद्ध है. जानकर बताते हैं कि रोहिणी घटवाल द्वारा बाबा भोले पर मुकुट चढ़ाया जाता है. जिसे यहां के मालाकार परिवार सदियों से बनाते आ रहे हैं, जो पूरी शुद्धता के साथ बनता है. रोहिणी गांव देवघर का सबसे पुराना गांव माना जाता है और यह परंपरा मालाकार परिवार की ओर से आज भी निभायी जा रही है.
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क्यों खास है देवघर का बाबा धाम
भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में एक देवघर में स्थापित है. इस लिंग को मनोकामना ज्योतिर्लिंग के रूप में जाना जाता है और इसकी स्थापना रावण ने की थी. यह एक मात्र ऐसा तीर्थ हैं जहां ज्योर्तिलिंग और शक्तिपीठ एक ही जगह है. मान्यता है कि यहां पहले सती का हृदय गिरा था और फिर त्रेतायुग में शिवलिंग की स्थापना की गई. इस वजह से इसे शिव-शक्ति का मिलन स्थल भी कहा जाता है. धार्मिक ग्रंथों के अनुसार रावण ने भगवान शिव की कठिन तपस्या कर उन्हें लंका ले जाने का वर मांगा, शिव साथ जाने को तैयार हो गए, लेकिन यह शर्त रखी कि उनके शिवलिंग को जिस जगह जमीन पर रखा जाएगा, वह वहीं स्थापित हो जाएंगे.
अनूठी परंपरा की मिसाल
12 ज्योतिर्लिंगों में से एक बाबा बैद्यनाथ शक्तिपीठ भी है, जहां बाबा बैद्यनाथ के साथ-साथ माता सती की पूजा एक साथ की जाती है, जिससे दोगुनी फल की प्राप्ति होती है. खासकर महाशिवरात्रि का विशेष दिन भगवान शिव का होता है और भक्त यहां पूजा अर्चना कर अपने आप को धन्य होते हैं. बाबानगरी को परंपराओं की नगरी भी कहा जाता है.
यहां की परंपरा विश्व में अनोखी मानी गई है. महाशिवरात्रि में भी यहां अनूठी परंपरा की मिसाल देखने को मिलती है. देवघर में भगवान शिव पर गंगाजल चढ़ाने के बाद दुमका के बासुकीनाथ मंदिर में भी चल चढ़ाने की परंपरा है. मान्यताओं के अनुसार बाबा धाम भगवान शिव का दीवानी दरबार है, यहां भक्तों की कामना जरूर पूरी होती है. देवघर से करीब 45 किलोमीटर दूर दुमका के बासुकीनाथ मंदिर में भगवान का फौजदारी दरबार है और यहां इससे संबंधित मनोकामनाओं की सुनवाई होती है.
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कांवर और बम की महिमा
सुल्तानगंज में बाबा अजगैबीनाथ की पूजा के बाद देवघर के बाबधाम पहुंचने का रास्ता 117 किलोमीटर लंबा है. इस यात्रा पर निकले शिवभक्तों को बम के नाम से संबोधित किया जाता है और इनका एक ही नारा होता है-बोल बम. शिवभक्त गंगा जल को दो पात्रों में लेकर एक बहंगी में रख लेते हैं जिसे कांवर कहा जाता है और कांवर लेकर चलने वाले शिवभक्त कांवरिये कहलाते हैं.
विश्व में एक मात्र शिवालय बाबा मंदिर ही है, जहां पर बाबा भोले के मंदिर सहित सभी मंदिरों के शीर्ष पर पंचशूल विराजमान हैं, लेकिन बाबा मंदिर में पंचशूल के बारे कहा जाता है कि अगर किसी कारणवश आप ज्योतिर्लिंग का दर्शन नहीं कर पाते हैं तो आप पंचशूल का दर्शन कर लीजिए. आपको बाबा भोले का आशीर्वाद मिल जाएगा.
सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम
महाशिवरात्रि के दो दिन पूर्व पंचशूल बाबा भोले और माता पार्वती के शीर्ष से उतारने की अनूठी परंपरा रही है. इसी दिन मंत्रोचार और विधि पूर्वक पंचशूल उतारा जाता है. इसके बाद कई प्रकार के पूजन विधि के बाद इसे फिर से दूसरे दिन बाबा मंदिर और माता पार्वती के शीर्ष पर चढ़ा दिया जाता है.
इसी परंपरा के अनुसार, मंगलवार को पंचशूल उतारा गया और इसे स्पर्श करने और इसके दर्शन के लिए हजारों की संख्या में श्रद्धालु मौजूद थे. बाकी मंदिरों का पंचशूल पहले में ही उतारा जा चुका है. पंचशूल उतारने की परंपरा को लेकर लगातार श्रद्धालुओं की बढ़ती भीड़ को देखते हुए जिला प्रशासन ने सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए थे.