रांचीः राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अपना सबकुछ मानने वाले टाना भगत के लिए आज का दिन किसी त्यौहार से कम नहीं है. हर दिन हर पल बापू के नाम से जीने वाले इन टाना भगतों के लिए गांधी जी किसी भगवान से कम नहीं है. हर दिन बापू की पूजा कर उन्हें नमन करने वाले टाना भगत गांधी जयंती विशेष रुप से मनाते हैं.
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समय के साथ समाज में कई बदलाव हो रहे हैं, मगर टाना भगत आज भी सत्य अहिंसा के पुजारी को उसी अंदाज में पारंपरिक रुप से आज भी मानते हैं. हाथों में पूजा की थाल और चरखा से बना सूत बापू को चढ़ाने मोरहाबादी मैदान स्थित बापू बाटिका पहुंचे. यहां टाना भगतों ने बापू को ना केवल श्रद्धासुमन अर्पित किया बल्कि उनके आदर्शों पर चलने की कसमें खायीं. टाना भगत समुदाय में पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये परंपरा आज तक निभायी जा रही है.
अंहिसा के पुजारी रहे इस समुदाय ने आजादी की लड़ाई में अहम भागीदारी निभाई है. सबसे अधिक इन्होंने स्वदेशी और ग्राम्य जीवन को अपनाया, लिहाजा इनके समुदाय जहां भी हैं, वहां वो गांवों में ही रहते हैं. इनकी अपनी दुनिया पूरी तरह अहिंसक है और अहिंसा इनके लिए वास्तविक धर्म है. टाना भगतों की पहचान और परंपरा बेहद सहज और सरल व्यक्तित्व वाली है. सफेद धोती, कुर्ता, माथे पर टोपी, गमछा टाना भगतों की खास पहचान है. एक सदी गुजर गई, पर टाना भगतों ने अपना पारंपरिक लिबास नहीं छोड़ा है.
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टाना भगत की वेशभूषा
सफेद धोती, साड़ी टाना भगत की पहचान है, महिलाएं सफेद साड़ी पहनती हैं, पुरुष धोती पहनते हैं. बड़े-बुजुर्ग जब भी घरों से बाहर निकलते हैं तो दूसरे के हाथ का पका हुआ खाना नहीं खाते हैं. इसके पीछे उनकी सोच है कि अपनी जिंदगी के जो भी जरूरी काम हैं उन्हें वह खुद ही करने चाहिए. वो महात्मा गांधी को इतनी आत्मीयता से जीते हैं कि वो झूठ नहीं बोल पाते.
गांव के बूढ़े-बुजुर्ग तकली से सूत कातते हैं, इसी सूत से जनेऊ बनाते हैं और हर तीन महीने पर वो इसे बदलते भी हैं. इनके घरों की पहचान है कि दरवाजे पर तिरंगा जरूर लगा मिलेगा और ये उसकी पूजा करते हैं. कोई भी टाना भगत बिना स्रान–प्रार्थना के भोजन नहीं करता है और कोशिश होती है कि पहले दूसरे का पेट भरा हो, तब ही वो खाना खाएं.
ब्रिटिश शासन के जुल्म के खिलाफ झारखंड में टाना भगतों ने जतरा उरांव के नेतृत्व में आंदोलन किया था. अहिंसा, सादगी और बुराइयों से दूर रहकर आंदोलन करने वाले इन टाना भगतों की मुलाकात 1919 में गांधी जी से हुई जिसके बाद से ये घोर गांधीवादी हो गए. उन्होंने अहिंसा को ही अपनाया हुआ धर्म मान लिया और इसी पर आधारित जीवन भी गुजारने लगे. टाना भगतों ने आजादी के आंदोलन में भी बड़ी संख्या में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी.