रांची: झारखंड में स्थानीय नीति का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर निकला है. राज्य गठन के लगभग डेढ़ दशक के बाद पूर्ववर्ती बीजेपी सरकार ने डोमिसाइल पॉलिसी के मामले की आग को ठंडा करने के लिए एक नीति बनाई, लेकिन उसके 'बेस' इयर को लेकर विवाद खड़ा हो गया है.
राजनीतिक दल इस कट ऑफ इयर के खिलाफ
दरअसल, पूर्ववर्ती सरकार ने डोमिसाइल पॉलिसी का कट ऑफ इयर 1985 रखा है. हालांकि, कई राजनीतिक दल इस कट ऑफ इयर के खिलाफ हैं. सरकार का नेतृत्व कर रही झारखंड मुक्ति मोर्चा का साफ कहना है कि इस डोमिसाइल पॉलिसी का रिव्यू किया जाएगा. झामुमो समेत कुछ राजनीतिक दल ऐसे हैं जो स्थानीयता को लेकर 1932 के खतियान को आधार बनाने की मांग कर रहे हैं. उनमें एनडीए के घटक दल आजसू पार्टी का भी नाम शामिल है.
काफी जद्दोजहद के बाद लागू हुई थी पॉलिसी
एकीकृत बिहार से 15 नवंबर, 2000 में अलग हुए झारखंड राज्य के लिए स्थानीय नीति एक बड़ा मुद्दा शुरू से रहा है. राज्य गठन के 2 साल के अंदर ही झारखंड में इसको लेकर हिंसक आंदोलन भी हुए और कथित तौर पर मूलवासी और अन्य राज्यों से झारखंड आकर आने वाले लोग आमने-सामने हो गए. झारखंड के साथ ही बने दो अन्य राज्य छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड राज्य के स्थानीयता नीति का अध्ययन कर प्रदेश में 2015 में स्थानीय नीति लागू की गई. तत्कालीन बीजेपी सरकार ने डोमिसाइल पॉलिसी की जो अधिसूचना जारी की उसके अनुसार झारखंड में 1985 से पहले से रह रहे लोग इसके निवासी हो गए. साथ ही प्रदेश के 13 जिलों के अधिसूचित इलाकों में तृतीय और चतुर्थ वर्ग की नौकरी वहीं के स्थानीय लोगों के लिए अगले 10 साल तक के लिए रिजर्व कर दी गई. जबकि अनाधिसूचित इलाकों में नौकरियों के लिए कोई भी आवेदन दे सकता है. उन 13 जिलों में साहिबगंज, पाकुड़, दुमका, जामताड़ा, रांची, खूंटी, गुमला, लोहरदगा, सिमडेगा, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, सरायकेला खरसावां का नाम भी शामिल है.
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सरकार में शामिल कांग्रेस और राजद को साथ लेना होगा कठिन
राज्य सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि मौजूदा स्थानीय नीति की समीक्षा की जाएगी. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने कहा कि इसके लिए बकायदा एक कमेटी बनाई जाएगी जो इसके सभी पक्षों का अध्ययन करेगी. उसके बाद राज्य सरकार मौजूदा स्थानीय नीति में संशोधन कर सकती है. झारखंड मुक्ति मोर्चा 1932 के खतियान को स्थानीय नीति का आधार बनाने पर अड़ा है. दूसरी तरफ राज्य के कई ऐसे इलाके हैं जहां अंतिम लैंड सर्वे 1932 के बाद हुआ. साथ ही कांग्रेस और राजद भी 1932 के बेस इयर पर साथ आएगा. इसकी उम्मीद कम है. ऐसे में झारखंड मुक्ति मोर्चा के लिए एकरूपता लाना मुश्किल लग रहा है.
पहले भी उठता रहा है स्थानीयता का मुद्दा
यह पहली बार नहीं है जब स्थानीय नीति के मुद्दे पर राजनीति शुरू हुई है. 2002 में डोमिसाइल शब्द ने काफी बवाल कराया था. इसको लेकर हिंसात्मक आंदोलन भी हुआ और 2 से अधिक लोगों की मौत भी हुई थी. उसके बाद राज्य में कई बार स्थानीय नीति को लेकर आवाज उठी. 2014 में बीजेपी की बहुमत वाली सरकार ने स्थानीयता नीति बनाई और इसका श्रेय तत्कालीन सीएम रघुवर दास को दिया गया. दास राज्य के दसवें सीएम थे. उनके पहले अर्जुन मुंडा, मधु कोड़ा, शिबू सोरेन और यहां तक कि मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भी एक बार मौका मिला, लेकिन उस दौर में स्थानीय नीति का मामला सरकारी फाइलों में सिमटा रहा.
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बीजेपी ने लिया आड़े हाथ
इस मामले में बीजेपी का साफ मानना है कि मौजूदा सरकार केवल बयानबाजी कर रही है. बीजेपी के प्रदेश प्रवक्ता प्रतुल शाहदेव ने दावा किया कि सारी बयानबाजी बेरमो और दुमका विधानसभा के लिए होनेवाले उपचुनाव को लेकर किया जा रहा है. उन्होंने कहा कि स्थानीय नीति का 1932 का खतियान हेमंत सोरेन के लिए केवल राजनीति का मुद्दा रहा है. राज्य में जब 14 महीने की सरकार थी जब उन्होंने अर्जुन मुंडा की सरकार से सिर्फ इसलिए समर्थन वापस लिया था क्योंकि वह स्थानीय नीति परिभाषित नहीं कर पाए. 14 महीने के अपनी पूर्व की सरकार में स्थानीय नीति की फाइल 14 इंच भी आगे नहीं बढ़ी. शाहदेव ने कहा कि अब जब बेरमो और दुमका का चुनाव सिर पर आ गया है उन्होंने घोषणा की है कि मंत्रिमंडल के सहयोगी साथियों की कमेटी बनेगी. जबकि अभी तक कमेटी का नोटिफिकेशन नहीं हुआ है और गठबंधन के साथी कांग्रेस में इस मामले में एकमतता नहीं है.