रांची: 34 वर्षों के लंबे इंतजार के बाद देश को नई शिक्षा नीति मिली है. इसका मकसद है देश की शिक्षा व्यवस्था में अब तक महसूस की गई खामियों को दूर करना. अब सवाल है कि क्या झारखंड में नई शिक्षा नीति हूबहू लागू हो सकती है.
इसे लागू करने में कहां-कहां दिक्कतें आ सकती हैं. यह भी समझना जरूरी है कि इस नई शिक्षा नीति से पारा शिक्षक और बीएड कॉलेज संचालक क्यों परेशान हैं? जाहिर है इसका जवाब शिक्षाविद ही बेहतर तरीके से दे सकते हैं. लिहाजा, ईटीवी भारत के वरिष्ठ सहयोगी राजेश कुमार सिंह ने झारखंड के जाने-माने शिक्षाविद और विनोबा भावे विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. रमेश शरण से झारखंड के संदर्भ में इस नीति के फायदे और नुकसान पर चर्चा की.
मातृभाषा को लेकर पेंच
सबसे पहली बात तो यह उभर कर सामने आई कि प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में मातृभाषा को कैसे स्थापित किया जाए. डॉ. रमेश शरण ने कहा कि झारखंड एक जनजातीय बहुल राज्य है. यहां के आदिवासी समाज में अलग-अलग मातृ भाषाओं का चलन है. दूसरी तरफ यहां बांग्ला भाषी, उड़िया भाषी और भोजपुरी भाषी भी निवास करते हैं. जाहिर सी बात है कि प्राथमिक स्कूलों में अगर मातृभाषा से पढ़ाई की व्यवस्था की भी जाती है तो इसके लिए बड़ी संख्या में शिक्षकों की जरूरत होगी. अगर यह व्यवस्था कर भी ली जाती है तो यह संभव नहीं है कि एक ही क्लास में अलग-अलग मातृ भाषाओं के बच्चों को एक साथ पढ़ाया जा सके. लिहाजा, झारखंड सरकार एक नया फार्मूला निकाल सकती है. झारखंड में आदिवासी समाज के अलावा सदानों के बीच सादरी भाषा सामान्य रूप से चलन में है. इसलिए कई भाषाओं की जगह एक भाषा के रूप में इसे इस्तेमाल किया जा सकता है.
पारा शिक्षकों पर फैसला
झारखंड के संदर्भ में इस नीति को लेकर एक चर्चा सबसे प्रबल होती जा रही है कि अब पारा शिक्षकों का क्या होगा. क्योंकि नई नीति के मुताबिक पारा शिक्षकों की व्यवस्था को खत्म कर स्थाई शिक्षकों की व्यवस्था लागू करनी होगी. जाहिर है कि झारखंड में 50 हजार से ज्यादा पारा शिक्षक हैं और उनको हटाने का फैसला लेना सरकार के लिए आसान नहीं होगा. इसके लिए यह जरूरी है कि पारा शिक्षकों को नए सिरे से ट्रेंड कर नियोजित किया जाए.
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बीएड कॉलेज मामला
अब सवाल है नई शिक्षा नीति के कारण झारखंड के 127 बीएड कॉलेजों का क्या होगा. इस पर डॉ. रमेश शरण ने कहा कि 5+3+3+4 के फार्मूले के चौथे स्टेज का मतलब है कि बीएड कॉलेजों को डिग्री कॉलेजों की तर्ज पर बहुआयामी शिक्षा व्यवस्था सुनिश्चित करनी होगी. जाहिर है कि इतनी व्यापक व्यवस्था को सुनिश्चित करना आसान नहीं होगा. इसके लिए बड़ी संख्या में शिक्षकों की जरूरत पड़ेगी. हालांकि, उन्होंने कहा कि उनके कार्यकाल में विनोबा भावे विश्वविद्यालय में 4 साल के इंटीग्रेटेड कोर्स की व्यवस्था लागू की गई थी, जिसका अनुभव अच्छा नहीं रहा है. बातचीत के दौरान डॉ. रमेश शरण ने नई शिक्षा नीति की कई विशेषताओं को भी गिनाया.