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21 बच्चों को इंजीनियर और डॉक्टर बनाने के लिए हर साल 11 हजार करोड़ खर्च करती है झारखंड सरकार! - education in jharkhand

आखिर 21 बच्चों को इंजीनियर और डॉक्टर बनाने में 11 हजार करोड़ रुपए कैसे खर्च हो सकते हैं. इस सवाल का जवाब थोड़ा पेचीदा है. इसे समझने के लिए पूरी खबर पढ़ें.

education in jharkhand
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Published : Dec 8, 2020, 4:34 PM IST

रांची: हेडलाइन पढ़कर आपको अटपटा लगा होगा. मन में पहला सवाल यही उठा होगा कि ऐसा कैसे हो सकता है. आप इस बात से तो इत्तेफाक जरूर रखते होंगे कि हर मां-बाप का सपना होता है कि उनके बच्चे पढ़ लिखकर बड़ा आदमा बनें. देश और समाज का नाम रोशन करें. ज्यादातर मां-बाप चाहते हैं कि उनके बच्चे डॉक्टर या इंजीनियर बनें. इसके लिए अपना पेट काटकर नामी प्राइवेट स्कूलों में दाखिला कराते हैं. मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद महंगे कोचिंग संस्थानों में भेजते हैं. राज्य सरकार भी ऐसा ही चाहती है. तभी तो शिक्षा व्यवस्था पर हर साल 11 हजार करोड़ से ज्यादा की राशि खर्च करती है.

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झारखंड में शिक्षा पर खर्च

अब सवाल है कि 21 बच्चों को इंजीनियर और डॉक्टर बनाने में 11 हजार करोड़ रुपए कैसे खर्च हो जाते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार ने अपने होनहार बच्चों को इंजीनियर और डॉक्टर बनाने के लिए साल 2016 में आकांक्षा योजना की शुरूआत की थी. इसके तहत जैक दसवीं पास छात्रों के लिए चयन परीक्षा लेती है. इनमें से 40 छात्रों को इंजीनियरिंग और 40 छात्रों को मेडिकल की पढ़ाई के लिए चयनित किया जाता है. इन छात्रों को मुफ्त में रहने-खाने और कोचिंग की सुविधा दी जाती है. 2016 में शुरू हुई आकांक्षा योजना के तहत जेईई के लिए 2016-18 में 40 में से 22, 2017-19 में 40 में से 23 और 2018-20 में 40 में से 23 छात्र सफल हुए. इसी तरह नीट के लिए 2016-18 में 40 में से 4, 2017-19 में 30 और 2018-20 में 3 छात्र सफल हुए. यानी 2016 से 2020 तक कुल 105 छात्र सफल हुए. पांच वर्ष में 105 छात्र के सफल होने का मतलब है प्रति वर्ष औसतन 21 छात्र सफल हुए. जाहिर सी बात है कि सरकारी स्कूल व्यवस्था पर हर साल 11 हजार करोड़ से ज्यादा की राशि खर्च करने के बाद भी महज 21 छात्र इंजीनियर और डॉक्टर के योग्य बन रहे हैं. हालाकि हेमंत सरकार ने 2020-21 के अपने पहले बजट में 80 के बजाए 240 बच्चों को इंजीनीयरिंग और मेडिकल की तैयारी के लिए आकांक्षा योजना से जोड़ने की व्यवस्था की है.

ये भी पढ़ें-जानिए 20 वर्षों में राजनीतिक रूप से कितना मेच्योर हुआ झारखंड

डीएसपीएमयू के कुलसचिव एके चौधरी की राय

क्या कहते हैं विशेषज्ञ

डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय के कुलसचिव एके चौधरी ने ईटीवी भारत को बताया कि किसी सरकारी स्कूल में भवन नहीं तो कहीं टीचर नहीं है. ऐसे में गरीब लोग भी अपने बच्चों को निजी स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं ताकि उनकी शिक्षा की नींव मजबूत बने. उन्होंने बजट बनाने के दौरान शिक्षकों की नियुक्ति और स्कूलों में आधारभूत संरचना दोनों पर ध्यान देने की जरूरत बताई. वहीं प्रोफेसर जेपी शर्मा के अनुसार शिक्षक और छात्रों के अनुपात को सुधारने की आवश्यकता है. प्रो शर्मा ने कहा कि शिक्षकों के कई पद सालों से खाली हैं. ऐसे में शिक्षकों पर बहुत ज्यादा दबाव रहता है और बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिल पाती है.

डीएसपीएमयू के प्रोफेसर जेपी शर्मा की राय

निजी स्कूल से ज्यादा सरकारी स्कूल के बच्चों पर खर्च

इसको समझना बहुत आसान है. झारखंड के सरकारी स्कूलों में यानी कक्षा 1 से कक्षा 12 तक करीब 44 लाख बच्चे एनरोल्ड हैं. इनमें से करीब 35 लाख बच्चे रेगूलर हैं. सरकार का शिक्षा बजट करीब 11 हजार करोड़ से ज्यादा का है. यह राशि 1.19 लाख शिक्षकों/पारा शिक्षकों के वेतन, मिड डे मील, पोशाक, पुस्तक, अन्य रख-रखाव आदि पर खर्च की जाती है. इस हिसाब से 35 लाख बच्चों पर 11 हजार करोड़ के हिसाब से प्रतिवर्ष एक छात्र या छात्रा पर 31,428 रुपए खर्च किए जा रहे हैं. यानी प्रति माह एक छात्र-छात्रा पर 2,519 रुपए खर्च होता है.

अब इसकी तुलना निजी स्कूलों में पढ़ाई के नाम पर होने वाले खर्च से करने पर तस्वीर बिल्कुल साफ हो जाएगी. झारखंड के रांची, धनबाद, बोकारो, जमशेदपुर, देवघर और हजारीबाग जैसे शहरों में संचालित प्राइवेट स्कूलों में ट्यूशन फीस मद में प्रतिमाह औसतन 1,500 से लेकर 2,500 रुपए देने पड़ते हैं. इससे साफ है कि सरकारी स्कूल के बच्चों पर निजी स्कूलों में की तुलना में ज्यादा पैसे खर्च हो रहे हैं. फिर भी रिजल्ट की स्थिति दयनीय है. इसकी वजह शिक्षक हैं या बच्चे या अभिभावक, यह समीक्षा का विषय है.

कुछ चुभने वाले सवाल

सरकारी स्कूलों के 800 से ज्यादा शिक्षक रांची जिला के स्कूलों में ट्रांसफर लेना चाहते हैं. निजी स्कूलों में बच्चों का दाखिला दिलाने के लिए अभिभावकों को चप्पल घिसने पड़ते हैं. तरह-तरह की पैरवी होती है लेकिन क्या आपने सुना है कि किसी सरकारी स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए किसी को पैरवी करनी पड़ी हो. अलग-अलग न्यायालयों में शिक्षा विभाग से जुड़े करीब 3000 मामले हैं. इसके निपटारे में न सिर्फ मानव संसाधन बल्कि राजस्व की भी क्षति होती है. जाहिर सी बात है कि सब कुछ करने के बावजूद क्यों झारखंड के सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था लड़खड़ाती जा रही है.

रांची: हेडलाइन पढ़कर आपको अटपटा लगा होगा. मन में पहला सवाल यही उठा होगा कि ऐसा कैसे हो सकता है. आप इस बात से तो इत्तेफाक जरूर रखते होंगे कि हर मां-बाप का सपना होता है कि उनके बच्चे पढ़ लिखकर बड़ा आदमा बनें. देश और समाज का नाम रोशन करें. ज्यादातर मां-बाप चाहते हैं कि उनके बच्चे डॉक्टर या इंजीनियर बनें. इसके लिए अपना पेट काटकर नामी प्राइवेट स्कूलों में दाखिला कराते हैं. मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद महंगे कोचिंग संस्थानों में भेजते हैं. राज्य सरकार भी ऐसा ही चाहती है. तभी तो शिक्षा व्यवस्था पर हर साल 11 हजार करोड़ से ज्यादा की राशि खर्च करती है.

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झारखंड में शिक्षा पर खर्च

अब सवाल है कि 21 बच्चों को इंजीनियर और डॉक्टर बनाने में 11 हजार करोड़ रुपए कैसे खर्च हो जाते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि सरकार ने अपने होनहार बच्चों को इंजीनियर और डॉक्टर बनाने के लिए साल 2016 में आकांक्षा योजना की शुरूआत की थी. इसके तहत जैक दसवीं पास छात्रों के लिए चयन परीक्षा लेती है. इनमें से 40 छात्रों को इंजीनियरिंग और 40 छात्रों को मेडिकल की पढ़ाई के लिए चयनित किया जाता है. इन छात्रों को मुफ्त में रहने-खाने और कोचिंग की सुविधा दी जाती है. 2016 में शुरू हुई आकांक्षा योजना के तहत जेईई के लिए 2016-18 में 40 में से 22, 2017-19 में 40 में से 23 और 2018-20 में 40 में से 23 छात्र सफल हुए. इसी तरह नीट के लिए 2016-18 में 40 में से 4, 2017-19 में 30 और 2018-20 में 3 छात्र सफल हुए. यानी 2016 से 2020 तक कुल 105 छात्र सफल हुए. पांच वर्ष में 105 छात्र के सफल होने का मतलब है प्रति वर्ष औसतन 21 छात्र सफल हुए. जाहिर सी बात है कि सरकारी स्कूल व्यवस्था पर हर साल 11 हजार करोड़ से ज्यादा की राशि खर्च करने के बाद भी महज 21 छात्र इंजीनियर और डॉक्टर के योग्य बन रहे हैं. हालाकि हेमंत सरकार ने 2020-21 के अपने पहले बजट में 80 के बजाए 240 बच्चों को इंजीनीयरिंग और मेडिकल की तैयारी के लिए आकांक्षा योजना से जोड़ने की व्यवस्था की है.

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डीएसपीएमयू के कुलसचिव एके चौधरी की राय

क्या कहते हैं विशेषज्ञ

डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय के कुलसचिव एके चौधरी ने ईटीवी भारत को बताया कि किसी सरकारी स्कूल में भवन नहीं तो कहीं टीचर नहीं है. ऐसे में गरीब लोग भी अपने बच्चों को निजी स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं ताकि उनकी शिक्षा की नींव मजबूत बने. उन्होंने बजट बनाने के दौरान शिक्षकों की नियुक्ति और स्कूलों में आधारभूत संरचना दोनों पर ध्यान देने की जरूरत बताई. वहीं प्रोफेसर जेपी शर्मा के अनुसार शिक्षक और छात्रों के अनुपात को सुधारने की आवश्यकता है. प्रो शर्मा ने कहा कि शिक्षकों के कई पद सालों से खाली हैं. ऐसे में शिक्षकों पर बहुत ज्यादा दबाव रहता है और बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिल पाती है.

डीएसपीएमयू के प्रोफेसर जेपी शर्मा की राय

निजी स्कूल से ज्यादा सरकारी स्कूल के बच्चों पर खर्च

इसको समझना बहुत आसान है. झारखंड के सरकारी स्कूलों में यानी कक्षा 1 से कक्षा 12 तक करीब 44 लाख बच्चे एनरोल्ड हैं. इनमें से करीब 35 लाख बच्चे रेगूलर हैं. सरकार का शिक्षा बजट करीब 11 हजार करोड़ से ज्यादा का है. यह राशि 1.19 लाख शिक्षकों/पारा शिक्षकों के वेतन, मिड डे मील, पोशाक, पुस्तक, अन्य रख-रखाव आदि पर खर्च की जाती है. इस हिसाब से 35 लाख बच्चों पर 11 हजार करोड़ के हिसाब से प्रतिवर्ष एक छात्र या छात्रा पर 31,428 रुपए खर्च किए जा रहे हैं. यानी प्रति माह एक छात्र-छात्रा पर 2,519 रुपए खर्च होता है.

अब इसकी तुलना निजी स्कूलों में पढ़ाई के नाम पर होने वाले खर्च से करने पर तस्वीर बिल्कुल साफ हो जाएगी. झारखंड के रांची, धनबाद, बोकारो, जमशेदपुर, देवघर और हजारीबाग जैसे शहरों में संचालित प्राइवेट स्कूलों में ट्यूशन फीस मद में प्रतिमाह औसतन 1,500 से लेकर 2,500 रुपए देने पड़ते हैं. इससे साफ है कि सरकारी स्कूल के बच्चों पर निजी स्कूलों में की तुलना में ज्यादा पैसे खर्च हो रहे हैं. फिर भी रिजल्ट की स्थिति दयनीय है. इसकी वजह शिक्षक हैं या बच्चे या अभिभावक, यह समीक्षा का विषय है.

कुछ चुभने वाले सवाल

सरकारी स्कूलों के 800 से ज्यादा शिक्षक रांची जिला के स्कूलों में ट्रांसफर लेना चाहते हैं. निजी स्कूलों में बच्चों का दाखिला दिलाने के लिए अभिभावकों को चप्पल घिसने पड़ते हैं. तरह-तरह की पैरवी होती है लेकिन क्या आपने सुना है कि किसी सरकारी स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए किसी को पैरवी करनी पड़ी हो. अलग-अलग न्यायालयों में शिक्षा विभाग से जुड़े करीब 3000 मामले हैं. इसके निपटारे में न सिर्फ मानव संसाधन बल्कि राजस्व की भी क्षति होती है. जाहिर सी बात है कि सब कुछ करने के बावजूद क्यों झारखंड के सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था लड़खड़ाती जा रही है.

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