रांची: देश में चल रहे राष्ट्रपति चुनाव की सियासत में झारखंड की राजनीति इस रूप में सबसे ऊपर है कि जो 2 नाम राष्ट्रपति के चुनाव की रेस में है वह दोनों झारखंड से जुड़े हैं. लेकिन एक और राजनीति जो परिवार की व्यवस्था और व्यवस्था में परिवार की कहानी का द्वंद लिए इस रूप में खड़ी है जहां पिता का हार पुत्र की जीत का सेहरा होगा और पिता की जीत के लिए दुआ मांगना बेटे के लिए पुत्र धर्म. लेकिन कर्म का धर्म ऐसा है कि पिता को हराने के लिए ही पुत्र को वोट करना है और संभवत भारतीय राजनीति में राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए यह पहला मौका है कि पिता को हराने के लिए पुत्र वोट देगा.
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बेटे के पार्टी की जीत, पिता की हार: राष्ट्रपति के चुनाव के लिए बीजेपी ने झारखंड की राज्यपाल रही द्रौपदी मुर्मू को अपना उम्मीदवार बनाया है. जबकि विपक्ष के राजनीतक दलों ने देश के कद्दावर नेता यशवंत सिन्हा को अपना उम्मीदवार बना दिया है. उम्मीदवारी की दावेदारी और जीत हार की जिम्मेदारी को लेकर राजनीतिक दलों की चर्चा शुरू हुई तो हजारीबाग से एक ऐसी राजनीति ने देश के फलक पर जन्म लिया है जो शायद इससे पहले भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में नहीं हुआ है. राज्य की राजनीति में परिवार के 2 लोग दो राजनीतिक दलों में हिस्सेदारी दे रहे हैं. यह बात कई जगह पर रही है. चाहे वह सिंधिया परिवार का मामला हो या फिर कहीं और राजनीतिक घराने जहां पिता एक पार्टी में है तो पुत्र दूसरी पार्टी में लेकिन ऐसा शायद ही कहीं भी सुना होगा कि पिता हार जाए इसके लिए पुत्र भी पक्ष में वोट दिया हो और लोकतंत्र में ऐसा हुआ भी होगा तो यह माना जा सकता है को राज्य से आगे नहीं गया होगा. लेकिन देश के सर्वोच्च पद के लिए हो रहे चुनाव में हजारीबाग में कुछ ऐसा ही हो रहा है. जहां पिता की जीत के लिए पुत्र का विपक्ष में वोट देना है या यूं कहा जाए कि बेटे के जीत के लिए पिता को हारना होगा.
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विपक्ष के उम्मीदवार हैं यशवंत सिन्हा: यशवंत सिन्हा विपक्षी राजनीतिक दलों के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार हैं. वहीं उनके बेटे हजारीबाग के सांसद बीजेपी के कद्दावर नेता भी हैं और नरेंद्र मोदी की 2014 में बनी सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं. यशवंत सिन्हा को विपक्ष ने जब उम्मीदवार बनाया तो सवाल यह खड़ा हुआ की जयंत सिन्हा का राजनीतिक डगर क्या होगी. कहीं पिता के लिए पार्टी के लाइन से अलग हटकर जयंत सिन्हा तो वोट नहीं करेंगे. इसको लेकर सवाल भी कई और कयास भी कई हालांकि अब स्वयं जयंत सिन्हा ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि वह भाजपा के सांसद हैं और जो पार्टी की लाइन होगी वह उसी पर जाएंगे. तो मामला साफ है कि पार्टी ने जो अपना उम्मीदवार दिया है जयंत सिन्हा उसके लिए वोट करते हैं तो ये उनके पिता के विपक्ष में ही होगा और यही झारखंड की राजनीति में सबसे ज्यादा चर्चा में भी है. क्योंकि दोनों नाम जो राष्ट्रपति के लिए हैं और झारखंड से गए हैं और जीत में अगर सत्ता पक्ष का परचम लहराता है तो निश्चित तौर पर यह माना जाएगा की पुत्र की पार्टी की जीत उनके पिता की हार का कारण बनी है.
पार्टी लाइन के साथ जाएंगे जयंत सिन्हा: यशवंत सिन्हा के बेटे जयंत सिन्हा ने इस बात को स्पष्ट कर दिया की पार्टी लाइन के साथ ही जाएंगे और विधिवत इसका उन्होंने बयान भी जारी कर दिया लेकिन एक द्वंद जो जयंत सिन्हा के घर में है जो परिवार के साथ चल रहा है वह इतना शालीन और इतना है इतना कठोर है कि जिस अंगुली को पकड़कर जयंत सिन्हा चलना सीखे हैं. जिन हाथों ने उन्हें गिरने पर उठाया है जिंदगी में जीतने का हुनर सिखाया है. आज उसी की हार के लिए जयंत सिन्हा जीत का वोट देने जा रहे हैं. सियासत में यही बातें शायद राजनीति के लिए माकूल शब्द में होती है और राजनीति यहीं से अपने लिए वह मुकाम बना लेती है कि राजनीति में न कोई अपना होता है न पराया होता है. लेकिन बरबस एक सवाल मन में उठ रहा है कि जयंत की मां यशवंत सिन्हा की पत्नी अगर बेटे से पूछेंगे कि पिता का क्या होगा तो शायद उत्तर में बेटा ऐसा जवाब दे दे जो मां को नागवार गुजरे क्योंकि हारने वाला माला उस पति को पहनना है जिसे सिर्फ जीतने का हर सपना पत्नी अपने आंखों में सजाए रहती है. लेकिन उस पत्नी और मां की कहानी भी हजारीबाग के उस घर में बड़ी अजीब है जहां बेटा पिता को हारने के लिए ही वोट देगा. बेटे की जीत पर वह वह मां इतरायेगी आएगी या फिर पति की हार पर गुमसुम होकर बैठ जाएगी.
पिता की हार में बेटे की जीत: यह तो चुनाव परिणाम के बाद तय होगा लेकिन एक कशमकश तो परिवार के भीतर इस रूप में उठ ही गया है कि पिता की हार में बेटे की जीत है और बेटे को जीतने के लिए पिता के विपक्ष में वोट करना होगा. यह बिल्कुल तय है और यह सब कुछ हजारीबाग के एक घर में चल रहा है. जो देश के सबसे बड़े पद के मतदान का स्वरूप है और पिता पुत्र के संबंधों की एक ऐसी कहानी जो शायद पता नहीं कब और कितने दिनों बाद लिखी जाएगी. क्योंकि राजनीति में अस्थाई कुछ भी नहीं है अपना कोई नहीं है बस अपने जैसों की कमी नहीं है लेकिन वह भी राजनीति के शब्दावली के अनुसार ही देखा जाएगा. अब देखना है कि राष्ट्रपति के चुनाव में जयंत सिन्हा पिता के विपक्ष में वोट देकर पिता को जीतना देख देख पाते हैं या फिर पार्टी की जीत में खुश होकर पिता के हार को कड़वे घूंट में पी जाते हैं. राजनीति है करनी तो पड़ेगी ही.