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सभ्यता और संस्कृति का प्रतिक सोहराय पर्व, मानव और पशुओं के बीच बनाता है गहरा संबंध - जमशेदपुर में सोहराय पर्व

आदिवासी समाज का सोहराय पर्व कलाकृति का पर्व कहा जाता है. प्रकृति की पूजा करने वाला आदिवासी समाज की परंपरा और संस्कृति की अलग पहचान है. इस पर्व में महिलाएं अपने घरों को कलाकृति के माध्यम से सजाने संवारने का काम करती हैं. हर साल कार्तिक मास में मनाए जाने वाला सोहराय पर्व संथाल समाज में प्रमुखता से मनाया जाता है.

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Published : Nov 18, 2020, 5:47 PM IST

जमशेदपुर: भारत को गांवों का देश कहा जाता है और इस देश में रहने वाले अलग-अलग भाषा समुदाय की अपनी संस्कृति और परंपरा है, जो साल के बारह महीनों में समय समय पर देखने को मिलती है और उनके जरिये समाज को एक संदेश भी मिलता है. ऐसा ही एक आदिवासी समाज का सोहराय पर्व है, इसे कलाकृति का पर्व कहा जाता है.

देखिए पूरी खबर

कलाकृति का पर्व सोहराय

प्रकृति की पूजा करने वाला आदिवासी समाज की परंपरा और संस्कृति की अलग पहचान है. इस पर्व में महिलाएं अपने घरों को कलाकृति के माध्यम से सजाने संवारने का काम करती है. हर साल कार्तिक मास में मनाए जाने वाला सोहराय पर्व संथाल समाज में प्रमुखता से मनाया जाता है. पांच दिनों तक मनाए जाने वाला यह पर्व कृषि से जुड़ा है. पोटका गांव के ग्रामीण ईश्वर सोरेन बताते हैं कि सोहराय में घरों का रंग-रोगन करना उन्हें सजाना पुरानी परंपरा है. इस पर्व में पशुओं की पूजा की जाती है.

मिट्टी से बने रंग का उपयोग

गांव में बने मिट्टी के घर आज भी मजबूत और खूबसूरती के साथ नजर आते हैं. इन घरों में महंगे पेंट्स का नहीं बल्कि ग्रामीण महिलाएं मिट्टी से रंग बनाकर रंगाई पुताई करती हैं. सोहराय के मौके पर पूरा गांव रंगों में डूब जाता है. गांव की सबीना मुर्मू बताती हैं कि मिट्टी से बने रंग पर पूरा भरोसा है वो खुद से रंग बनाकर अलग अलग डिजाइन बनाती हैं, जबकी लाहा सोरेन का मानना है कि इस पुरानी परंपरा को आज की पीढ़ी भी अपना रही है उनके द्वारा घरों के बाहर पहले की अपेक्षा अलग-अलग तरह के डिजाइन बनाये जा रहे हैं.

ये भी पढे़ं: छात्रवृत्ति घोटालाः CID ने पुलिस से मांगा ब्यौरा, सरकार के आदेश के बाद शुरू कर सकती है जांच

पशुओं की पूजा

बता दें कि सालों भर किसान अपने पशु के साथ मिलकर खेती करते हैं और कार्तिक मास में दोनों कुछ समय के लिए आराम करते हैं उनकी वापसी पर ग्रामीण महिलाएं घरों को सजाती संवारती हैं और उनकी पूजा भी करती हैं. आज भले ही हम आधुनिक युग की बात कर रहे है, लेकिन आदिवासी समाज में आज की युवा पीढ़ी सोहराय पर्व में अपना पूरा समय देती हैं. कम्प्यूटर की छात्रा पूर्णिमा मुर्मू ने अपनी सोच को घर के बाहर दीवारों पर उकेरा है, जो किसी बड़े पेंटर के काम से कम नहीं है उसका कहना है कि अपनी पुरानी कला संस्कृति को बचाना युवा पीढ़ी की जिम्मेदारी है, जो वो निभा रही है.

बहरहाल, कोरोला काल में आदिवासियों द्वारा मनाए जाने वाला सोहराय पर्व में किसी भी तरह के आयोजन पर रोक लगी है, लेकिन कच्चे मकान की मजबूत इरादों के दीवारों पर ग्रामीणों द्वारा सजाए जाने वाले रंग की खूबसूरती आज भी बरकरार है, जो उनकी परंपरा और संस्कृति की पहचान है.

जमशेदपुर: भारत को गांवों का देश कहा जाता है और इस देश में रहने वाले अलग-अलग भाषा समुदाय की अपनी संस्कृति और परंपरा है, जो साल के बारह महीनों में समय समय पर देखने को मिलती है और उनके जरिये समाज को एक संदेश भी मिलता है. ऐसा ही एक आदिवासी समाज का सोहराय पर्व है, इसे कलाकृति का पर्व कहा जाता है.

देखिए पूरी खबर

कलाकृति का पर्व सोहराय

प्रकृति की पूजा करने वाला आदिवासी समाज की परंपरा और संस्कृति की अलग पहचान है. इस पर्व में महिलाएं अपने घरों को कलाकृति के माध्यम से सजाने संवारने का काम करती है. हर साल कार्तिक मास में मनाए जाने वाला सोहराय पर्व संथाल समाज में प्रमुखता से मनाया जाता है. पांच दिनों तक मनाए जाने वाला यह पर्व कृषि से जुड़ा है. पोटका गांव के ग्रामीण ईश्वर सोरेन बताते हैं कि सोहराय में घरों का रंग-रोगन करना उन्हें सजाना पुरानी परंपरा है. इस पर्व में पशुओं की पूजा की जाती है.

मिट्टी से बने रंग का उपयोग

गांव में बने मिट्टी के घर आज भी मजबूत और खूबसूरती के साथ नजर आते हैं. इन घरों में महंगे पेंट्स का नहीं बल्कि ग्रामीण महिलाएं मिट्टी से रंग बनाकर रंगाई पुताई करती हैं. सोहराय के मौके पर पूरा गांव रंगों में डूब जाता है. गांव की सबीना मुर्मू बताती हैं कि मिट्टी से बने रंग पर पूरा भरोसा है वो खुद से रंग बनाकर अलग अलग डिजाइन बनाती हैं, जबकी लाहा सोरेन का मानना है कि इस पुरानी परंपरा को आज की पीढ़ी भी अपना रही है उनके द्वारा घरों के बाहर पहले की अपेक्षा अलग-अलग तरह के डिजाइन बनाये जा रहे हैं.

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पशुओं की पूजा

बता दें कि सालों भर किसान अपने पशु के साथ मिलकर खेती करते हैं और कार्तिक मास में दोनों कुछ समय के लिए आराम करते हैं उनकी वापसी पर ग्रामीण महिलाएं घरों को सजाती संवारती हैं और उनकी पूजा भी करती हैं. आज भले ही हम आधुनिक युग की बात कर रहे है, लेकिन आदिवासी समाज में आज की युवा पीढ़ी सोहराय पर्व में अपना पूरा समय देती हैं. कम्प्यूटर की छात्रा पूर्णिमा मुर्मू ने अपनी सोच को घर के बाहर दीवारों पर उकेरा है, जो किसी बड़े पेंटर के काम से कम नहीं है उसका कहना है कि अपनी पुरानी कला संस्कृति को बचाना युवा पीढ़ी की जिम्मेदारी है, जो वो निभा रही है.

बहरहाल, कोरोला काल में आदिवासियों द्वारा मनाए जाने वाला सोहराय पर्व में किसी भी तरह के आयोजन पर रोक लगी है, लेकिन कच्चे मकान की मजबूत इरादों के दीवारों पर ग्रामीणों द्वारा सजाए जाने वाले रंग की खूबसूरती आज भी बरकरार है, जो उनकी परंपरा और संस्कृति की पहचान है.

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