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चाइनीज चकाचौंध के सामने दम तोड़ रही मिट्टी के दीयों की कलाकृति

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Published : Oct 26, 2019, 8:03 PM IST

दिवाली के मौके पर, जब लोग अपने घरों को रोशन करते हैं, प्राचीन काल से मिट्टी के उपकरण और दीये बनाने वाला कुम्हार तबका आर्थिक तंगी का सामना कर रहा है.

मिट्टी के दीप

पटना : सुख और समृद्धि का त्यौहार दीपावली केवल लोगों के घरों को ही नहीं बल्कि उनकी जिंदगी को रोशन कर देता है. माना जाता है कि जब भगवान राम 14 साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटे तो, लोगों ने दीपक जलाकर उनका स्वागत किये और उनके लौट आने की खुशी मनायी थी.

वहीं दीये, जिन्हें कभी भगवान राम के आगमन पर अयोध्या को रोशन करने के लिए जलाया गया थे. आज आहिस्ता-आहिस्ता अंधेरे में गुम होते जा रहे हैं. इन बुझते दीयों के साथ-साथ कुम्हार तबके पर लगा माली वनवास भी धीरे धीरे बढ़ने लगा है.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

प्राचीन काल से मिट्टी के उपकरण बना रहे कुम्हार अपनी इस कलाकृति से, अपने के लिए दो वक्त के खाने का बंदोबस्त करते हैं, लेकिन बदलते समय में चकाचौंध से लबरेज चीनी रोशनी के सामने मिट्टी के दीये खत्म हो रहे हैं और कई कुम्हारों का भविष्य मंद रोशनी में खो सा गया है.

बिहार रे अररिया जिले के गाछ में कुम्हार समुदाय का एक समूह है, जिनका पारिवारिक व्यवसाय मिट्टी के बर्तन बनाना है. वह सदियों से ये काम करते आ रहे हैं, इसी काम से उनका घर चलता है.

एक तरफ जहां, प्राचीन काल के दिए हैं, तो दूसरी को चकाचौंध कर देने वाले सामान बाजार में मौजूद हैं.

पढ़ें- 5 लाख 51 हजार दीयों से जगमगाया अयोध्या

इसके अलावा लोग भी दीये की जगह चाइनीज लाइट से अपने घरों व प्रतिष्ठानों को सजा रहे हैं. इसकी वजह से दीयों की बिक्री में भारी गिरावट आई है और कुम्हारों के घरों में दिवाली से ठीक पहले अंधेरा पसरा पड़ा है.

मिट्टी के दीये की बाजार में मांग न होने के कारण कुम्हारों की लागत तक नहीं निकल पाती.

टिमटिमाती रोशनी ने इन कुम्हारों के रोजगार को पूरी तरह से खत्म कर दिया है. दूसरों के घरों को रोशन करने वाले कुम्हार आज असहाय और गरीबी के अंधेरे में जीने को मजबूर हो गये हैं.

पढ़ें - अयोध्या में दीपोत्सव बनाएगा विश्व रिकॉर्ड, जानिए क्या है खास तैयारी

धीरे-धीरे दम तोड़ती प्राचीनकाल की इस परम्परा पर न तो लोगों और न ही सरकार का कोई ध्यान है. सरकार इन कुम्हारों के लिए न तो रोजगार का प्रबंध कर रही है और न ही कोई सब्सिडी दे रही है.

आर्थिक तंगी से गुजरते इन कुम्हारों का कहना है कि आने वाले दिनों में काम पूरी तरह से बंद हो जाएगा.दीये बनाने वाले खुशी कुमार पंडित का कहना है कि पहले इस काम में अच्छा मुनाफा था, लेकिन अब इसकी लागत बढ़ गई है और मुनाफा कम हो गया है.

सवाल यह है कि जहां कुम्हार अपने पूर्वजों के प्राचीन चिह्न को संरक्षित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर लोग, विशेष रूप से नई पीढ़ी, इस कला का गला घोंट रही है.

अब देखना यह होगा कि साल दर साल दम तोड़ रही इस कला को कुम्हार तबका कब तक संजो कर रख पाएगा.

पटना : सुख और समृद्धि का त्यौहार दीपावली केवल लोगों के घरों को ही नहीं बल्कि उनकी जिंदगी को रोशन कर देता है. माना जाता है कि जब भगवान राम 14 साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटे तो, लोगों ने दीपक जलाकर उनका स्वागत किये और उनके लौट आने की खुशी मनायी थी.

वहीं दीये, जिन्हें कभी भगवान राम के आगमन पर अयोध्या को रोशन करने के लिए जलाया गया थे. आज आहिस्ता-आहिस्ता अंधेरे में गुम होते जा रहे हैं. इन बुझते दीयों के साथ-साथ कुम्हार तबके पर लगा माली वनवास भी धीरे धीरे बढ़ने लगा है.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

प्राचीन काल से मिट्टी के उपकरण बना रहे कुम्हार अपनी इस कलाकृति से, अपने के लिए दो वक्त के खाने का बंदोबस्त करते हैं, लेकिन बदलते समय में चकाचौंध से लबरेज चीनी रोशनी के सामने मिट्टी के दीये खत्म हो रहे हैं और कई कुम्हारों का भविष्य मंद रोशनी में खो सा गया है.

बिहार रे अररिया जिले के गाछ में कुम्हार समुदाय का एक समूह है, जिनका पारिवारिक व्यवसाय मिट्टी के बर्तन बनाना है. वह सदियों से ये काम करते आ रहे हैं, इसी काम से उनका घर चलता है.

एक तरफ जहां, प्राचीन काल के दिए हैं, तो दूसरी को चकाचौंध कर देने वाले सामान बाजार में मौजूद हैं.

पढ़ें- 5 लाख 51 हजार दीयों से जगमगाया अयोध्या

इसके अलावा लोग भी दीये की जगह चाइनीज लाइट से अपने घरों व प्रतिष्ठानों को सजा रहे हैं. इसकी वजह से दीयों की बिक्री में भारी गिरावट आई है और कुम्हारों के घरों में दिवाली से ठीक पहले अंधेरा पसरा पड़ा है.

मिट्टी के दीये की बाजार में मांग न होने के कारण कुम्हारों की लागत तक नहीं निकल पाती.

टिमटिमाती रोशनी ने इन कुम्हारों के रोजगार को पूरी तरह से खत्म कर दिया है. दूसरों के घरों को रोशन करने वाले कुम्हार आज असहाय और गरीबी के अंधेरे में जीने को मजबूर हो गये हैं.

पढ़ें - अयोध्या में दीपोत्सव बनाएगा विश्व रिकॉर्ड, जानिए क्या है खास तैयारी

धीरे-धीरे दम तोड़ती प्राचीनकाल की इस परम्परा पर न तो लोगों और न ही सरकार का कोई ध्यान है. सरकार इन कुम्हारों के लिए न तो रोजगार का प्रबंध कर रही है और न ही कोई सब्सिडी दे रही है.

आर्थिक तंगी से गुजरते इन कुम्हारों का कहना है कि आने वाले दिनों में काम पूरी तरह से बंद हो जाएगा.दीये बनाने वाले खुशी कुमार पंडित का कहना है कि पहले इस काम में अच्छा मुनाफा था, लेकिन अब इसकी लागत बढ़ गई है और मुनाफा कम हो गया है.

सवाल यह है कि जहां कुम्हार अपने पूर्वजों के प्राचीन चिह्न को संरक्षित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर लोग, विशेष रूप से नई पीढ़ी, इस कला का गला घोंट रही है.

अब देखना यह होगा कि साल दर साल दम तोड़ रही इस कला को कुम्हार तबका कब तक संजो कर रख पाएगा.

Intro:مٹی کے دیئے بنانے والے کمہار مفلسی کی زندگی گزارنے پر ہیں مجبور

ارریہ : دیوالی ایک مذہبی اور ہندو بھائیوں کے لئے عقیدت کا تہوار ہے، اس تہوار میں لوگ اپنے گھروں کو روشن کرتے ہیں، مانا جاتا ہے بھگوان رام کے چودہ سال کے بنواس کے بعد ان کے استقبال میں گھروں میں مٹی کے دیئے روشن کر کے خوشی منائی گئی تھی. مگر ان خوشیوں میں آج ایک ایسا طبقہ بھی ہے جس کے روزگار کا بنواس ختم ہونے کا نام نہیں لے رہا اور آہستہ آہستہ وہ اندھیرے میں کھوتے جا رہے ہیں. جی ہاں...... یہ طبقہ کمہار کا ہے جو قدیم زمانے سے مٹی کے ساز و سامان بناتے آ رہے ہیں، اسی فن کے کام سے کمہار اپنے لئے دو وقت کی روٹی کا نظم کرتا ہے. مگر اب بدلتے وقت میں چکاچوندھ کرنے والی چائنیز لائٹ کے سامنے مٹی کے دیئے کا لو ختم ہوتا جا رہا ہے اور مدھم پڑتے اس لو میں کئی کمہار کا مستقبل تاریک ہوتا جا رہا ہے.


Body:مٹی کے دیئے بنانے والے یہ کمہار ارریہ کے گاچھی ٹولہ باشندہ ہیں، یہ ان کا خاندانی پیشہ ہے جسے یہ صدیوں سے کرتے آ رہے ہیں، اسی روزگار سے ان کا گھر چلتا ہے. ایک جانب قدیم زمانے کے دیئے ہیں تو دوسری جانب آنکھوں کو چوندھیا دینے والے بازار میں دستیاب قمقمے. عوام بھی مٹی کے دیئوں کے بجائے چئینز لائٹ سے اپنے گھروں کو سجا سنوار رہے ہیں جس کا اثر مٹی کے دیئوں پر ہوا ہے اور اس کے فروخت میں بے تحاشا کمی آئی ہے، جس سے کمہاروں کے گھر میں اندھیرا پسرا ہے، مٹی کے دیئے کے مانگ نہ ہونے سے ان کمہاروں کے لاگت بھی وصول نہیں ہو رہے ہیں. جگمگاتی لائٹ نے ان کمہاروں کے روزگار بالکل ٹھپ کر دیا ہے. دوسروں کے گھروں کو روشن کرنے والے کمہار آج خود ہی لاچاری اور مفلسی کے اندھیروں میں جینے پر مجبور ہے.


Conclusion:قدیم زمانے کی ختم ہوتی روایت پر نہ ہی عوام اور نہ حکومت کی کوئی توجہ ہے، حکومت کی جانب سے بھی ان کمہاروں کے روزگار کے لئے کوئی سبسڈی نہیں دی جاتی تو آخر اس مہنگائی کے دور میں ان کمہاروں کی کمر ٹوٹ رہی ہے، حکومت کے عدم توجہی کے شکار ان کمہاروں کا کہنا ہے آنے والے دنوں میں اس کام کو پوری طرح سے بند کر دیا جائے گا. کمہار خوشی کمار پنڈت کہتے ہیں پہلے اس کام میں اچھا منافع تھا مگر اب لاگت سے زیادہ خرچ ہے، بس خاندانی پیشے کی وجہ سے لے کر چل رہے ہیں. مارکیٹ میں اس وقت چھوٹا دیا 100 روپیہ سینکڑا فروخت ہو رہا ہے جبکہ اس میں 70 سے 80 روپے کا لاگت ہے.
سوال یہ ہے کہ ایک طرف جہاں کمہار اپنے اجداد کے قدیم نشانی کو بچانے کی جدوجہد کر رہے ہیں تو دوسری جانب عوام بالخصوص نئی نسل اس فن کا گلا گھونٹ رہی ہے، جوابدہی حکومت پر بھی ہے وہ اس فن کو بچانے اور بڑھاوا دینے کے لئے کوئی اہم منصوبہ کیوں نہیں بنا رہی ہے. آخر بے روشن ہوتے ان کمہاروں کے گھروں کو روشن کرنے کی ذمہ داری کس کی ہے.......???

پی ٹو سی............ عارف اقبال
بائٹ.... خوشی لال پنڈت، کمہار (پہچان، بلو شرٹ پہنے ہوئے)
بائٹ.... اشوک کمار پنڈت ، کمہار (پہچان، نارنگی شرٹ پہنے ہوئے)
بائٹ.... سونی مسومات، کمہار (پہچان، منہہ میں پان)
بائٹ..... کندن پنڈت ، کمہار (پہچان، سفید لائن والی شرٹ پہنے ہوئے)
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