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चीन की तेजी से बढ़ रही विस्तारवादी नीति को कुंद करना चाहता है भारत

काफी तनाव और खूनी संघर्ष के बाद भारत और चीन आपसी तनाव को कम करना चाहते हैं. दोनों देशों के बीच 45 वर्ष में पहली बार इस तरह का खूनी संघर्ष हुआ. इसके बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत ने चीन को करारा जवाब दिया है. इतना ही नहीं भारत अब चीन की विस्तारवादी नीतियों को कुंद करने की योजना बना रहा है. इस विषय पर आइए पढ़ते हैं पूरा विश्लेषण...

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Published : Aug 3, 2020, 2:48 PM IST

नई दिल्ली : भारत और चीन इस साल जून में लद्दाख क्षेत्र में एक खूनी संघर्ष के बाद तनाव को कम करने की कोशिश कर रहे हैं. दोनों एशियाई दिग्गजों के बीच सीमा पर 45 वर्ष में पहली बार जानलेवा हमले हुए थे. अब नई दिल्ली बीजिंग की तेज विस्तारवादी नीतियों को कुंद करने की योजना बना रहा है.

रिपोर्टों के अनुसार भारत का नया शिक्षा मंत्रालय भारतीय शैक्षिक संस्थानों के साथ मिलकर चीन के कन्फ्यूशियस संस्थान के स्थानीय अध्यायों की समीक्षा करने के लिए तैयार है. कन्फ्यूशियस संस्थान चीन और अन्य देशों में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के बीच सार्वजनिक शैक्षिक भागीदारी हैं. पार्टनरशिप वित्त पोषित है और हनबन (आधिकारिक तौर पर चीनी भाषा परिषद इंटरनेशनल का कार्यालय) का हिस्सा है, जो खुद चीनी शिक्षा मंत्रालय से संबद्ध है. कार्यक्रम का घोषित उद्देश्य चीनी भाषा और संस्कृति को बढ़ावा देना, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थानीय चीनी शिक्षण का समर्थन करना और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की सुविधा प्रदान करना है. जिन देशों में यह संचालित हो रहा है, वहां बढ़ते चीनी प्रभावों की चिंताओं के कारण संगठन बहुत आलोचनाओं के घेरे में आ गया है.

कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट कार्यक्रम 2004 में शुरू हुआ और यह हनबन द्वारा समर्थित है, जिसका अलग-अलग विश्वविद्यालयों द्वारा निरीक्षण किया जाता है. संस्थान दुनियाभर के स्थानीय संबद्ध कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के साथ सहयोग करता है और इसका खर्च हनन और मेजबान संस्थानों के बीच साझा किया जाता है.

बीजिंग फ्रांस के एलायंस फ्रैंकेइस और जर्मनी के गोएथे-इंस्टीट्यूट जैसी अन्य देशों की भाषा और संस्कृति को बढ़ावा देने संस्थाओं के तर्ज पर कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट प्रोग्राम को पेश करने की कोशिश करता है. हालांकि, एलायंस फ्रैंकेइस और गोएथे-इंस्टीट्यूट के विपरीत, जो स्वतंत्र रूप से अन्य देशों में संचालित होते हैं, कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट अन्य देशों में स्थानीय संस्थानों के साथ मिलकर चीनी सरकार की वित्तीय सहायता से काम करते हैं.

विशेषज्ञों का कहना है कि कन्फ्यूशियस संस्थान कार्यक्रम बीजिंग की "शार्प पॉवर" विस्तारवादी नीति का एक हिस्सा है. एक देश द्वारा शार्प पॉवर का उपयोग दूसरे लक्षित देश की राजनीतिक प्रणाली को प्रभावित करने और उसे कम करने के लिए जाता है. यह शब्द अमेरिका के नेशनल एंडॉवमेंट फोर डेमोक्रेसी द्वारा लोकतंत्रवादी देशों में तानाशाही सरकार द्वारा प्रक्षेपण के रूप में नियोजित आक्रामक और विध्वंसक नीतियों का वर्णन करने के लिए बनाया गया था. ऐसी नीतियां जिन्हें हार्ड पावर या सॉफ्ट पावर के रूप में वर्णित नहीं किया जा सकता है.

भारत का शिक्षा मंत्रालय अब कन्फ्यूशियस संस्थान अध्यायों को स्थापित करने के लिए प्रमुख शैक्षिक संस्थानों और चीनी संस्थानों के बीच सहमति ज्ञापनों (एमओयू) की समीक्षा करने की योजना बना रहा है. ईटीवी भारत से बात करते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) के चीनी और दक्षिण पूर्व एशियाई अध्ययन केंद्र के अध्यक्ष बी.आर. दीपक ने कहा कि कन्फ्यूशियस संस्थानों का उपयोग बीजिंग द्वारा अन्य देशों के उदार तंत्र में प्रवेश करने के लिए किया जाता है.

जेएनयु और पेकिंग विश्वविद्यालय के बीच इस तरह के संस्थान की स्थापना के लिए 2005 में हुए समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के पांच वर्ष के बाद इसकी अवधि समाप्त हो गई है. हालांकि पेकिंग विश्वविद्यालय समझौते को लागू करने को उतावला है. जेएनयू का कहना है कि क्यों कि वह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तहत कार्य करता है, इस तरह के संस्थान की स्थापना नहीं कर सकता है. दीपक ने कहा, "जेएनयू ने हनबन और चीनी दूतावास (नई दिल्ली में) को आधिकारिक रूप से सूचित किया है कि वह इस तरह का संस्थान स्थापित करने में दिलचस्पी नहीं रखता है.

"रिपोर्टों के अनुसार, शिक्षा मंत्रालय द्वारा भारत में वेल्लोर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, जालंधर, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी, सोनीपत, स्कूल ऑफ चाइनीज लैंग्वेज, कोलकाता, भारथिअर विश्वविद्यालय, कोयंबटूर और के आर मंगलम विश्वविद्यालय, गुरुग्राम और मुंबई विश्वविद्यालय में कन्फ्यूशियस संस्थानों की स्थापना के प्रस्ताव की समीक्षा की जाएगी. जेएनयू ने यूजीसी के ध्यान में लाया कि इस तरह के चीनी संस्थानों को निजी और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्थापित करने की अनुमति देने में दो मानदंड नहीं होने चाहिए. एक समान नीति होनी चाहिए. अब शिक्षा मंत्रालय इस मुद्दे को उठा रहा है.

दुनियाभर में 500 से अधिक कन्फ्यूशियस संस्थान हैं और अकेले अमेरिका में 100 से अधिक हैं. हालांकि यह संस्थान अपनी “शार्प पॉवर” नीतियों का विस्तार करने के लिए बीजिंग द्वारा उपयोग किए जाने के कारण बदनाम हो रहे हैं.

दीपक ने कहा, "यह संस्थान श्रीलंका और नेपाल, मध्य एशियाई और बाल्कन देशों जैसे छोटे देशों में स्थापित किए गए थे." उन्होंने कहा कि "चीन सरकार के अनुसार, चीनी विश्वविद्यालयों में छात्रवृत्ति तभी मिलेगी जब कन्फ्यूशियस संस्थान द्वारा सिफारिश की जाएगी. हालांकि वह विभिन्न विषयों में छात्रवृत्ति की पेशकश करने का दावा करते हैं. यह ज्यादातर चीनी भाषा में अध्ययन के लिए दी जाती है."

दीपक ने कहा कि अफ्रीका के हजारों छात्र चीनी उच्च शिक्षा संस्थानों में छात्रवृत्ति के लिए आवेदन करते हैं, क्योंकि बीजिंग उस महाद्वीप में अपने प्रभाव का विस्तार करना चाहता है.

उन्होंने कहा, 'अब भारत चीन की शार्प पॉवर विस्तार नीति को कुंद करना चाहता है.'

(लेखक-अरुणिम भूयान)

नई दिल्ली : भारत और चीन इस साल जून में लद्दाख क्षेत्र में एक खूनी संघर्ष के बाद तनाव को कम करने की कोशिश कर रहे हैं. दोनों एशियाई दिग्गजों के बीच सीमा पर 45 वर्ष में पहली बार जानलेवा हमले हुए थे. अब नई दिल्ली बीजिंग की तेज विस्तारवादी नीतियों को कुंद करने की योजना बना रहा है.

रिपोर्टों के अनुसार भारत का नया शिक्षा मंत्रालय भारतीय शैक्षिक संस्थानों के साथ मिलकर चीन के कन्फ्यूशियस संस्थान के स्थानीय अध्यायों की समीक्षा करने के लिए तैयार है. कन्फ्यूशियस संस्थान चीन और अन्य देशों में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के बीच सार्वजनिक शैक्षिक भागीदारी हैं. पार्टनरशिप वित्त पोषित है और हनबन (आधिकारिक तौर पर चीनी भाषा परिषद इंटरनेशनल का कार्यालय) का हिस्सा है, जो खुद चीनी शिक्षा मंत्रालय से संबद्ध है. कार्यक्रम का घोषित उद्देश्य चीनी भाषा और संस्कृति को बढ़ावा देना, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थानीय चीनी शिक्षण का समर्थन करना और सांस्कृतिक आदान-प्रदान की सुविधा प्रदान करना है. जिन देशों में यह संचालित हो रहा है, वहां बढ़ते चीनी प्रभावों की चिंताओं के कारण संगठन बहुत आलोचनाओं के घेरे में आ गया है.

कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट कार्यक्रम 2004 में शुरू हुआ और यह हनबन द्वारा समर्थित है, जिसका अलग-अलग विश्वविद्यालयों द्वारा निरीक्षण किया जाता है. संस्थान दुनियाभर के स्थानीय संबद्ध कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के साथ सहयोग करता है और इसका खर्च हनन और मेजबान संस्थानों के बीच साझा किया जाता है.

बीजिंग फ्रांस के एलायंस फ्रैंकेइस और जर्मनी के गोएथे-इंस्टीट्यूट जैसी अन्य देशों की भाषा और संस्कृति को बढ़ावा देने संस्थाओं के तर्ज पर कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट प्रोग्राम को पेश करने की कोशिश करता है. हालांकि, एलायंस फ्रैंकेइस और गोएथे-इंस्टीट्यूट के विपरीत, जो स्वतंत्र रूप से अन्य देशों में संचालित होते हैं, कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट अन्य देशों में स्थानीय संस्थानों के साथ मिलकर चीनी सरकार की वित्तीय सहायता से काम करते हैं.

विशेषज्ञों का कहना है कि कन्फ्यूशियस संस्थान कार्यक्रम बीजिंग की "शार्प पॉवर" विस्तारवादी नीति का एक हिस्सा है. एक देश द्वारा शार्प पॉवर का उपयोग दूसरे लक्षित देश की राजनीतिक प्रणाली को प्रभावित करने और उसे कम करने के लिए जाता है. यह शब्द अमेरिका के नेशनल एंडॉवमेंट फोर डेमोक्रेसी द्वारा लोकतंत्रवादी देशों में तानाशाही सरकार द्वारा प्रक्षेपण के रूप में नियोजित आक्रामक और विध्वंसक नीतियों का वर्णन करने के लिए बनाया गया था. ऐसी नीतियां जिन्हें हार्ड पावर या सॉफ्ट पावर के रूप में वर्णित नहीं किया जा सकता है.

भारत का शिक्षा मंत्रालय अब कन्फ्यूशियस संस्थान अध्यायों को स्थापित करने के लिए प्रमुख शैक्षिक संस्थानों और चीनी संस्थानों के बीच सहमति ज्ञापनों (एमओयू) की समीक्षा करने की योजना बना रहा है. ईटीवी भारत से बात करते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) के चीनी और दक्षिण पूर्व एशियाई अध्ययन केंद्र के अध्यक्ष बी.आर. दीपक ने कहा कि कन्फ्यूशियस संस्थानों का उपयोग बीजिंग द्वारा अन्य देशों के उदार तंत्र में प्रवेश करने के लिए किया जाता है.

जेएनयु और पेकिंग विश्वविद्यालय के बीच इस तरह के संस्थान की स्थापना के लिए 2005 में हुए समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के पांच वर्ष के बाद इसकी अवधि समाप्त हो गई है. हालांकि पेकिंग विश्वविद्यालय समझौते को लागू करने को उतावला है. जेएनयू का कहना है कि क्यों कि वह विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तहत कार्य करता है, इस तरह के संस्थान की स्थापना नहीं कर सकता है. दीपक ने कहा, "जेएनयू ने हनबन और चीनी दूतावास (नई दिल्ली में) को आधिकारिक रूप से सूचित किया है कि वह इस तरह का संस्थान स्थापित करने में दिलचस्पी नहीं रखता है.

"रिपोर्टों के अनुसार, शिक्षा मंत्रालय द्वारा भारत में वेल्लोर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, जालंधर, ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी, सोनीपत, स्कूल ऑफ चाइनीज लैंग्वेज, कोलकाता, भारथिअर विश्वविद्यालय, कोयंबटूर और के आर मंगलम विश्वविद्यालय, गुरुग्राम और मुंबई विश्वविद्यालय में कन्फ्यूशियस संस्थानों की स्थापना के प्रस्ताव की समीक्षा की जाएगी. जेएनयू ने यूजीसी के ध्यान में लाया कि इस तरह के चीनी संस्थानों को निजी और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्थापित करने की अनुमति देने में दो मानदंड नहीं होने चाहिए. एक समान नीति होनी चाहिए. अब शिक्षा मंत्रालय इस मुद्दे को उठा रहा है.

दुनियाभर में 500 से अधिक कन्फ्यूशियस संस्थान हैं और अकेले अमेरिका में 100 से अधिक हैं. हालांकि यह संस्थान अपनी “शार्प पॉवर” नीतियों का विस्तार करने के लिए बीजिंग द्वारा उपयोग किए जाने के कारण बदनाम हो रहे हैं.

दीपक ने कहा, "यह संस्थान श्रीलंका और नेपाल, मध्य एशियाई और बाल्कन देशों जैसे छोटे देशों में स्थापित किए गए थे." उन्होंने कहा कि "चीन सरकार के अनुसार, चीनी विश्वविद्यालयों में छात्रवृत्ति तभी मिलेगी जब कन्फ्यूशियस संस्थान द्वारा सिफारिश की जाएगी. हालांकि वह विभिन्न विषयों में छात्रवृत्ति की पेशकश करने का दावा करते हैं. यह ज्यादातर चीनी भाषा में अध्ययन के लिए दी जाती है."

दीपक ने कहा कि अफ्रीका के हजारों छात्र चीनी उच्च शिक्षा संस्थानों में छात्रवृत्ति के लिए आवेदन करते हैं, क्योंकि बीजिंग उस महाद्वीप में अपने प्रभाव का विस्तार करना चाहता है.

उन्होंने कहा, 'अब भारत चीन की शार्प पॉवर विस्तार नीति को कुंद करना चाहता है.'

(लेखक-अरुणिम भूयान)

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