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जानें कैसे 'मिट्टी के बर्तनों' ने दी महिला इंजीनियर को नई पहचान

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Published : Oct 21, 2020, 1:06 PM IST

Updated : Oct 21, 2020, 1:40 PM IST

कश्मीर की एक जूनियर इंजीनियर मिट्टी के बर्तनों के कारण काफी मशहूर हो गई हैं. वह आज अपनी नई अनोखी कला की वजह से लोगों की बीच अपनी एक अलग पहचान बना चुकी है. आईए जानते हैं कि कैसे एक इंजीनियर का झुकाव मिट्टी के बर्तनों की तरफ हुआ. पढ़ें पूरी खबर....

saima shafi pottery
साइमा शफी

श्रीनगर : जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर की रहने वाली साइमा शफी पेशे से सरकारी जूनियर इंजीनियर (जेई) हैं. कुछ साल पहले उन्होंने अपने परिवार के साथ चंडीगढ़ का दौरा किया था. जहां उन्होंने एक ब्रांडेड शोरूम में सुंदर मिट्टी के बर्तन देखे, जिनकी कीमत हजारों में थी, लेकिन मिट्टी के बर्तनों की सुंदरता से साइमा कुछ इस कदर कायल हुईं कि वह उनकी अलग ही दुनिया को बनाने में जुट गईं.

मिट्टी के बर्तनों के कारण काफी मशहूर हैं कश्मीर की जूनियर इंजीनियर साइमा

साइमा बताती हैं कि बर्तन काफी महंगे थे, इस कारण उन्होंने सिर्फ एक बर्तन ही खरीदा. उसी समय साइमा को कश्मीर के क्राल समुदाय का खयाल आया. यह समुदाय हजारों वर्षों से मिट्टी के बर्तन बनाता रहा है, लेकिन इनकी कला आधुनिकता के दौर में दम तोड़ चुकी है. कश्मीर वापसी के बाद बेंगलुरु जाकर आधुनिक तरीके से मिट्टी के बर्तन बनाना सीखे. अब कश्मीर में वह क्राल समुदाय को यह कला मुफ्त में सिखा रही हैं. बता दें कि अब तक इस कला को तीन सौ से अधिक लोग सीख चुके हैं.

सोशल नेटवर्किंग साइटों पर हुई खूब प्रशंसा
साइमा कहती हैं कि उन्होंने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे के खत्म होने से करीब एक हफ्ते पहले अपना काम शुरू किया था. जिसके बाद सोशल नेटवर्किंग साइटों पर उनकी प्रशंसा की गई थी, लेकिन केंद्र सरकार का यह फैसला बाद में यहां लगाए गए प्रतिबंधों के कारण, उन्हें बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा.

पढ़ें: वीडियो : 7801 हीरों से जड़ित इस रिंग को मिली गिनीज बुक में जगह

कोविड-19 ने तोड़ी आशाएं
प्रतिबंधों में कुछ रियायतें भी दी गई थीं, लेकिन तब तक सर्दी आ गई थी. सर्दियों में मिट्टी के बर्तन काम नहीं करते, जिसके बाद साइमा ने उम्मीद जताई थी कि बसंत के आगमन के साथ उनके काम को पुनर्जीवित किया जाएगा, लेकिन वैश्विक कोरोना वायरस के कारण उनकी आशाएं धराशायी हो गई.

माता-पिता के सहयोग से बढ़ी आगे
साइमा बताती हैं कि जब मैंने अपना काम शुरू किया, तो मुझे हर तरफ से प्रोत्साहन मिल रहा था. मैंने अपने माता-पिता को मना लिया था और वे मुझे भरपूर सहयोग हे रहे थे. कश्मीर में मिट्टी के बर्तन उपलब्ध नहीं हैं. मिट्टी से लेकर मशीनों तक, सब कुछ आयात करना पड़ता है.

उम्मीद से बंधा हौसला
यहां उपयोग की जाने वाली मिट्टी टेराकोटा है, जिसका उपयोग आधुनिक मिट्टी के बर्तनों में नहीं किया जाता है. इसलिए मैंने कुछ माल मंगवाया है, लेकिन मेरे पास यह पता लगाने का कोई साधन नहीं था कि मेरा सामान कब आया. तब मुझे माल के बारे में विवरण प्राप्त करने के लिए दिल्ली जाना पड़ा. तब उम्मीद थी कि अगले साल सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन यह कश्मीर है जहां कभी भी कुछ भी हो सकता है.

श्रीनगर : जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर की रहने वाली साइमा शफी पेशे से सरकारी जूनियर इंजीनियर (जेई) हैं. कुछ साल पहले उन्होंने अपने परिवार के साथ चंडीगढ़ का दौरा किया था. जहां उन्होंने एक ब्रांडेड शोरूम में सुंदर मिट्टी के बर्तन देखे, जिनकी कीमत हजारों में थी, लेकिन मिट्टी के बर्तनों की सुंदरता से साइमा कुछ इस कदर कायल हुईं कि वह उनकी अलग ही दुनिया को बनाने में जुट गईं.

मिट्टी के बर्तनों के कारण काफी मशहूर हैं कश्मीर की जूनियर इंजीनियर साइमा

साइमा बताती हैं कि बर्तन काफी महंगे थे, इस कारण उन्होंने सिर्फ एक बर्तन ही खरीदा. उसी समय साइमा को कश्मीर के क्राल समुदाय का खयाल आया. यह समुदाय हजारों वर्षों से मिट्टी के बर्तन बनाता रहा है, लेकिन इनकी कला आधुनिकता के दौर में दम तोड़ चुकी है. कश्मीर वापसी के बाद बेंगलुरु जाकर आधुनिक तरीके से मिट्टी के बर्तन बनाना सीखे. अब कश्मीर में वह क्राल समुदाय को यह कला मुफ्त में सिखा रही हैं. बता दें कि अब तक इस कला को तीन सौ से अधिक लोग सीख चुके हैं.

सोशल नेटवर्किंग साइटों पर हुई खूब प्रशंसा
साइमा कहती हैं कि उन्होंने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे के खत्म होने से करीब एक हफ्ते पहले अपना काम शुरू किया था. जिसके बाद सोशल नेटवर्किंग साइटों पर उनकी प्रशंसा की गई थी, लेकिन केंद्र सरकार का यह फैसला बाद में यहां लगाए गए प्रतिबंधों के कारण, उन्हें बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा.

पढ़ें: वीडियो : 7801 हीरों से जड़ित इस रिंग को मिली गिनीज बुक में जगह

कोविड-19 ने तोड़ी आशाएं
प्रतिबंधों में कुछ रियायतें भी दी गई थीं, लेकिन तब तक सर्दी आ गई थी. सर्दियों में मिट्टी के बर्तन काम नहीं करते, जिसके बाद साइमा ने उम्मीद जताई थी कि बसंत के आगमन के साथ उनके काम को पुनर्जीवित किया जाएगा, लेकिन वैश्विक कोरोना वायरस के कारण उनकी आशाएं धराशायी हो गई.

माता-पिता के सहयोग से बढ़ी आगे
साइमा बताती हैं कि जब मैंने अपना काम शुरू किया, तो मुझे हर तरफ से प्रोत्साहन मिल रहा था. मैंने अपने माता-पिता को मना लिया था और वे मुझे भरपूर सहयोग हे रहे थे. कश्मीर में मिट्टी के बर्तन उपलब्ध नहीं हैं. मिट्टी से लेकर मशीनों तक, सब कुछ आयात करना पड़ता है.

उम्मीद से बंधा हौसला
यहां उपयोग की जाने वाली मिट्टी टेराकोटा है, जिसका उपयोग आधुनिक मिट्टी के बर्तनों में नहीं किया जाता है. इसलिए मैंने कुछ माल मंगवाया है, लेकिन मेरे पास यह पता लगाने का कोई साधन नहीं था कि मेरा सामान कब आया. तब मुझे माल के बारे में विवरण प्राप्त करने के लिए दिल्ली जाना पड़ा. तब उम्मीद थी कि अगले साल सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन यह कश्मीर है जहां कभी भी कुछ भी हो सकता है.

Last Updated : Oct 21, 2020, 1:40 PM IST
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