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किन्नौर जाने के लिए करना पड़ता है इन चट्टानों का सामना, भारत-तिब्बत के बीच व्यापार के लिए बनाया था रास्ता - रास्ता

हिमाचल के किन्नौर जिला में स्थित तरांडा ढांक अपने आप में एक अनोखा ढांक है यदि आप किन्नौर की वादियों में जाना चाहते हैं, तो पहले तरांडा ढांक में बनी बहुत ही खुबसूरत चट्टानों को पार करना पड़ता है

किन्नौर जाने का रास्ता
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Published : Mar 5, 2019, 8:58 PM IST

शिमलाः हिमाचल के किन्नौर जिला में स्थित तरांडा ढांक अपने आप में एक अनोखा ढांक है. यदि आप किन्नौर की वादियों में जाना चाहते हैं तो पहले तरांडा ढांक में बनी बहुत ही खुबसूरत चट्टानों को पार करना पड़ता है. यह ऐसा ढांक है, जो यहां से गुजरने वाले पर्यटकों को रुकने पर मजबूर कर लेता है.

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किन्नौर जाने का रास्ता

पर्यटक यहां पर वाहनों को रोक कर अपने कैमरों में इसकी तस्वीरें कैद कर देते हैं. यह किन्नौर जाते समय ऐसा स्थान है, जो पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित करता है. जो इस मार्ग से पहली बार गुजरता है उसकी सांस थम सी जाती है, क्योंकि मार्ग के साथ लगती चट्टान के नीचे सतलुज नदी भी बहती है, जिससे भय और भी बढ़ जाता है.

नेशनल हाईवे का ये ढाई किलोमीटर का हिस्सा है, जो चट्टानों में तबदील है, इसमें हाईवे को सिर्फ हैंड टूल्स से काटकर बनाया गया है. भारत में अंग्रेजों के समय में तिब्बत को जोड़ने के लिए इस हाईवे का निर्माण शुरू कराया था.

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किन्नौर जाने का रास्ता

उस समय उन्होंने इस मार्ग को बनाने के लिए विस्फोटकों का इस्तेमाल नहीं किया. क्योंकि विस्फोट से चट्टानें हिल जाती और भविष्य में टूट कर गिरने का खतरा बन सकता था. यह देश की पहली ऐसी सड़क है, जिसे बनाने के लिए मशीनों का उपयोग नहीं किया गया. आज 71 साल बाद भी सड़क का ये हिस्सा चट्टान गिरने की वजह से कभी बंद नहीं हुआ, इसकी चटाने भी वैसे की वैसी है. इस चट्टान में सड़क बनाते समय सैंकड़ों मजदूरों की जान भी गई थी.

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जानकारों का कहना है कि आज तक यह पहाड़ी कभी दरकी नहीं है. इसको बनाने के लिए अंग्रजों ने विस्फोट नहीं किए, सिर्फ हैंड टूल्स से ढाई किलोमीटर तक चट्टानें काटकर इस सड़क को बनाया गया है.

बताया जाता है कि अंग्रेज अफसरों ने तिब्बत पर नियंत्रण बनाए रखने और वहां से व्यापार को आगे बढ़ाने के लिए हिंदुस्तान-तिब्बत सड़क बनवाने का फैसला किया था. भारत में ब्रिटिश गवर्नर ने जून 1850 में इसका आदेश जारी किया था, लेकिन यह मार्ग आजादी के 3 साल बाद 1950 में तैयार हुआ था. शिमला से शुरू होने वाला यह नेशनल हाईवे तिब्बत बॉर्डर पर स्थित शिपकी-ला तक जाता है.

शिमलाः हिमाचल के किन्नौर जिला में स्थित तरांडा ढांक अपने आप में एक अनोखा ढांक है. यदि आप किन्नौर की वादियों में जाना चाहते हैं तो पहले तरांडा ढांक में बनी बहुत ही खुबसूरत चट्टानों को पार करना पड़ता है. यह ऐसा ढांक है, जो यहां से गुजरने वाले पर्यटकों को रुकने पर मजबूर कर लेता है.

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किन्नौर जाने का रास्ता

पर्यटक यहां पर वाहनों को रोक कर अपने कैमरों में इसकी तस्वीरें कैद कर देते हैं. यह किन्नौर जाते समय ऐसा स्थान है, जो पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित करता है. जो इस मार्ग से पहली बार गुजरता है उसकी सांस थम सी जाती है, क्योंकि मार्ग के साथ लगती चट्टान के नीचे सतलुज नदी भी बहती है, जिससे भय और भी बढ़ जाता है.

नेशनल हाईवे का ये ढाई किलोमीटर का हिस्सा है, जो चट्टानों में तबदील है, इसमें हाईवे को सिर्फ हैंड टूल्स से काटकर बनाया गया है. भारत में अंग्रेजों के समय में तिब्बत को जोड़ने के लिए इस हाईवे का निर्माण शुरू कराया था.

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किन्नौर जाने का रास्ता

उस समय उन्होंने इस मार्ग को बनाने के लिए विस्फोटकों का इस्तेमाल नहीं किया. क्योंकि विस्फोट से चट्टानें हिल जाती और भविष्य में टूट कर गिरने का खतरा बन सकता था. यह देश की पहली ऐसी सड़क है, जिसे बनाने के लिए मशीनों का उपयोग नहीं किया गया. आज 71 साल बाद भी सड़क का ये हिस्सा चट्टान गिरने की वजह से कभी बंद नहीं हुआ, इसकी चटाने भी वैसे की वैसी है. इस चट्टान में सड़क बनाते समय सैंकड़ों मजदूरों की जान भी गई थी.

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जानकारों का कहना है कि आज तक यह पहाड़ी कभी दरकी नहीं है. इसको बनाने के लिए अंग्रजों ने विस्फोट नहीं किए, सिर्फ हैंड टूल्स से ढाई किलोमीटर तक चट्टानें काटकर इस सड़क को बनाया गया है.

बताया जाता है कि अंग्रेज अफसरों ने तिब्बत पर नियंत्रण बनाए रखने और वहां से व्यापार को आगे बढ़ाने के लिए हिंदुस्तान-तिब्बत सड़क बनवाने का फैसला किया था. भारत में ब्रिटिश गवर्नर ने जून 1850 में इसका आदेश जारी किया था, लेकिन यह मार्ग आजादी के 3 साल बाद 1950 में तैयार हुआ था. शिमला से शुरू होने वाला यह नेशनल हाईवे तिब्बत बॉर्डर पर स्थित शिपकी-ला तक जाता है.



किन्नौर जाने से पहले करना पड़ता इन चटानों का सामना
नेशनल हाईवे अंग्रेजो ने हिंदुस्तान-तिब्बत के बीच व्यापार करने के लिए किया जा रहा था तैयार
मजदूरों ने  हैंड टूल्स से काटकर बनाया था यह मार्ग
रामपुर बुशहर, 5 मार्च मीनाक्षी 
हिमाचल के किन्नौर जिले में स्थित तरांडा ढांक अपने आप में एक अनोखा ढांक है। यदि आप किन्नौर की वादियों में जाना चाहते है तो पहले तरांडा ढांक में बनी  बहुत ही खुबसुरत चटानों को पार करना पड़ता है। यह ऐसा ढांक है जो यहां से गुजरने वाले पर्यटकों को रूकने पर मजबूर कर लेता है। पर्यटक यहां पर वाहनों को रोक कर अपने कैमरों में इसकी तस्वीरें कैद कर देते है। यह किन्नौर जाते समय एसा स्थान है जो पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित करता है। जो इस मार्ग से पहली बार गुजरता है उसकी सांस थम सी जाती है । क्योकि मार्ग के साथ लगती चटान के नीच सतलुज नदी भी बहती है जिससे भय और भी बढ़ जाता है। 
 नेशनल हाईवे का ये ढाई किलोमीटर का हिस्सा है जो चट्‌टानों में तपदील है इसमें हाईवे को सिर्फ हैंड टूल्स से काटकर बनाया गया है। भारत में अंग्रेजों के समय में  तिब्बत को जोड़ने के लिए इस हाईवे का निर्माण शुरू कराया था । 
उस समय उन्होंने इस मार्ग को बनाने के लिए  विस्फोटकों का इस्तेमाल नहीं किया। क्योंकि विस्फोट से चट्‌टानें हिल जाती और भविष्य में टूट- कर गिरने का खतरा बन सकता था। यह देश की पहली ऐसी सड़क है, जिसे बनाने के लिए मशीनों का उपयोग नहीं किया गया।  आज 71 साल बाद भी सड़क का ये हिस्सा चट्‌टान गिरने की वजह से कभी बंद नहीं हुआ, इसकी चटाने भी वैसे की वैसी है। इस चट्टान में सड़क बनाते समय सैकड़ों मजदूरों की जान भी गई थी।  जानकारों का कहना है कि आज तक यह पहाड़ी कभी दरकी नहीं है। इसको बनाने के लिए अंग्रजों ने विस्फोट नहीं किए; सिर्फ हैंडटूल्स से ढाई किमी. तक चट्‌टानें काटकर इस सड़क को बनाया गया है। 
बताया जात है कि अंग्रेज अफसरों ने तिब्बत पर नियंत्रण बनाए रखने और वहां से व्यापार को आगे बढ़ाने के लिए हिंदुस्तान-तिब्बत सड़क बनवाने का फैसला किया था। भारत में ब्रिटिश गवर्नर ने जून 1850 में इसका आदेश जारी किया था। लेकिन यह मार्ग  आजादी के तीन साल बाद 1950 में तैयार हुआ था।  शिमला से शुरू होने वाला यह नेशनल हाईवे  तिब्बत बॉर्डर पर स्थित शिपकी-ला तक जाता है। 


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