शिमलाः हिमाचल के किन्नौर जिला में स्थित तरांडा ढांक अपने आप में एक अनोखा ढांक है. यदि आप किन्नौर की वादियों में जाना चाहते हैं तो पहले तरांडा ढांक में बनी बहुत ही खुबसूरत चट्टानों को पार करना पड़ता है. यह ऐसा ढांक है, जो यहां से गुजरने वाले पर्यटकों को रुकने पर मजबूर कर लेता है.
पर्यटक यहां पर वाहनों को रोक कर अपने कैमरों में इसकी तस्वीरें कैद कर देते हैं. यह किन्नौर जाते समय ऐसा स्थान है, जो पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित करता है. जो इस मार्ग से पहली बार गुजरता है उसकी सांस थम सी जाती है, क्योंकि मार्ग के साथ लगती चट्टान के नीचे सतलुज नदी भी बहती है, जिससे भय और भी बढ़ जाता है.
नेशनल हाईवे का ये ढाई किलोमीटर का हिस्सा है, जो चट्टानों में तबदील है, इसमें हाईवे को सिर्फ हैंड टूल्स से काटकर बनाया गया है. भारत में अंग्रेजों के समय में तिब्बत को जोड़ने के लिए इस हाईवे का निर्माण शुरू कराया था.
उस समय उन्होंने इस मार्ग को बनाने के लिए विस्फोटकों का इस्तेमाल नहीं किया. क्योंकि विस्फोट से चट्टानें हिल जाती और भविष्य में टूट कर गिरने का खतरा बन सकता था. यह देश की पहली ऐसी सड़क है, जिसे बनाने के लिए मशीनों का उपयोग नहीं किया गया. आज 71 साल बाद भी सड़क का ये हिस्सा चट्टान गिरने की वजह से कभी बंद नहीं हुआ, इसकी चटाने भी वैसे की वैसी है. इस चट्टान में सड़क बनाते समय सैंकड़ों मजदूरों की जान भी गई थी.
जानकारों का कहना है कि आज तक यह पहाड़ी कभी दरकी नहीं है. इसको बनाने के लिए अंग्रजों ने विस्फोट नहीं किए, सिर्फ हैंड टूल्स से ढाई किलोमीटर तक चट्टानें काटकर इस सड़क को बनाया गया है.
बताया जाता है कि अंग्रेज अफसरों ने तिब्बत पर नियंत्रण बनाए रखने और वहां से व्यापार को आगे बढ़ाने के लिए हिंदुस्तान-तिब्बत सड़क बनवाने का फैसला किया था. भारत में ब्रिटिश गवर्नर ने जून 1850 में इसका आदेश जारी किया था, लेकिन यह मार्ग आजादी के 3 साल बाद 1950 में तैयार हुआ था. शिमला से शुरू होने वाला यह नेशनल हाईवे तिब्बत बॉर्डर पर स्थित शिपकी-ला तक जाता है.