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पारंपरिक खड्डी पर तैयार की जा रही शॉल, विलुप्त होती इस कला को संजोने का काम कर रहे मंडी के कारीगर - मंडी के कारीगर

प्रदर्शनी में पारंपरिक खड्डी को लाया गया है. जिसमें मंडी के कारीगर पारंपरिक तरीके से खड्डी पर शॉल बनाने के साथ ही शॉल की पट्टी भी तैयार कर रहे हैं. यहीं पर खड्डी में लगाने के लिए धागा भी तैयार किया जा रहा है. भेड़ की ऊन को कातने के लिए खड़िया का इस्तेमाल किया जा रहा है तो वहीं, चरखे पर भी इसे काता जा रहा है.यह सारा काम यही प्रदर्शनी में ही कारीगर कर रहे है.

Shawls being prepared on traditional khadi in mandi, मंडी में पारंपरिक खड्डी पर तैयार की जा रही शॉल
पारंपरिक खड्डी पर तैयार की जा रही शॉल
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Published : Jan 14, 2020, 9:45 PM IST

शिमला: आधुनिकता की दौड़ और मशीनी युग में आज हथकरघा उद्योग विलुप्ती की कगार पर है. गिने चुने लोग ही अब इस व्यवसाय से जुड़े हैं, लेकिन हिमाचल की पारंपरिक खड्डी पर शॉल और पट्टू को बनाने की कला को आज भी कुछ लोगों ने सहेज कर रखा है.

ये पारंपरिक पद्धति है जिसे पहाड़ों पर बर्फबारी के बीच चलने वाली सर्द हवाओं से बचने के लिए ऊनी कपड़े तैयार करने के लिए घरों में इस्तेमाल किया जाता था. एक दौर था जब बहुत से लोग इसके जानकर थे और खड्डी पर शॉल, पट्टी बनाने की कला को जानते थे, लेकिन जैसे-जैसे समय बिता और तकनीकी का विस्तार हुआ उससे इस खड्डी की जगह अलग-अलग हाईटेक मशीनों ने ले ली और खड्डी घरों से विलुप्त हो गई, लेकिन अब इस प्राचीन और पारंपरिक तकनीक से लोगों को रूबरू होने का मौका शिमला के इंदिरा गांधी खेल परिसर में लगी हथकरघा और हस्तशिल्प प्रदर्शनी में मिल रहा है.

वीडियो.

प्रदर्शनी में पारंपरिक खड्डी को लाया गया है. जिसमें मंडी के कारीगर पारंपरिक तरीके से खड्डी पर शॉल बनाने के साथ ही शॉल की पट्टी भी तैयार कर रहे हैं. यहीं पर खड्डी में लगाने के लिए धागा भी तैयार किया जा रहा है. भेड़ की ऊन को कातने के लिए खड़िया का इस्तेमाल किया जा रहा है तो वहीं, चरखे पर भी इसे काता जा रहा है.यह सारा काम यही प्रदर्शनी में ही कारीगर कर रहे है.

इस तैयार किए गए धागे को खड्डी में लगाकर पट्टी तैयार की जा रही है. इस खड्डी पर काम कर रहे मंडी के कारीगर प्रेम सिंह ने कहा कि उनके पूर्वज भी इस काम को करते थे यही वजह है कि उन्होंने भी इस काम को सीखा है और इस परंपरा को आज भी संजो कर रखने में अपनी भागीदारी दे रहे है. उन्होंने बताया कि काफी मेहनत इस काम में लगती है और अब यह कला भी विलुप्त होती जा रही है तो ऐसे में सरकार को इस तरह का प्रयास करना चाहिए.

कारीगर प्रेम सिंह ने बताया कि मंडी में 100 लोग इस काम से जुड़े हैं और पारंपरिक तरीके से खड्डी में शॉल तैयार करने का काम कर रहे हैं. पहले भेड़ की ऊन लाई जाती है और फिर उसे पांरपरिक तरीके से काता जाता है इसके बाद धागा तैयार कर खड्डी में लगता है ओर शॉल,पट्टी तैयार की जाती है.

प्रेम सिंह ने बताया कि आज के युवा अब इस काम को सीखने में रुचि नहीं दिखा रहे. यहां तक कि उन्हें इस खड्डी के बारे में भी कोई जानकारी तक नहीं है. यही वजह है कि वह इस प्रदर्शनी में वह इस खड्डी को लेकर आए है और यहां इसके बारे में जानकारी दे रहे है. प्रदर्शनी में लगे स्टॉल में शॉल की कीमत सबसे अधिक 26 हजार रुपए की है.

एक पट्टी तैयार करने में लगते हैं 15 दिन
खड्डी पर एक पट्टी तैयार करने के लिए 15 दिन का समय लगता है. 15 दिन में पट्टी तैयार होती है तो वहीं शॉल को तैयार करने में 2 महीने का समय लगता है. रंगबिरंगी शॉल के बॉर्डर भी इस खड्डी में ही तैयार किए जाते हैं. ऐसे में मेहनत के इस काम में मेहनताना भी अच्छा मिलना चाहिए.

ये भी पढ़ें- मकर संक्रांति पर तत्तापानी में बना विश्व रिकॉर्ड, एक ही बर्तन में बनी 1995 किलो खिचड़ी

शिमला: आधुनिकता की दौड़ और मशीनी युग में आज हथकरघा उद्योग विलुप्ती की कगार पर है. गिने चुने लोग ही अब इस व्यवसाय से जुड़े हैं, लेकिन हिमाचल की पारंपरिक खड्डी पर शॉल और पट्टू को बनाने की कला को आज भी कुछ लोगों ने सहेज कर रखा है.

ये पारंपरिक पद्धति है जिसे पहाड़ों पर बर्फबारी के बीच चलने वाली सर्द हवाओं से बचने के लिए ऊनी कपड़े तैयार करने के लिए घरों में इस्तेमाल किया जाता था. एक दौर था जब बहुत से लोग इसके जानकर थे और खड्डी पर शॉल, पट्टी बनाने की कला को जानते थे, लेकिन जैसे-जैसे समय बिता और तकनीकी का विस्तार हुआ उससे इस खड्डी की जगह अलग-अलग हाईटेक मशीनों ने ले ली और खड्डी घरों से विलुप्त हो गई, लेकिन अब इस प्राचीन और पारंपरिक तकनीक से लोगों को रूबरू होने का मौका शिमला के इंदिरा गांधी खेल परिसर में लगी हथकरघा और हस्तशिल्प प्रदर्शनी में मिल रहा है.

वीडियो.

प्रदर्शनी में पारंपरिक खड्डी को लाया गया है. जिसमें मंडी के कारीगर पारंपरिक तरीके से खड्डी पर शॉल बनाने के साथ ही शॉल की पट्टी भी तैयार कर रहे हैं. यहीं पर खड्डी में लगाने के लिए धागा भी तैयार किया जा रहा है. भेड़ की ऊन को कातने के लिए खड़िया का इस्तेमाल किया जा रहा है तो वहीं, चरखे पर भी इसे काता जा रहा है.यह सारा काम यही प्रदर्शनी में ही कारीगर कर रहे है.

इस तैयार किए गए धागे को खड्डी में लगाकर पट्टी तैयार की जा रही है. इस खड्डी पर काम कर रहे मंडी के कारीगर प्रेम सिंह ने कहा कि उनके पूर्वज भी इस काम को करते थे यही वजह है कि उन्होंने भी इस काम को सीखा है और इस परंपरा को आज भी संजो कर रखने में अपनी भागीदारी दे रहे है. उन्होंने बताया कि काफी मेहनत इस काम में लगती है और अब यह कला भी विलुप्त होती जा रही है तो ऐसे में सरकार को इस तरह का प्रयास करना चाहिए.

कारीगर प्रेम सिंह ने बताया कि मंडी में 100 लोग इस काम से जुड़े हैं और पारंपरिक तरीके से खड्डी में शॉल तैयार करने का काम कर रहे हैं. पहले भेड़ की ऊन लाई जाती है और फिर उसे पांरपरिक तरीके से काता जाता है इसके बाद धागा तैयार कर खड्डी में लगता है ओर शॉल,पट्टी तैयार की जाती है.

प्रेम सिंह ने बताया कि आज के युवा अब इस काम को सीखने में रुचि नहीं दिखा रहे. यहां तक कि उन्हें इस खड्डी के बारे में भी कोई जानकारी तक नहीं है. यही वजह है कि वह इस प्रदर्शनी में वह इस खड्डी को लेकर आए है और यहां इसके बारे में जानकारी दे रहे है. प्रदर्शनी में लगे स्टॉल में शॉल की कीमत सबसे अधिक 26 हजार रुपए की है.

एक पट्टी तैयार करने में लगते हैं 15 दिन
खड्डी पर एक पट्टी तैयार करने के लिए 15 दिन का समय लगता है. 15 दिन में पट्टी तैयार होती है तो वहीं शॉल को तैयार करने में 2 महीने का समय लगता है. रंगबिरंगी शॉल के बॉर्डर भी इस खड्डी में ही तैयार किए जाते हैं. ऐसे में मेहनत के इस काम में मेहनताना भी अच्छा मिलना चाहिए.

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Intro:स्पेशल:

लकड़ी के सांचे पर पिरोए गए धागों को बुनकर आकार देते जिस व्यक्ति को आप तस्वीरों में देख रहे है यह व्यक्ति वही है जो आज भी हिमाचल की पारंपरिक खड्डी पर शॉल ओर पट्टी को बनाने की कला को सहेज कर रख रहा है। यही वहीं पारंपरिक पद्धति है जिसे पहाड़ो पर बर्फ़बारी के बीच चलने वाली सर्द हवाओं से बचने के लिए ऊनी कपड़े तैयार करने के लिए घरों में इस्तेमाल किया जाता था। उस दौर में बहुत से लोग इसके जानकर थे और इस खड्डी पर शॉल, पट्टी बनाने की कला को जानते थे लेकिन जैसे जैसे समय बिता ओर तकनीकी का विस्तार हुआ उससे इस खड्डी की जगह अलग-अलग हाईटेक मशीनों ने ले ली और खड्डी घरों से विलुप्त हो गई,लेकिन अब इस प्राचीन और पारंपरिक तकनीक से लोगों को रूबरू होने का मौका शिमला के इंदिरा गांधी खेल परिसर में लगी हथकरघा ओर हस्तशिल्प प्रदर्शनी में मिल रहा है।



Body:प्रदर्शनी में पारंपरिक खड्डी को लाया गया है जिसमें मंडी के कारीगर वहीं पारंपरिक तरीके से खड्डी पर शॉल बनाने के साथ ही शॉल की पट्टी भी तैयार कर रहे है। यहीं पर खड्डी में लगाने के लिए धागा भी तैयार किया जा रहा है। भेड़ की ऊन को कातने के लिए खड़िया का इस्तेमाल किया जा रहा है तो वहीं चरखे पर भी इसे काता जा रहा है ओर ऊन को गोलों में तैयार किया जा रहा है। यह सारा काम यही प्रदर्शनी में ही कारीगर कर रहे है। इस तैयार किए गए धागे को खड्डी में लगाकर पट्टी तैयार की जा रही है। इस खड्डी पर काम कर रहे मंडी के कारीगर प्रेम सिंह ने कहा कि उनके पूर्वज भी इस काम को करते थे यही वजह है कि उन्होंने भी इस काम को सीखा है ओर इस परंपरा को आज भी संजो कर रखने में अपनी भागेदारी दे रहे है। उन्होंने बताया कि काफी मेहनत इस काम में लगती है और अब यह कला भी विलुप्त होती जा रही है तो ऐसे में सरकार को इस तरह का प्रयास करना चाहिए कि यह कला बच सके और युवा वर्ग भी इस खड्डी के बारे में इस पर काम करने की तकनीक के बारे में सीखें।



Conclusion:मंडी ने 100 लोग इस काम से जुड़े है और पारंपरिक तरीके से खड्डी में शॉल तैयार करने का काम कर रहे है। पहले भेड़ की ऊन लाई जाती है और फिर उसे पांरपरिक तरीके से काता जाता है इसके बाद धागा तैयार कर खड्डी में लगता है ओर शॉल,पट्टी तैयार की जाती है। उन्होंने कहा कि आज के युवा अब इस काम को सीखने में रुचि नहीं दिखा रहे। यहां तक कि उन्हें इस खड्डी के बारे में भी कोई जानकारी तक नहीं है। यही वजह है कि वह इस प्रदर्शनी में वह इस खड्डी को लेकर आए है और यहां इसके बारे में जानकारी दे रहे है। उन्होंने सरकार से यह मांग की है सरकार इस पांरपरिक तकनीक की ओर ध्यान दे और इस से तैयार होने वाले उत्पादों के लिए सही मार्केट मुहैया करवाए जिससे कि उन्हें इस काम में लगने वाली मेहनत का मेहनताना मिल सके। वहीं प्रदर्शनी में अपना वूलन के उत्पादों की प्रदर्शनी लगाने वाली धर्मावती ने कहा कि प्रदर्शनी में उत्पाद तो लेकर आए है लेकिन मौसम खराब होने के चलते ज्यादा लोग ख़रीदारी के लिए नहीं आ पा रहे है, लेकिन आगामी दिनों में मौसम साफ होने पर कारोबार अच्छा होने की उम्मीद है। उन्होंने प्रदेश सरकार से इन उत्पादों को बाजार मुहैया करवाना चाहिए इसके साथ ही हिमाचल से बाहर भी मार्केट मुहैया करवानी चाहिए। यहां प्रदर्शनी में लगे स्टॉल में शॉल की कीमत सबसे अधिक 26 हज़ार रुपए की है।

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एक पट्टी तैयार करने में लगते है 15 दिन

खड्डी पर एक पट्टी तैयार करने के लिए 15 दिन का समय लगता है। 15 दिन में पट्टी तैयार होती है तो वहीं शॉल को तैयार करने में 2 महीने का समय लगता है। रंगबिरंगी शॉल के बॉर्डर भी इस खड्डी में ही तैयार किए जाते है। ऐसे में मेहनत के इस काम में मेहनताना भी अच्छा मिलना चाहिए।
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