शिमला: हिमाचल के बागवानों को लंबे समय बाद स्कैब जैसी भयंकर बीमारी का सामना करना पड़ रहा है. इससे बागवानों को करोड़ों रुपए का आर्थिक नुकसान झेलना पड़ा है. स्कैब के साथ पत्ते झड़ने व अल्टरनेरिया धब्बा रोग की समस्या ने बागवानों की परेशानी को और अधिक बढ़ा दिया है, जिसके बाद बागवानी विभाग ने बगीचों का निरीक्षण करवा कर बागवानों के लिए स्प्रे शेड्यूल तैयार किया है.
राज्य बागवानी विभाग के अनुसार 1984 के बाद यानी लगभग चार दशक बाद यह बीमारी प्रदेश में इतने व्यापक स्तर पर फैली है. विभाग द्वारा तैयार रिपोर्ट के अनुसार किन्नौर जिला में स्कैब के सबसे भयंकर परिणाम देखने को मिले हैं, जिसमें 1800 हेक्टेयर से अधिक का क्षेत्र इस बीमारी की चपेट में आ गया है.
हिमाचल में सेब का सबसे अधिक उत्पादन शिमला जिला में होता है. यहां स्कैब लगभग 1160 हेक्टेयर में फैला हुआ है, जबकि जिला मंडी में 960 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र स्कैब से प्रभावित है. इसके अलावा कुल्लू, चंबा और सिरमौर जिला भी इस भयंकर बीमारी की चपेट में है.
बागवानी विभाग के अधिकारियों के अनुसार पिछली गर्मियों में गीली और आद्र परिस्थितियों से इस रोग को बढ़ावा मिला है. मार्च से मई तक की समय अवधि में नमी और बारिश वाला वातावरण बने रहने के कारण स्कैब रोग इतने व्यापक स्तर पर फैला है. इनके अनुसार स्कैब के लिए बारिश और नमी युक्त वातावरण सहायक होता है, जिससे इसके प्रसार में अधिक लाभ होता है.
यह रोग वेंनचूरिया इनेकवेलिस नामक फंफूद से होता है. रोग का आक्रमण सबसे पहले सेब की कोमल पत्तियों पर होता है. पत्तियों पर हल्के जैतूनी हरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं. बाद में भूरे और काले हो जाते हैं. कभी-कभी संक्रमित पत्ते मखमली काले रंग से ढक जाते हैं, जिसे शीट स्कैब कहते हैं. साथ ही रोगग्रस्त पत्तियां समय से पहले ही पीली पड़ जाती है. धब्बे फलों पर भी दिखाई देते हैं. अधिक संक्रमण होने पर फल विकृत हो जाते हैं और उनमें दरारें पड़ जाती है.
विभिन्न जिलों में स्कैब से प्रभावित क्षेत्र
कल्पा 992
सिराज 783
निचार 750
रोहड़ू 540
बागवानी मंत्री ठाकुर महेंद्र सिंह ने कहा कि समय पर स्प्रे न होने वाले बगीचे में स्कैब के लक्षण देखने को मिले हैं. इसके बाद यह बीमारी आसपास के बगीचों में फैल गई और जिसके बाद इसका फैलाव और अधिक बढ़ गया. उन्होंने कहा कि बागवानों को समय पर छिड़काव की सलाह दी गई है. इसके अलावा बागवानी विभाग के अधिकारी भी बगीचों में जाकर स्थिति का जायजा ले रहे हैं. साथ ही छिड़काव कर स्कैब को नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है.
प्राकृतिक खेती के हिमाचल प्रदेश में कार्यकारी निर्देशक डॉ. राजेश्वर सिंह चंदेल ने कहा कि प्राकृतिक खेती विधि से तैयार किए गए सेब के बगीचों में स्कैब जैसी बीमारी बहुत कम देखने को मिली है, लेकिन आसपास के बगीचों से जरूर इस बीमारी ने प्रवेश किया है. उन्होंने कहा कि प्राकृतिक विधि से सेब की बागवानी करने पर अन्य बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है. इसके अलावा लाखों रुपए के महंगे कैमिकल के बोझ से भी बागवानों को बचाया जा सकता है. साथ ही सेब खाने वाले लोगों के स्वास्थ्य में भी सुधार होगा.
केंद्रीय बागवानी और बायो साइंस इंटरनेशनल के अनुसार हिमाचल प्रदेश में स्कैब 1977 में पहली बार सामने आया. कहा जाता है कि जम्मू कश्मीर से सेब के पौधों की नर्सरी के साथ हिमाचल प्रदेश में यह बीमारी आई. जम्मू कश्मीर से पौधों को अधिक संख्या में आयात करने पर उस साल हिमाचल में भी स्कैब अधिक मात्रा में बढ़ता है. इसके अलावा समय पर छिड़काव नहीं करने से भी इस बीमारी को बढ़ावा मिलता है.
बागवानों का कहना है कि स्कैब जैसी भयंकर बीमारी से बचने के लिए महंगी दवाइयों का छिड़काव करना पड़ता है. इससे बागवानों के ऊपर आर्थिक बोझ पड़ रहा है. बागवानों ने आरोप लगाया कि विभाग की तरफ से उन्हें किसी तरह की दवाइयां उपलब्ध नहीं करवाई जा रही हैं. उन्होंने कहा कि इतना अधिक आर्थिक बोझ उठाने की स्थिति में बागवान नहीं है. इसलिए सरकार को इस बीमारी से बचाव का जल्द से जल्द समाधान ढूंढना पड़ेगा.
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