कुल्लू: हिमाचल प्रदेश जहां अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए देश दुनिया में जाना जाता है. वही यहां के हरे भरे जंगल भी सैलानियों को अपनी और आकर्षित करते हैं, लेकिन हिमाचल प्रदेश में लाहौल स्पीति एक ऐसा जिला है. जहां पर जंगल नाम मात्र के हैं और जिला का 90% इलाका बंजर बना हुआ है. ऐसे में इस शीत मरुस्थल को हरा-भरा करने के लिए शुकपा अपनी अहम भूमिका निभाएगा. हिमालय वन अनुसंधान द्वारा स्पीति घाटी के ताबो में शुकपा के पौधों को रोपा गया है. आने वाले दिनों में पूरी स्पीति घाटी शुकपा के पौधों से हरी भर भारी नजर आएगी.
वैज्ञानिकों की 20 सालों की मेहनत रंग लाई: हिमालयन वन अनुसंधान के वैज्ञानिकों के 20 सालों की मेहनत के बाद अब शुकपा के पौधे शीत मरुस्थल की पहाड़ियों में रोपने के लिए विकसित किए गए हैं. शुकपा का वानस्पतिक नाम जुनीपरस पोलिकार्पोस है और इस पौधे के लगने से एक और जहां स्पीति घाटी में हरित आवरण बढ़ेगा. वही हरित आवरण बढ़ने से घाटी में ऑक्सीजन की कमी भी नहीं होगी. हिमालयन वन अनुसंधान ने साल 2003 में जुनीपरस पोलिकार्पोस पर खतरे की स्थिति को देखते हुए इसे लुप्त प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया था और इसके बीजों को सुप्त अवस्था अवस्था में ही तोड़ने की विधि, नर्सरी तथा पौधों रोपण तकनीक विकसित करने के लिए शोध की सिफारिश की गई थी.
17000 से अधिक शुकपा पौधे का रोपण: हिमालयन वन अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिक पीतांबर सिंह नेगी के 15 सालों के प्रयास के बाद इसके बीज, नर्सरी, पौधा रोपण की तकनीक को अब विकसित कर लिया गया है. संस्थान के द्वारा पहले चरण में 17000 से अधिक शुकपा के पौधे विभिन्न पौधे शाला में उगाया गया. अब हिमाचल प्रदेश के अलावा लद्दाख के सूखे इलाकों में भी वन विभाग, स्थानीय लोगों की मदद से इसका पौधारोपण किया गया है.
शुकपा पौधे की खासियत और इस्तेमाल: शुकपा हिमालय क्षेत्र के सुख एवं शीत मरुस्थल इलाकों में पाया जाता है. यह समुद्र तल से 3000 से लेकर 5000 मीटर की ऊंचाई पर होता है. हिमाचल प्रदेश के किन्नौर, लाहौल, स्पीति, जम्मू कश्मीर के लद्दाख, कारगिल के अलावा उत्तराखंड के ऊंचाई वाले इलाकों में यह पौधा पाया जाता है. इसमें बड़ी मात्रा में हरे रंग के गोलाकार बेल लगते हैं, जो पकने पर नील व काले रंग के होते हैं. वहीं स्थानीय लोग इस पौधे का इस्तेमाल पेट से जुड़ी समस्या, मूत्र संक्रमण, जोड़ों के दर्द के लिए करते हैं. इसके अलावा इस शुकपा के बेर का सूखने पर स्थानीय लोग मसाले के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं.
पहली बार स्पीति घाटी के ताबो में शुकपा रोपण: जानकारी के अनुसार देश में पहली बार स्पीति घाटी के ताबो में इस पौधे को रोपा गया है. स्पीति घाटी के ऐतिहासिक ताबो मठ के परिसर में इस पौधे को रोपकर सरंक्षित भी किया जा रहा है. हिमालय वन अनुसंधान की शोध में इस पौधे की जीवित रहने की दर 70 से 80% दर्ज की गई है. यह पौधा माइनस 40 से 60 डिग्री सेल्सियस के बीच भी जिंदा रह सकता है. इससे अब वैज्ञानिकों के हौसले भी बढ़े हैं. हिमाचल के जनजातीय इलाकों में शुकपा पौधों की लकड़ी का उपयोग घरों में जलावन के रूप में किया जाता है. वही सूखी टहनियों और पत्तियों का उपयोग मंदिरों, मठ में धार्मिक अनुष्ठान के लिए भी किया जाता है. स्थानीय लोग शुकपा को एक पवित्र पौधा मानते हैं और बौद्ध धर्म में पूजा पाठ के दौरान इसका विशेष महत्व है.
स्पीति घाटी में दूर होगी हरियाली और ऑक्सीजन की कमी: गौर रहे की स्पीति घाटी में भी हरियाली कम होने के चलते यहां कई इलाकों में ऑक्सीजन की मात्रा काफी कम है. इसके अलावा केलांग से लेह सड़क मार्ग पर भी सूखे पहाड़ होने के चलते ऑक्सीजन की कमी का सामना यात्रियों को करना पड़ता है. वही, ऑक्सीजन की कमी के चलते कई बार यात्री मौत का शिकार भी हुए हैं. ऐसे में अब शुकपा के पौधे लगाए जाने से सुखी पहाड़ियों में हरियाली नजर आएगी और हरियाली के चलते यहां पर ऑक्सीजन की मात्रा भी बढ़ जाएगी. जिससे इन रास्तों से गुजरने वाले लोगों और पर्यटकों को दिक्कतों का सामना नहीं करना होगा.
शुकपा का पुनर्जनन प्राकृतिक रूप से बहुत कम: हिमालय वन अनुसंधान संस्थान शिमला में तैनात वैज्ञानिक पीतांबर सिंह नेगी ने बताया कि शुकपा का पुनर्जनन प्राकृतिक रूप से बहुत कम है। स्थानीय लोग इस पेड़ की टहनी और पत्तियों को धूप के रूप में इस्तेमाल करने के लिए जंगलों से एकत्र करते हैं। वही प्राकृतिक रूप से यह केवल उन्हीं क्षेत्रों में पैदा होता है जहां पर जैविक दबाव कम होता है। वहीं इसके बीज में जो सुप्त अवस्था में अधिक रहते है। उसके चलते भी यह बीज अनुकूल परिस्थितियों में अंकुरित नहीं हो पाए थे। इसी कारण से वन विभाग इसके पौधों को बीज से तैयार नहीं कर पा रहे थे। अब नई तकनीक के माध्यम से इसके बीज से पौधे तैयार किया जा रहे हैं। स्पीति और लेह में इन पौधों का रोपण किया गया है। अब उम्मीद है कि आगामी समय में इस पौधे के माध्यम से शीत मरुस्थल को हरा भरा किया जा सके.
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