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अद्भुत हिमाचल: पूरे विश्व में अपनी देव परम्पराओं के लिए विख्यात है कुल्लू का अंतरराष्ट्रीय दशहरा

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Published : Oct 18, 2019, 12:57 PM IST

अद्भुत हिमाचल: कुल्लू में करीब 2000 से अधिक देवी-देवता प्रतिष्ठित हैं. इनमें सबसे प्रमुख देवता रघुनाथ जी हैं. भगवान रघुनाथ के सम्मान में हर वर्ष अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव मनाया जाता है.

अद्भुत हिमाचल: पूरे विश्व में अपनी देव परम्पराओं के लिए विख्यात है कुल्लू का अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव

कुल्लू: अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा करीब तीन सौ साल से मनाया जा रहा है. सप्ताह भर चलना वाला ये उत्सव इसलिए अनूठा है क्योंकि जब देश के बाकी हिस्सों में दशहरा उत्सव समाप्त हो जाता है तब इसका आयोजन किया जाता है. कहा जाता है कि इस अद्भुत पर्व में स्वर्ग से धरती पर देवी-देवता आते हैं. लोगों की उत्सव को लेकर अटूट आस्था जुड़ी हुई है. ये इसी से देखा जा सकता है कि कैसे देवताओं को लेकर लोग मीलों पैदल कुल्लू दशहरा में पहुंचते हैं.

दशहरे का आगाज बीज पूजा और देवी हिडिंबा, बिजली महादेव और माता भेखली का इशारा मिलने के बाद ही होता है. उसके बाद भगवान रघुनाथ जी की पालकी निकाली जाती है. भगवान रघुनाथ की पालकी और रथयात्रा निकलने के दौरान यहां पुलिस नहीं बल्कि उनके आगे चलने वाले देवता (धूमल नाग) ट्रैफिक का नियंत्रण करते हैं. कुल्लू दशहरा का वास्तविक नाम विजयादशमी से जोड़ा जाता है.

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अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा के दौरान सांस्कृतिक संध्या का भी आयोजन किया जाता है. संध्या में देश- विदेश से कलाकार अपनी प्रस्तुतियां देने आते हैं. इसके अलावा दशहरा में खेल प्रेमियों के लिए खेलकूद प्रतियोगिता आयोजित की जाती है.

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कुल्लू: अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा करीब तीन सौ साल से मनाया जा रहा है. सप्ताह भर चलना वाला ये उत्सव इसलिए अनूठा है क्योंकि जब देश के बाकी हिस्सों में दशहरा उत्सव समाप्त हो जाता है तब इसका आयोजन किया जाता है. कहा जाता है कि इस अद्भुत पर्व में स्वर्ग से धरती पर देवी-देवता आते हैं. लोगों की उत्सव को लेकर अटूट आस्था जुड़ी हुई है. ये इसी से देखा जा सकता है कि कैसे देवताओं को लेकर लोग मीलों पैदल कुल्लू दशहरा में पहुंचते हैं.

दशहरे का आगाज बीज पूजा और देवी हिडिंबा, बिजली महादेव और माता भेखली का इशारा मिलने के बाद ही होता है. उसके बाद भगवान रघुनाथ जी की पालकी निकाली जाती है. भगवान रघुनाथ की पालकी और रथयात्रा निकलने के दौरान यहां पुलिस नहीं बल्कि उनके आगे चलने वाले देवता (धूमल नाग) ट्रैफिक का नियंत्रण करते हैं. कुल्लू दशहरा का वास्तविक नाम विजयादशमी से जोड़ा जाता है.

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अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा के दौरान सांस्कृतिक संध्या का भी आयोजन किया जाता है. संध्या में देश- विदेश से कलाकार अपनी प्रस्तुतियां देने आते हैं. इसके अलावा दशहरा में खेल प्रेमियों के लिए खेलकूद प्रतियोगिता आयोजित की जाती है.

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पूरे विश्व मे अपनी देव परम्पराओ के लिए विख्यात है कुल्लू का दशहरा उत्सवBody:

कुल्लू
हिमाचल के मध्य में बसा है खूबसूरत कुल्लू जिला, देव परंपराओं के कारण अंतरराष्ट्रीय पटल पर अपनी अलग पहचान बना चुके कुल्लू के हर गांव में अपना-अलग देवता हैं। त्रिदेव (बह्मा, विष्णु, महेश) के अलावा यहां देवी, ऋषि, मुनि, नाग, यक्ष, पांडव, सिद्ध और योगिनियों को पूजा जाता है। ऐसा माना जाता है कि कुल्लू में करीब 2000 से अधिक छोटे बड़े देवी-देवता प्रतिष्ठापित हैं। इनमें सबसे प्रमुख देवता हैं भगवान श्री रघुनाथ जी। इन्हीं के सम्मान में हर वर्ष अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव मनाया जाता है। इस बार यह उत्सव 8 से 14 अक्टूबर तक मनाया जा रहा है। इसमें देवताओं का संगम होगा। 1661 से शुरू हुए इस उत्सव के स्वरूप में समय के साथ बदलाव आया है। कुछ परंपराएं आधुनिक रूप में आ गईं, तो कुछ का निर्वहन जस का तस है। दशहरे का आगाज हमेशा बीज पूजा और देवी हिडिंबा, बिजली महादेव और माता भेखली का इशारा मिलने के बाद ही होता है। उसी के बाद भगवान रघुनाथ जी की पालकी निकलती है और रथ तक लाई जाती है। पहले रथ को घास के रस्से से खींचा जाता था, जिसे बगड़ा घास कहा जाता था, लेकिन अब इसे आम रस्से से खींचा जाता है। 2015 में बलि पर पाबंदी लगने के बाद अब उसकी जगह नारियाल काटा जाता है। शांति और विजय के प्रतीक इस उत्सव में रथयात्रा का मार्ग बदलने के कारण 1971 में विवाद हुआ था। इस वजह से उस दौरान गोली चलने से एक व्यक्ति की मौत हुई। इस विवाद वजह से भगवान रघुनाथ जी दो साल तक मेले में शामिल नहीं हुए थे।

अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव के आरंभ होने से बीज पूजा की जाती है। यह पूजा माता हिडिंबा भगवान रघुनाथ के स्थायी शिविर सुल्तानपुर में होती है। इसमें राज परिवार के सदस्य व छड़ीबदार सहित पुरोहित शामिल होते हैं। बीज पूजा में अष्ठगंध यानी गौमूत्र, हल्दी, चंदन, इत्र सहित कुल आठ वस्तुओं का एक मिश्रण बनाया जाता है और उससे भगवान के वस्त्रों आदि को प्रतिष्ठित किया जाता है। इसके बाद माता हिडिंबा की आज्ञा के बाद भगवान रघुनाथ पालकी पर सुल्तानपुर से ढालपुर के लिए निकलते हैं

कुल्लू का अंतरराष्ट्रीय दशहरा करीब तीन सौ साल से मनाया जा रहा है। दशहरा उत्सव में आज भी देवताओं की परंपराओं का निर्वहन उसी रूप में किया जा रहा है। पुराने समय में भी देवता जिस तरह भगवान रघुनाथ जी के दर शीश नवाते थे आज भी यह परंपरा कायम है। पुराने समय में देवताओं की यादों को कई ब्रिटिश और स्थानीय साहित्यकारों ने अपने स्तर पर इसका रिकॉर्ड रखा था। पहले और अब के दौर में केवल आधुनिकता का ही फर्क नजर आता है जबकि इतिहास के झरोखे से लाई गई तस्वीरें उन परंपराओं को दर्शाती हैं जो आज भी जस की तस कायम हैं। आज भी देवताओं को लेकर लोग मीलों पैदल कुल्लू दशहरा में पहुंचते हैं और वैसे ही भगवान रघुनाथ के रथ के साथ चलते हैं। फर्क सिर्फ आधुनिकता है।

कुल्लूवासियों के लिए हर साल यह क्षण हर्षोल्लास लेकर आता है। यह उत्सव करीब 350 साल से यहां अपने वर्तमान रूप में जारी है। देश-विदेश के लोग इस विजयादशमी को इसकी अद्वितीय विशेषताओं के लिए जानते हैं। परंतु पिछले करीब बीस साल से इसमे परिवर्तन देखने को मिले हैं। संभवत: आधुनिकता की दौड़ में इस त्योहार का मूल स्वरूप बिगड़ता जा रहा है। पहले यह व्यापार के दृष्टिकोण से एक अत्यंत महत्वपूर्ण मेला होता था। परंतु समय के साथ इसके बाजार का आकार सिकुड़ता जा रहा है। लोगों की दिलचस्पी इस त्योहार में कम होती जा रही है, इसके बहुत से कारण हैं। अच्छी बात यह है कि अपनी विशिष्ट परंपराओं के कारण इस मेले का आकर्षण अब भी कायम है। समय रहते सभी को यह सोचने की आवश्यकता है कि इस उत्सव को यथावत बनाए रखने के लिए हम अपनी ओर से क्या प्रयास कर सकते हैं। इसके साथ ही हम इसके इतिहास के विषय में केवल वही जानते हैं जो हमें वर्षों से बताया जाता रहा है। इतिहासकारों ने विजयादशमी से जुड़े नए तथ्यों को स्वीकारने में कभी रुचि नहीं दिखाई। हमें सदैव लगता है कि हम कुल्लू के इस विशेष देवोत्सव के बारे में सब कुछ जानते हैं।

कुल्लू दशहरा के विषय में एक पक्ष यह भी है कि दशहरा नाम इसका आयातित नाम है। इसका वास्तविक नाम विजयादशमी से जोड़ा जाता है। इसलिए ही कुल्लू में यह उत्सव उस दिन से आरंभ होता है जिस दिन अन्यत्र यह समाप्त हो जाता है। अलग-अलग संदर्भों में यह वर्णित है कि यह शास्त्रीय महत्व का दिन है, इस दिन राजा ही नहीं अपितु साधारण क्षत्रिय भी शास्त्रीय विधि से अपने शस्त्रों, घोड़े, हाथी, रथ व सेना आदि को ठीक करके उनकी विधिवत पूजा-अर्चना करते थे। इसी कड़ी में कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में आज भी 'घोड़ पूजन' की प्रथा निभाई जाती है। यह दिन विजय यात्रा के लिए श्रेष्ठ कहा गया है। एक अन्य हिंदू वर्णन के अनुसार राम को रावण से युद्ध करने के लिए जब रथ की आवश्यकता पड़ी तो इंद्र ने उनके लिए अपना रथ भेजा था। इसी रथ द्वारा लंका पर चढ़ाई को रथयात्रा से जोड़कर देखा जाता है। साथ ही कुल्लू दशहरा में रामलीला के केवल सुंदरकांड व युद्धकांड का प्रतीकात्मक पटाक्षेप दर्शाया जाता है। जिसमें रावण का पुतला न फूंककर केवल लंका दहन की परंपरा निभाई जाती है।

दूसरी ओर यदि कुल्लू के बुद्धिष्ट मान्यताओं के ऐतिहासिक पक्षों को खंगालें तो विजयादशमी और रथयात्रा का एक अन्य पक्ष निकल कर हमारे सामने आता है। यह विदित है, कुल्लू के अर्ध-अध्यात्मवाद के तहत बुद्धिष्ट मान्यताएं आज भी जीवित हैं। बल्कि बुद्धिष्ट से भी पहले का पंथ जिसे बोन-पो कहा जाता है उसके निशान कुल्लू की विभिन्न मान्यताओं में मिलते हैं। इसी बुद्धिष्ट पक्ष के अनुसार एक मत यह सामने आता है कि विजय दशमी के दिन सम्राट अशोक ने बुद्ध धर्म ग्रहण किया था। अशोक स्तंभ के तथ्यों का आकलन करने पर कुछ साहित्यकारों ने यह पाया कि विजय दशमी का पर्व अशोक ने शुरू किया था। मौर्यकाल के साहित्यकार मेगासथिनीस द्वारा अपने भारतीय अकाउंट में अशोक के इस संदर्भ के विषय में लिखा गया है कि 'पहले राजा शिकार के लिए और शाही यात्राओं के लिए इस समय अपने महलों से निकलते थे, पर अब मैं (अशोक) इस प्रथा को बंद कर धम्म (धर्म) का प्रचार आरंभ करूंगा।'

इसके पश्चात विजय दशमी को यात्रा पर्व के रूप में हर चार साल में मनाया जाने लगा। जब चीन का यात्री फाह्यन भारत आया तो उसने इस यात्रा को चीन के खोतान प्रांत से मद्रास तक और ङ्क्षसध प्रांत से बंगाल तक हर्षोल्लास से मनाए जाते देखा। अपने लिखित लिपियों में फाह्यन ने इसका वर्णन करते हुए लिखा है कि यह त्योहार भारत के विभिन्न इलाकों में अलग-अलग समय तक मनाया जाता है। कहीं तीन दिन और कहीं तीस दिन तक। विदा दशमी कालांतर में बेशक दशहरा बन गई हो, विभिन्न मत इसके पक्ष में दिए जाते हों, लेकिन मूल भाव यह है कि इस उत्सव की मान्यता जनमानस में अब भी जस की तस जीवित है, अपने-अपने पक्षों को मानते हुए और किसी भी चीज का अस्तित्व तभी तक है जब तक उसकी मान्यता है जीवित है।


Conclusion:जब भगवान रघुनाथ की पालकी और रथ निकालता है तो यहां पुलिस नहीं बल्कि उनके आगे चलने वाले देवता ट्रैफिक का नियंत्रण करते हैं। देवता का रथ आगे चलता है और सबको हटाता हुआ भगवान रघुनाथ के लिए रास्ता बनता है।
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