किन्नौर: हिमाचल प्रदेश का जनजातीय जिला किन्नौर अपनी पाकृतिक सुंदरता और अनोखे रिति-रिवाजों के साथ-साथ अपनी अद्भुद संस्कृति के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध है. इन दिनों हर क्षेत्र, हर तबका कोरोना महामारी की मार से पीड़ित है. जनजातीय जिला किन्नौर में भी यहां की विश्व प्रसिद्ध पारंपरिक वेशभूषा को संजोकर रखने वाला बुनकर समुदाय लंबे समय से कोरोना महामारी का दंश झेलने को मजबूर है.
बुनकर व्यवसायियों से ही किन्नौर की पारंपरिक वेशभूषा टिकी हुई है, जिनकी कारीगरी से किन्नौर की वेशभूषा की सुंदरता बनी रहती है. जिला में विवाह, मेलों और समारोह में पारंपरिक वेशभूषा पहनने का रिवाज है, लेकिन कोरोना महामारी की रोकथाम के लिए लगाए गए लॉकडाउन के चलते पहले तो जिला में किसी भी कार्यक्रम के आयोजन पर मनाही थी और अभी भी कम लोगों की मौजूदगी में कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है.
ऐसे में बुनकर व्यवसायियों के पास पारंपरिक वेशभूषा की मांग बहुत कम हो गई है और उनकी आय पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है. जिला किन्नौर की पारंपरिक वेशभूषा में दोडू शॉल, ऊन की पट्टी, मफलर सबसे महत्वूवर्ण हैं. आपको ये जानकर ताज्जूब होगा कि किन्नौर की पारंपरिक वेशभूषा की कीमत पांच हजार से लेकर दो लाख तक होती है, जिसमें किन्नौर के पारंपरिक वेशभूषा के बुनकरों द्वारा महीनों तक एक ही जगह पर बैठकर इस काम को किया जाता है.
कल्पा में पारंपरिक वेशभूषा के बुनकर सनम दोरजे जितास का कहना है कि वो पिछले 40 वर्षों से बुनकर के व्यापार से जुड़े हैं और इस काम से ही उनकी रोजी-रोटी चलती है, लेकिन लंबे समय से वैश्विक महामारी कोरोना संक्रमण के चलते उन्हें अपनी रोजी-रोटी कमाना मुश्किल हो रहा है. जिला के बुनकरों की सरकार से मांग है कि बुनकर व्यवसाय को भी मजदूर वर्ग में शामिल किया जाए, ताकि सरकार उनके नुकसान के दौरान उनकी सहायता कर सके.
कोरोना काल में किन्नौर के बुनकरों की कमाई न के बराबर हो रही है और आलम ये हो गया है कि किन्नौर की संस्कृति के इन रक्षकों पर रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है. किन्नौर की अद्भुद संस्कृति को संजोकर रखने वाले बुनकरों को इस समय सरकार की मदद की जुरूरत है, ताकि धुंधले नजर आ रहे पारंपरिक बुनकरों के भविष्य को बचाया जा सके.
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