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कला के क्षेत्र में अपनी खास पहचान बनाए हुए है कांगड़ा पेंटिंग, फूल-पत्तियों से बनाए जाते हैं रंग - kangra current news

कांगड़ा पेंटिंग की कला क्षेत्र में अलग पहचान. फूल-पत्तियों से बनाए जाते हैं रंग.

कांगड़ा पेंटिंग
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Published : Mar 21, 2019, 5:49 AM IST

धर्मशाला: प्रदेश में कला को संजोने में कांगड़ा पेंटिंग का अहम योगदान है. कांगड़ा पेंटिंग्स एक अलग तरह की चित्रकला है. इस अनूठी कला को सदियों बाद भी संजोया गया है. इस खास तरह की पेंटिंग में पत्थरों और पेड़ों के रंग और गिलहरी के बालों का बना ब्रश इस्तेमाल किए जाते हैं.

kangra painting

बता दें कि कांगड़ा पेंटिंग्स दुनिया में अपनी अलग पहचान के लिए जानी जाती है. चित्रकला शैली का जन्म कांगड़ा के गुलेर नामक स्थान में हुआ था. इस कला का विकास 18वीं सदी में हुआ था. मुगल चित्रकला शैली के कलाकार कश्मीर के परिवार को राजा दलीप सिंह ने अपने राज्य गुलेर (1695-1741) में शरण दी और गुलेर चित्रकला विकसित होना शुरू हुई. उस समय इन चित्रों में चित्रकार अपने मालिक के पोट्रेट और उनके प्रेम प्रसंग के दृश्य और राधा-कृष्ण के प्रेम-प्रसंग के दृश्य जैसे विषय लेते थे.

कांगड़ा में काम करने वाले प्रीतम चंद ने बताया कि वे पिछले 15 से 16 साल से काम कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि ये काम काफी बारीकी का है. एक पेंटिंग स्कोर बनाने के लिए 8 से 10 दिन का समय लग जाता है.


कैसे बनती है कांगड़ा पेंटिंग

कांगड़ा पेंटिंग में प्राकृतिक रंग इस्तेमाल किए जाते हैं. पेंटिंग बनाने के लिए कागज को पहले एक सफेद द्रव्य से लेप दिया जाता है और फिर शंख से घिस कर चिकना किया जाता है. जिससे कागज मजबूत और आकर्षक बनता है. वहीं, रंगों को फूलों, पत्तियों, जड़ों, मिट्टी के विभिन्न रंगों, जड़ी बूटियों और बीजों से निकाल कर बनाया जाता है. इन रंगों को मिट्टी के प्यालों या बड़ी सीपों में रखा जाता है. यही कारण है कि कांगड़ा पेंटिंग्स दुनिया में अपनी अलग पहचान के लिए जानी जाती है.

गौर रहे कि 17वीं और 19वीं शताब्दी में यहां के राजपूत शासकों ने इस कला के विकास पर काम किया. वहीं,18वीं शताब्दी के मध्य में जब बसोहली चित्रकला समाप्त होने लगी तब यहां इतने प्रकार के चित्र बने कि पहाड़ी चित्रकला को कांगड़ा चित्रकला के नाम से जाना जाने लगा. वैसे कांगड़ा कलम का नाम कांगड़ा रियासत के नाम पर पड़ा और यहां इसे पुष्पित-पल्लवित होने के लिए उचित परिवेश मिला. वैसे तो कांगड़ा चित्रकला के मुख्य स्थान गुलेर, बसोहली, चम्बा, नूरपुर, बिलासपुर और कांगड़ा है, लेकिन बाद में यह शैली मंडी, सुकेत, कुल्लू, अर्की, नालागढ़ और गढ़वाल में भी अपनाई गई.
गढ़वाल में कांगड़ा कलम के क्षेत्र में मोलाराम ने अविस्मरणीय कार्य किया. वर्तमान में यह पहाड़ी चित्रकला के नाम से विख्यात है. कांगड़ा स्कूल ऑफ पेंटिंग पहाड़ी चित्रकला के उत्थान और नवीनीकरण में सक्रिय रहा है.

गुलेर से शुरू हुई कांगड़ा पेंटिंग
इस कला का जन्म गुलेर नामक स्थान में हुआ. मुगल चित्रकला शैली के कलाकार कश्मीरी के परिवार को राजा दलीप सिंह ने अपने राज्य गुलेर (1695-1741) में शरण दी और गुलेर चित्रकला विकसित होना शुरू हुई. इन चित्रों में चित्रकार अपने मालिक के फ्लैट पोट्रेट और उनके प्रेम प्रसंग के दृश्य, राधाकृष्ण के प्रेम-प्रसंग के दृश्य जैसे विषय लेते थे. कलाकार प्राकृतिक एवं ताजे रंगों का प्रयोग करते थे. ये रंग खनिज व वनस्पति से बनते थे, इनसे चित्रों में इनेमल जैसी चमक और प्राकृतिक दृश्य जैसी हरियाली होती थी.

महाराजा संसार चंद कटोच (1776-1824) के शासन काल में यह शैली शीर्ष तक पहुंची. कला प्रेमी होने के कारण, जो कलाकार उनके महल में काम करते थे, उन्हें बहुत इनाम भी मिले और कुछ को इनाम में भूमि भी मिली. महाराजा संसार चंद भगवान कृष्ण के उपासक थे, इसलिए वह उस कलाकार को पुरस्कृत करते थे जो कृष्ण से सम्बद्ध विषय पर चित्र बनाते थे. कांगड़ा चित्रकला का मुख्य विषय श्रृंगार है.

कांगड़ा चित्रकला के पात्र उस समय के समाज की जीवन शैली दर्शाते थे. भक्ति सूत्र इसकी मुख्य शक्ति है और राधा-कृष्ण की प्रेम कथा इसका मुख्य भक्ति अनुभव है जिसे दिखने के लिए आधार मन है. भागवत पुराण और जयदेव की गीत गोविंद की प्रेम कविताएं इसका मुख्य विषय रहा है. राधा-कृष्ण की रासलीला को दर्शाते हुए आत्मा का परमात्मा के साथ मिलन दिखाया है. कुछ चित्रों में कृष्ण को वन में नाचते हुए दिखाया गया है, जहां सब गोपियों की नजरें उन्हीं पर है. कृष्ण लीला पर आधारित चित्र, चित्रकारों के प्रिय रहे हैं. प्रेम प्रसंग ही पहाड़ी चित्रकला का मुख्य विषयवस्तु रहा है. भागवत पुराण से प्रभावित कांगड़ा चित्र वृन्दावन और यमुना के साथ कृष्ण का बचपन दर्शाते हैं. इनमें दूसरा प्रिय विषय नल दमयन्ती की कहानियां हैं.

पुरातन भारतीय कांगड़ा चित्रकला में हरे रंग का प्रयोग अधिक मात्रा में हुआ है. यह शैली प्रकृतिवादी है और इसमें बहुत ध्यान से छोटी-छोटी चीजें विस्तार में बनाई गई हैं. कांगड़ा चित्रकला के खूबसूरत लक्षण फूल, पौधे, लता, नदी, बिना पत्तों के पेड़ आदि हैं. कांगड़ा चित्रकला लयबद्ध रंगों के लिए जानी जाती है. कलाकार ताजे मूल रंगों का प्रयोग कोमलता से करते हैं. कांगड़ा चित्रकला में स्त्री आकर्षण बहुत ही सुंदर ढंग से दिखाया जाता है. इनमें चेहरे कोमल, सुंदर तथा देहयष्टि सुगठित होती है. कालांतर में कांगड़ा चित्रकला में रात्रि के दृश्य और तूफान और बिजली गिरना भी बनाए गए. चित्र मूलत: बड़े होते हैं और बहुत सारी फिगर बनाई जाती है और विस्तार से प्राकृतिक दृश्य दिखाए जाते हैं.

समय के साथ-साथ यह कला लुप्त होती गई. इस कला की उन्नति के लिए कांगड़ा आर्ट प्रमोशन सोसाइटी धर्मशाला पिछले कुछ सालों से अहम भूमिका अदा कर रही है. संस्था एक कांगड़ा कलम का प्रशिक्षण दे रही है. अब धर्मशाला स्मार्ट सिटी परियोजना में कांगड़ा पेंटिंग को शामिल करने से एक बार फिर से कांगड़ा पेंटिंग के कला के विश्व मानचित्र पर चमकने की उम्मीद जगी है.

धर्मशाला: प्रदेश में कला को संजोने में कांगड़ा पेंटिंग का अहम योगदान है. कांगड़ा पेंटिंग्स एक अलग तरह की चित्रकला है. इस अनूठी कला को सदियों बाद भी संजोया गया है. इस खास तरह की पेंटिंग में पत्थरों और पेड़ों के रंग और गिलहरी के बालों का बना ब्रश इस्तेमाल किए जाते हैं.

kangra painting

बता दें कि कांगड़ा पेंटिंग्स दुनिया में अपनी अलग पहचान के लिए जानी जाती है. चित्रकला शैली का जन्म कांगड़ा के गुलेर नामक स्थान में हुआ था. इस कला का विकास 18वीं सदी में हुआ था. मुगल चित्रकला शैली के कलाकार कश्मीर के परिवार को राजा दलीप सिंह ने अपने राज्य गुलेर (1695-1741) में शरण दी और गुलेर चित्रकला विकसित होना शुरू हुई. उस समय इन चित्रों में चित्रकार अपने मालिक के पोट्रेट और उनके प्रेम प्रसंग के दृश्य और राधा-कृष्ण के प्रेम-प्रसंग के दृश्य जैसे विषय लेते थे.

कांगड़ा में काम करने वाले प्रीतम चंद ने बताया कि वे पिछले 15 से 16 साल से काम कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि ये काम काफी बारीकी का है. एक पेंटिंग स्कोर बनाने के लिए 8 से 10 दिन का समय लग जाता है.


कैसे बनती है कांगड़ा पेंटिंग

कांगड़ा पेंटिंग में प्राकृतिक रंग इस्तेमाल किए जाते हैं. पेंटिंग बनाने के लिए कागज को पहले एक सफेद द्रव्य से लेप दिया जाता है और फिर शंख से घिस कर चिकना किया जाता है. जिससे कागज मजबूत और आकर्षक बनता है. वहीं, रंगों को फूलों, पत्तियों, जड़ों, मिट्टी के विभिन्न रंगों, जड़ी बूटियों और बीजों से निकाल कर बनाया जाता है. इन रंगों को मिट्टी के प्यालों या बड़ी सीपों में रखा जाता है. यही कारण है कि कांगड़ा पेंटिंग्स दुनिया में अपनी अलग पहचान के लिए जानी जाती है.

गौर रहे कि 17वीं और 19वीं शताब्दी में यहां के राजपूत शासकों ने इस कला के विकास पर काम किया. वहीं,18वीं शताब्दी के मध्य में जब बसोहली चित्रकला समाप्त होने लगी तब यहां इतने प्रकार के चित्र बने कि पहाड़ी चित्रकला को कांगड़ा चित्रकला के नाम से जाना जाने लगा. वैसे कांगड़ा कलम का नाम कांगड़ा रियासत के नाम पर पड़ा और यहां इसे पुष्पित-पल्लवित होने के लिए उचित परिवेश मिला. वैसे तो कांगड़ा चित्रकला के मुख्य स्थान गुलेर, बसोहली, चम्बा, नूरपुर, बिलासपुर और कांगड़ा है, लेकिन बाद में यह शैली मंडी, सुकेत, कुल्लू, अर्की, नालागढ़ और गढ़वाल में भी अपनाई गई.
गढ़वाल में कांगड़ा कलम के क्षेत्र में मोलाराम ने अविस्मरणीय कार्य किया. वर्तमान में यह पहाड़ी चित्रकला के नाम से विख्यात है. कांगड़ा स्कूल ऑफ पेंटिंग पहाड़ी चित्रकला के उत्थान और नवीनीकरण में सक्रिय रहा है.

गुलेर से शुरू हुई कांगड़ा पेंटिंग
इस कला का जन्म गुलेर नामक स्थान में हुआ. मुगल चित्रकला शैली के कलाकार कश्मीरी के परिवार को राजा दलीप सिंह ने अपने राज्य गुलेर (1695-1741) में शरण दी और गुलेर चित्रकला विकसित होना शुरू हुई. इन चित्रों में चित्रकार अपने मालिक के फ्लैट पोट्रेट और उनके प्रेम प्रसंग के दृश्य, राधाकृष्ण के प्रेम-प्रसंग के दृश्य जैसे विषय लेते थे. कलाकार प्राकृतिक एवं ताजे रंगों का प्रयोग करते थे. ये रंग खनिज व वनस्पति से बनते थे, इनसे चित्रों में इनेमल जैसी चमक और प्राकृतिक दृश्य जैसी हरियाली होती थी.

महाराजा संसार चंद कटोच (1776-1824) के शासन काल में यह शैली शीर्ष तक पहुंची. कला प्रेमी होने के कारण, जो कलाकार उनके महल में काम करते थे, उन्हें बहुत इनाम भी मिले और कुछ को इनाम में भूमि भी मिली. महाराजा संसार चंद भगवान कृष्ण के उपासक थे, इसलिए वह उस कलाकार को पुरस्कृत करते थे जो कृष्ण से सम्बद्ध विषय पर चित्र बनाते थे. कांगड़ा चित्रकला का मुख्य विषय श्रृंगार है.

कांगड़ा चित्रकला के पात्र उस समय के समाज की जीवन शैली दर्शाते थे. भक्ति सूत्र इसकी मुख्य शक्ति है और राधा-कृष्ण की प्रेम कथा इसका मुख्य भक्ति अनुभव है जिसे दिखने के लिए आधार मन है. भागवत पुराण और जयदेव की गीत गोविंद की प्रेम कविताएं इसका मुख्य विषय रहा है. राधा-कृष्ण की रासलीला को दर्शाते हुए आत्मा का परमात्मा के साथ मिलन दिखाया है. कुछ चित्रों में कृष्ण को वन में नाचते हुए दिखाया गया है, जहां सब गोपियों की नजरें उन्हीं पर है. कृष्ण लीला पर आधारित चित्र, चित्रकारों के प्रिय रहे हैं. प्रेम प्रसंग ही पहाड़ी चित्रकला का मुख्य विषयवस्तु रहा है. भागवत पुराण से प्रभावित कांगड़ा चित्र वृन्दावन और यमुना के साथ कृष्ण का बचपन दर्शाते हैं. इनमें दूसरा प्रिय विषय नल दमयन्ती की कहानियां हैं.

पुरातन भारतीय कांगड़ा चित्रकला में हरे रंग का प्रयोग अधिक मात्रा में हुआ है. यह शैली प्रकृतिवादी है और इसमें बहुत ध्यान से छोटी-छोटी चीजें विस्तार में बनाई गई हैं. कांगड़ा चित्रकला के खूबसूरत लक्षण फूल, पौधे, लता, नदी, बिना पत्तों के पेड़ आदि हैं. कांगड़ा चित्रकला लयबद्ध रंगों के लिए जानी जाती है. कलाकार ताजे मूल रंगों का प्रयोग कोमलता से करते हैं. कांगड़ा चित्रकला में स्त्री आकर्षण बहुत ही सुंदर ढंग से दिखाया जाता है. इनमें चेहरे कोमल, सुंदर तथा देहयष्टि सुगठित होती है. कालांतर में कांगड़ा चित्रकला में रात्रि के दृश्य और तूफान और बिजली गिरना भी बनाए गए. चित्र मूलत: बड़े होते हैं और बहुत सारी फिगर बनाई जाती है और विस्तार से प्राकृतिक दृश्य दिखाए जाते हैं.

समय के साथ-साथ यह कला लुप्त होती गई. इस कला की उन्नति के लिए कांगड़ा आर्ट प्रमोशन सोसाइटी धर्मशाला पिछले कुछ सालों से अहम भूमिका अदा कर रही है. संस्था एक कांगड़ा कलम का प्रशिक्षण दे रही है. अब धर्मशाला स्मार्ट सिटी परियोजना में कांगड़ा पेंटिंग को शामिल करने से एक बार फिर से कांगड़ा पेंटिंग के कला के विश्व मानचित्र पर चमकने की उम्मीद जगी है.

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