कांगड़ा: अटल की इन पंक्तियों की तरह बर्षा ने दिव्यांग होने के बाद भी हार नहीं मानी. जिंदगी में कुछ करने की रार ठानी. दिव्यांग होने के बाद भी उसका हौंसला अटल था. ज्वाली के दरकारी पंचायत की बर्षा को भगवान ने बचपन से दिव्यांग पैदा किया था, लेकिन अगर मन में कुछ कर गुजरने की चाहत हो तो इंसान कई चुनौतियों को पार कर कुछ ऐसा कर गुजरता है जो जिन्दगी से हार मान चुके लोगों के लिए भी प्रेरणा बन जाता है.
शारीरिक रूप से पूरी तरह अक्षम वर्षा ने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा, लेकिन उसकी कविता लेखनी में इतना दम है. जिसके सामने कई डिग्रीधारी भी फेल हो जाए. बर्षा कभी स्कूल की दहलीज तक नहीं पहुंच पाई, लेकिन उसके हौंसलों में उड़ान थी. घर में ही पढ़ना-लिखना सीखा. लगभग नौ साल की उम्र में लिखना शुरू किया. शुरू में जब लिखना नहीं आता था तो अपने भाई को बताकर अपने मन के भावों को कागज पर बयां करती थी. फिर धीरे-धीरे लिखना-पढ़ना सीखा.
बर्षा अब तक अब तक तीस कविताएं लिख चुकी है. निश्चित रूप से वर्षा चौधरी उन लोगों के लिए एक मिसाल है जो इंसान शारीरिक रूप से अक्षम होने या फिर किसी कारण से जिन्दगी से मुंह मोड़ चुके है.
वर्षा चौधरी द्वारा लिखी गयी कविताएं
आशा न छोड़ना तुम
स्याह अंधेरी रात में जुगनू सा जगमगाना तू,
ले आना आशा का सूर्य, इन उदासीन घनेरे बदलों से न घबराना तू,
पपीहे सा प्यासा रेहना, सावन बुझाये प्यास पर तृष्णा न बुझाना तू,
जब-जब हो जीवन में अंधियारा तब-तब आशा का बस एक दीप जलाना तू!
बर्षा खुद जिंदगी से जद्दोजहद कर रही है. लेकिन बर्षा की कविताएं जिंदगी से हार मान चुके लोगों को हिम्मत भी देती है.
होगा नामुमकिन सा ज़िन्दगी का हर सफर
दिखेंगीं मुश्किलें ही इधर-उधर
बस आशा की डोर थामे हर पहाड़ चढ़ जाना तुम
हो जाएगी हर मुश्किल आसान
बस आशा की राह छोड़ निराशा की गली में न चले जाना तुम!
गमों का समंदर डुबा देगा, मझधार में तेरी कश्ती लगा देगा
रखना यकीन खुदा पे, वो देके आशा का चप्पु, तेरी कश्ती उस पार पहुंचा देगा!
बर्षा की कविताओं में उसका दर्द और चेहरे का भाव साफ दिखता है. बर्षा जब लिखती है तो कलम की स्याही आंसू बनकर बहती है.
मैं क्या जानुं
दूध की पतिली खाली है
मैं कैसे कागज़ पर चांद बनाऊं
बेटी भूखी प्यासी है, घर में रोटी भी तो बासी है
मैं कैसे झूम के मल्हार सुनाऊं
बस यूं कर दूं अपनी कलम से सबको दिवाना
पर कुटिया में रौशनी का दीया कहां से सजाऊं.
पतझड़ में गिरते पत्तों की फड़फड़ाहट की झंकार का मजा, मैं क्या जानु
मेरी तो आंख में गरीबी की बदहाली है.
मां के हाथों में भी तो बदनसीबी के छाले हैं
मेरी तो कलम सियाही से खाली है
वर्षा की यह कविताएं वाकई में कविताओं में रूचि रखने वाले लोगों के मन में बहुत सुकून देती है, लेकिन सरकार, साहित्यकारों, कवियों का ध्यान कभी भी वर्षा की ओर नहीं गया. सरकार एक व्हील चेयर भी उसे नहीं दे सकी.