हमीरपुर: वीरभूमि हमीरपुर जिला के जवानों ने मां भारती की रक्षा में प्राण न्योछावर किए हैं. वीरभूमि हमीरपुर के टनेकड़ गांव के ऐसे ही एक वीर सपूत सुनील कुमार थे, जिन्होंने करगिल युद्ध में सर्वोच्च बलिदान देकर मातृभूमि की रक्षा में शहादत का जाम पिया. आज उनकी शहादत को 20 बरस हो गए हैं, लेकिन मां सत्या देवी की आंखें आज भी बेटे का नाम लेकर भर आती हैं.
18 जुलाई के दिन शहीद सुनील कुमार के गांव में एक शादी का समारोह था. इस दौरान बॉर्डर से टेलीग्राम आया कि बेटा शहीद हो गया है. 1965 और 71 की लड़ाई लड़ चुके पूर्व सैनिक पिता बेटे की शहादत की खबर सुनकर जहां थे वहीं पत्थर हो गए. शहादत की खबर सुनकर शादी समारोह फीका हो गया. पंक्तियों में खाना खाने बैठे लोगों से खाना भी छूट गया. गांव वालों ने जैसे तैसे माता पिता को संभाल कर घर तक पहुंचाया. बता दें कि सुनील कुमार साल 1995 में 20 साल की उम्र में सेना में भर्ती हुए थे और 18 जुलाई 1999 को शहीद हो गए.
बेटे को याद करते हुए मां सत्या देवी कहती हैं कि बेटे कि शहादत पर गर्व है. 20 साल बीत गए लेकिन ऐसा लगता है कि कल की बात हो. बेटे का नाम जुबां पर आते ही सत्या देवी का गला रूंध गया. नम आंखों से मां बोली कि घर में फोन अभी नया नया ही लगाया था.
10 जुलाई 1999 के उस दिन को याद करते हुए वह कहती हैं कि शाम का वक्त था बेटे सुनील का फोन आया. वह बोला मां 2 महीने बाद बहन की शादी है. इसलिए 10 हजार रुपये मनी ऑर्डर भेज रहा हूं. धाम के लिए चावल और अन्य सामान खरीद लेना. बहन की शादी से पहले बुआ के बेटे की शादी थी. उसमें सुनील ने आना था.
शादी 28 जुलाई को थी लेकिन बेटे की शहादत की खबर 18 जुलाई को ही आ गई. 21 जुलाई को सुनील के पार्थिव देह को पैतृक गांव लाया गया था. यहां पर राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार हुआ. सत्या देवी ने कहा कि 1965 और 71 में सुनील के पिता ने देश के लिए जंग लड़ी वह सही सलामत घर आए, लेकिन जब बेटा छोड़ कर गया तो वह टूट गए थे. रात रात को घर से बाहर जाकर रोते थे. उसके बाद से ही लगातार उनकी तबीयत बिगड़ गई. कुछ साल पहले ही उनका निधन हो गया है. बेटे के गम में ऐसा कोई दिन नहीं बीता जब वह रोते नहीं थे.
कारगिल शहीद सुनील कुमार की मां को सरकार से कोई मलाल नहीं है. हर वादे को सरकार ने पूरा किया है. गांव तक सड़क भी निकल रही है. बड़े बेटे को नौकरी भी मिली है. साथ ही एक पेट्रोल पंप भी शहीद के नाम मिला है.
शहीद सुनील के भाई मेहर चंद कहते हैं कि हर बार सुनील चिट्ठी में कहता था कि मेरा बड़ा भाई राम है और मैं लक्ष्मण हूं. खेलों से उसे बड़ा लगाव था. बचपन से ही भर्ती होने की बातें करता था. अंतिम बार ड्यूटी ज्वाइन करने के लिए घर से निकलने से पहले गांव के लड़कों के साथ खूब क्रिकेट खेला. पिता ने उसे डांटा भी कि ड्यूटी के लिए लेट हो जाएगा. सुनील ने जाते जाते अपने दोस्तों से कश्मीर से एक बढ़िया सा क्रिकेट बल्ला लेकर आउंगा.
मेहर चंद कहते हैं छोटे भाई की बात उन्हें आज भी याद है. उनके साथ वाले लड़के अब बड़े हो गए हैं, लेकिन गांव के बच्चों को वह क्रिकेट किट जरूर देंगे. शहीद भाई की पेंशन से मेडिकल कॉलेज हमीरपुर में हर दिन लगने वाले लंगर के लिए वह सहयोग देते हैं. उन्होंने कहा कि सुनील की ड्यूटी अमरनाथ यात्रा के लिए लगी थी. वह वहां के लिए रवाना हो रहे थे. इस दौरान अचानक बारूद का गोला लगने से मौके पर ही उनकी मौत हो गई. अमरनाथ ड्यूटी पर जाने से पहले उसने घर आना था, लेकिन वह नहीं आया. युद्ध के विषय पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि वह जंग के पक्ष में नहीं है, लेकिन देश पर खतरा आने पर इससे पीछे भी नहीं हटना चाहिए.
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