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अंतरराष्ट्रीय मिंजर मेला: सजने लगा चंबा का चौगान मैदान, जानिए ऐतिहासिक मेले का महत्व

चंबा में हर साल जुलाई महीने के अंत में शुरू होने वाला मिंजर मेला जल्द शुरू होने वाला है. ये मेला श्रावण मास के दूसरे रविवार को शुरू होकर सप्ताह भर चलता है.

अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू
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Published : Jul 23, 2019, 10:47 PM IST

चंबा: अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला 28 जुलाई से शुरू हो रहा है जिसे लेकर तैयारियां जोरों शोरों से शुरू हो गई हैं. चौगान मैदान में आयोजित होने वाले इस मेले से लोगों को काफी उमीदें होती हैं.

देवभूमि हिमाचल में देवी-देवताओं का वास कहा जाता है. यहां की संस्कृति और परंपराएं काफी अलग हैं. यूं तो प्रदेश भर बहुत से मेले, त्योहार और उत्सव मनाए जाते हैं, लेकिन शिवभूमि चंबा का मिंजर मेला प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देश भर में प्रसिद्ध है.

अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू

चंबा शहर राजा साहिल बर्मन द्वारा उनकी बेटी राजकुमारी चंपावती के कहने पर रावी नदी के किनारे बसाया गया था. इसीलिए इस शहर का नाम चंबा रखा गया था. इस मेले को अंतर्राष्ट्रीय मेले का दर्जा भी दिया गया है. ये मेला श्रावण मास के दूसरे रविवार को शुरू होकर सप्ताह भर चलता है.

अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू
अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू

इस मेले को क्यों मिला मिंजर का नाम
स्थानीय लोग मक्की और धान की बालियों को मिजर कहते हैं. इस मेले की शुरुआत रघुवीर जी और लक्ष्मीनारायण भगवान को धान और मक्की से बना मिंजर या मंजरी और लाल कपड़े पर गोटा जड़े मिंजर के साथ, एक रुपया, नारियल और ऋतुफल भेंट किए जाते हैं. मिंजर को एक सप्ताह बाद रावी नदी में प्रवाहित किया जाता है.

मक्की की कौंपलों से प्रेरित चंबा के इस ऐतिहासिक उत्सव में मुस्लिम समुदाय के लोग कौंपलों की तर्ज पर रेशम के धागे और मोतियों से पिरोई गई मिंजर तैयार करते हैं. इसे सबसे पहले लक्ष्मी नाथ मंदिर और रघुनाथ मंदिर में चढ़ाया जाता है और इसी परंपरा के साथ मिंजर महोत्सव की शुरुआत भी होती है.

अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू
अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू

हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक चंबा का मिंजर मेला
शाहजहां के शासनकाल के दौरान सूर्यवंशी राजा पृथ्वीसिंह रघुवीर जी को चंबा लाए थे. शाहजहां ने मिर्जा साफी बेग को रघुवीर जी के साथ राजदूत के रूप में भेजा था. मिर्जा साहब जरी गोटे के कम में माहिर थे. चंबा पहुंचने पर उन्होंने जरी का मिंजर बना कर रघुवीर जी, लक्ष्मीनारायण भगवान और राजा पृथ्वीसिंह को भेंट किया था. तब से मिंजर मेले का आगाज मिर्जा साहब के परिवार का वरिष्ठ सदस्य रघुवीर जी को मिंजर भेंट करके करता है.

सदियों पुरानी परंपरा के अनुसार आज भी मिर्जा परिवार के सदस्यों द्वारा मिंजर तैयार कर भगवान रघुवीर को अर्पित किया जाता है. इसके बाद ही विधिवत रूप से मिंजर मेले का आगाज होता है और मौजूदा समय में भी इस परिवार का वरिष्ठ सदस्य इस परंपरा को पूरी निष्ठा के साथ निभा रहा है.

अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू
अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू

मिंजर मेले की परंपराएं
मिंजर मेले में पहले दिन भगवान रघुवीर जी की रथ यात्रा निकलती है और इसे रस्सियों से खींचकर चंबा के ऐतिहासिक चौगान तक लाया जाता है जहां से मेले का आगाज होता है. भगवान रघुवीर जी के साथ आसपास के 200 से ज्यादा देवी-देवता भी वहां पहुंचते हैं. मिर्जा परिवार सबसे पहले मिंजर भेंट करता है.

रियासत काल में राजा मिंजर मेले में ऋतुफल और मिठाई भेंट करता था, लेकिन अब ये काम प्रशासन करता है। उस समय घर-घर में ऋतुगीत और कूंजड़ी-मल्हार गाए जाते थे. अब स्थानीय कलाकार मेले में इस परंपरा को निभाते हैं. मिंजर मेले की मुख्य शोभायात्रा राजमहल अखंड चंडी से चौगान से होते हुए रावी नदी के किनारे तक पहुंचती है.

भैंसे की दी जाती थी बली
1943 तक भैंसे की बली दी जाती थी. इसके अनुसार जीवित भैंसे को नदी में बहा दिया जाता था और ये आने वाले साल में राज्य के भविष्य को दर्शाता था. अगर पानी का बहाव भैंसे को साथ ले जाता था और वह डूबता नहीं था तो उसे अच्छा माना जाता था और माना जाता था कि बली स्वीकार हुई. अगर भैंसा बच जाता और नदी के दूसरे किनारे चला जाए तो उसे ढी अच्छा माना जाता था कि दुर्भाग्य दूसरी ओर चला गया है. अगर भैंसा उसी तरफ वापस आ जाता था तो उसे बुरा माना जाता था. अब भैंसे की जगह सांकेतिक रूप से नारियल की बली दी जाती है. विभाजन के बाद पाकिस्तान गए लोग भी रावी नदी के किनारे मिंजर प्रवाहित करते हैं और कूंजड़ी-मल्हार गाते हैं. 1948 से रघुवीर जी रथयात्रा की अगुवाई करते हैं.

आजादी के पूर्व क्या थी मिंजर परंपरा
चंबा के प्रसिद्ध लेखक व इतिहासकार कमल प्रसाद शर्मा की मानें तो उन्हें आज भी 1946 की वो मिंजर याद है. जब वे सात या आठ साल के रहे होंगे. उस समय चंबा में झोटे (भैंस) को रावी नदी पर उतारा जाता था. उस समय मान्यता थी कि यदि झोटा रावी के पार पहुंच जाए तो चंबा नगर के सभी दुख और कष्ट खत्म हो जाएंगे. लोगों की भीड़ दूरदराज के गांवों से मिंजर में सिर्फ अंतिम दिन यात्रा को देखने के लिए आती थी. 1947 में इस प्रथा को खत्म कर दिया गया और अब सिर्फ मिंजर का ही विसर्जन होना शुरू हुआ है. उस समय पशु क्रूरता अधिनियम को लेकर सरकार सख्त हो गई .

ये भी पढे़ं - हिमाचल में इस बार भी नहीं होंगे छात्र संघ चुनाव, CM बोले- समस्या समाधान के और भी है माध्यम

चंबा: अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला 28 जुलाई से शुरू हो रहा है जिसे लेकर तैयारियां जोरों शोरों से शुरू हो गई हैं. चौगान मैदान में आयोजित होने वाले इस मेले से लोगों को काफी उमीदें होती हैं.

देवभूमि हिमाचल में देवी-देवताओं का वास कहा जाता है. यहां की संस्कृति और परंपराएं काफी अलग हैं. यूं तो प्रदेश भर बहुत से मेले, त्योहार और उत्सव मनाए जाते हैं, लेकिन शिवभूमि चंबा का मिंजर मेला प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देश भर में प्रसिद्ध है.

अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू

चंबा शहर राजा साहिल बर्मन द्वारा उनकी बेटी राजकुमारी चंपावती के कहने पर रावी नदी के किनारे बसाया गया था. इसीलिए इस शहर का नाम चंबा रखा गया था. इस मेले को अंतर्राष्ट्रीय मेले का दर्जा भी दिया गया है. ये मेला श्रावण मास के दूसरे रविवार को शुरू होकर सप्ताह भर चलता है.

अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू
अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू

इस मेले को क्यों मिला मिंजर का नाम
स्थानीय लोग मक्की और धान की बालियों को मिजर कहते हैं. इस मेले की शुरुआत रघुवीर जी और लक्ष्मीनारायण भगवान को धान और मक्की से बना मिंजर या मंजरी और लाल कपड़े पर गोटा जड़े मिंजर के साथ, एक रुपया, नारियल और ऋतुफल भेंट किए जाते हैं. मिंजर को एक सप्ताह बाद रावी नदी में प्रवाहित किया जाता है.

मक्की की कौंपलों से प्रेरित चंबा के इस ऐतिहासिक उत्सव में मुस्लिम समुदाय के लोग कौंपलों की तर्ज पर रेशम के धागे और मोतियों से पिरोई गई मिंजर तैयार करते हैं. इसे सबसे पहले लक्ष्मी नाथ मंदिर और रघुनाथ मंदिर में चढ़ाया जाता है और इसी परंपरा के साथ मिंजर महोत्सव की शुरुआत भी होती है.

अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू
अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू

हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक चंबा का मिंजर मेला
शाहजहां के शासनकाल के दौरान सूर्यवंशी राजा पृथ्वीसिंह रघुवीर जी को चंबा लाए थे. शाहजहां ने मिर्जा साफी बेग को रघुवीर जी के साथ राजदूत के रूप में भेजा था. मिर्जा साहब जरी गोटे के कम में माहिर थे. चंबा पहुंचने पर उन्होंने जरी का मिंजर बना कर रघुवीर जी, लक्ष्मीनारायण भगवान और राजा पृथ्वीसिंह को भेंट किया था. तब से मिंजर मेले का आगाज मिर्जा साहब के परिवार का वरिष्ठ सदस्य रघुवीर जी को मिंजर भेंट करके करता है.

सदियों पुरानी परंपरा के अनुसार आज भी मिर्जा परिवार के सदस्यों द्वारा मिंजर तैयार कर भगवान रघुवीर को अर्पित किया जाता है. इसके बाद ही विधिवत रूप से मिंजर मेले का आगाज होता है और मौजूदा समय में भी इस परिवार का वरिष्ठ सदस्य इस परंपरा को पूरी निष्ठा के साथ निभा रहा है.

अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू
अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला की तैयारियां शुरू

मिंजर मेले की परंपराएं
मिंजर मेले में पहले दिन भगवान रघुवीर जी की रथ यात्रा निकलती है और इसे रस्सियों से खींचकर चंबा के ऐतिहासिक चौगान तक लाया जाता है जहां से मेले का आगाज होता है. भगवान रघुवीर जी के साथ आसपास के 200 से ज्यादा देवी-देवता भी वहां पहुंचते हैं. मिर्जा परिवार सबसे पहले मिंजर भेंट करता है.

रियासत काल में राजा मिंजर मेले में ऋतुफल और मिठाई भेंट करता था, लेकिन अब ये काम प्रशासन करता है। उस समय घर-घर में ऋतुगीत और कूंजड़ी-मल्हार गाए जाते थे. अब स्थानीय कलाकार मेले में इस परंपरा को निभाते हैं. मिंजर मेले की मुख्य शोभायात्रा राजमहल अखंड चंडी से चौगान से होते हुए रावी नदी के किनारे तक पहुंचती है.

भैंसे की दी जाती थी बली
1943 तक भैंसे की बली दी जाती थी. इसके अनुसार जीवित भैंसे को नदी में बहा दिया जाता था और ये आने वाले साल में राज्य के भविष्य को दर्शाता था. अगर पानी का बहाव भैंसे को साथ ले जाता था और वह डूबता नहीं था तो उसे अच्छा माना जाता था और माना जाता था कि बली स्वीकार हुई. अगर भैंसा बच जाता और नदी के दूसरे किनारे चला जाए तो उसे ढी अच्छा माना जाता था कि दुर्भाग्य दूसरी ओर चला गया है. अगर भैंसा उसी तरफ वापस आ जाता था तो उसे बुरा माना जाता था. अब भैंसे की जगह सांकेतिक रूप से नारियल की बली दी जाती है. विभाजन के बाद पाकिस्तान गए लोग भी रावी नदी के किनारे मिंजर प्रवाहित करते हैं और कूंजड़ी-मल्हार गाते हैं. 1948 से रघुवीर जी रथयात्रा की अगुवाई करते हैं.

आजादी के पूर्व क्या थी मिंजर परंपरा
चंबा के प्रसिद्ध लेखक व इतिहासकार कमल प्रसाद शर्मा की मानें तो उन्हें आज भी 1946 की वो मिंजर याद है. जब वे सात या आठ साल के रहे होंगे. उस समय चंबा में झोटे (भैंस) को रावी नदी पर उतारा जाता था. उस समय मान्यता थी कि यदि झोटा रावी के पार पहुंच जाए तो चंबा नगर के सभी दुख और कष्ट खत्म हो जाएंगे. लोगों की भीड़ दूरदराज के गांवों से मिंजर में सिर्फ अंतिम दिन यात्रा को देखने के लिए आती थी. 1947 में इस प्रथा को खत्म कर दिया गया और अब सिर्फ मिंजर का ही विसर्जन होना शुरू हुआ है. उस समय पशु क्रूरता अधिनियम को लेकर सरकार सख्त हो गई .

ये भी पढे़ं - हिमाचल में इस बार भी नहीं होंगे छात्र संघ चुनाव, CM बोले- समस्या समाधान के और भी है माध्यम

Intro:अंतराष्ट्रीय मिंजर मेले को लेकर सजने लगा चंबा , चोगान में दुकाने लगाने के लिए बाहरी राज्यों से पहुँच रहे लोग सैट दिन तक चलेगा चंबा मिंजर मेला .

चंबा जिला के अंतराष्ट्रीय मिंजर मेला 28 जुलाई से शुरू हो रहा हैं जिसको लेकर तैयारियां जोरो शोरो से शुरू हो गई हैं ,आपको बाते चले की की चंबा जिला के चोगान में आयोजित होने वाले इस मेले से लोगों को काफी उमीदें होती हैं ,हर साल जुलाई महीने के अंत में शुरू होने वाले इस त्यौहार को हर्षोलाश के साथ मनाया जाता हैं ,इस मिंजर मेले को लेकर तैयारियां शुरू हो गई है चंबा के एतिहासिक चोगान में दुकाने लगाने के लिए बाहरी राज्यों से लोग पहुँच रहे है

,मक्की की कौंपलों को ही मिंजर कहते हैदेवभूमि हिमाचल में देवी-देवताओं का वास कहा जाता है। यहाँ की संस्कृति और परंपराएं काफी अलग हैं। यूँ तो प्रदेश भर बहुत से मेले, त्यौहार और उत्सव मनाए जाते हैं लेकिन शिवभूमि चंबा का मिजर मेला प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देश भर में प्रसिद्ध है। चंबा शहर राजा साहिल बर्मन द्वारा उनकी बेटी राजकुमारी चंपावती के कहने पर रावी नदी के किनारे बसाया गया था। इसीलिए इस शहर का नाम चंबा रखा गया था। इस मेले को अंतर्राष्ट्रीय मेले का दर्जा दिया गया है। यह मेला श्रावण मास के दूसरे रविवार को शुरू होकर सप्ताह भर चलता है।

इस मेले को क्यों मिला मिंजर का नाम

स्थानीय लोग मक्की और धान की बालियों को मिजर कहते हैं। इस मेले का आरंभ रघुवीर जी और लक्ष्मीनारायण भगवान को धान और मक्की से बना मिंजर या मंजरी और लाल कपड़े पर गोटा जड़े मिंजर के साथ, एक रूपया, नारियल और ऋतुफल भेट किए जाते हैं। इस मिंजर को एक सप्ताह बाद रावी नदी में प्रवाहित किया जाता है।मक्की की कौंपलों से प्रेरित चंबा के इस ऐतिहासिक उत्सव में मुस्लिम समुदाय के लोग कौंपलों की तर्ज पर रेशम के धागे और मोतियों से पिरोई गई मिंजर तैयार करते हैं। जिसे सर्वप्रथम लक्ष्मी नाथ मंदिर और रघुनाथ मंदिर में चढ़ाया जाता है और इसी परंपरा के साथ मिंजर महोत्सव की शुरूआत भी होती है,Body:हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक हैं चंबा का मिंजर मेला

शाहजहां के शासनकाल के दौरान सूर्यवंशी राजा पृथ्वीसिंह रघुवीर जी को चंबा लाए थे। शाहजहां ने मिर्जा साफी बेग को रघुवीर जी के साथ राजदूत के रूप में भेजा था। मिर्जा साहब जरी गोटे के कम में माहिर थे। चंबा पहुंचने पर उन्होंने जरी का मिंजर बना कर रघुवीर जी, लक्ष्मीनारायण भगवान और राजा पृथ्वीसिंह को भेंट किया था। तब से मिंजर मेले का आगाज़ मिर्जा साहब के परिवार का वरिष्ठ सदस्य रघुवीर जी को मिंजर भेंट करके करता है। इससे सिद्ध होता है कि चंबा और संपूर्ण भारत धर्म निरपेक्ष था।सदियों पुरानी परंपरा के अनुसार आज भी मिर्जा परिवार के सदस्यों द्वारा मिंजर तैयार कर भगवान रघुवीर को अर्पित किया जाता है। जिसके बाद ही विधिवत रूप से मिंजर मेले का आगाज होता है और मौजूदा समय में भी इस परिवार का वरिष्ठ सदस्य इस परंपरा को पूरी निष्ठा के साथ निभा रहा है।

मिंजर मेले की परंपराएं

मिंजर मेले में पहले दिन भगवान रघुवीर जी की रथ यात्रा निकलती है और इसे रस्सियों से खींचकर चंबा के ऐतिहासिक चौगान तक लाया जाता है जहां से मेले का आगाज़ होता है। भगवान रघुवीर जी के साथ आसपास के 200 से ज्यादा देवी-देवता भी वहां पहुंचते हैं। मिर्जा परिवार सबसे पहले मिंजर भेंट करता है। रियासत काल में राजा मिंजर मेले में ऋतुफल और मिठाई भेंट करता था लेकिन अब यह काम प्रशासन करता है। उस समय घर-घर में ऋतुगीत और कूंजड़ी-मल्हार गाए जाते थे। अब स्थानीय कलाकार मेले में इस परंपरा को निभाते हैं। मिंजर मेले की मुख्य शोभायात्रा राजमहल अखंड चंडी से चौगान से होते हुए रावी नदी के किनारे तक पहुंचती है। यहाँ मिंजर के साथ लाल कपड़े में नारियल लपेट कर, एक रूपया और फल-मिठाई नदी में प्रवाहित की जाती है।
Conclusion:दी जाती थी भैंसे की बली

1943 तक भैंसे की बली दी जाती थी। इसके अनुसार जीवित भैंसे को नदी में बहा दिया जाता था और यह आने वाले साल में राज्य के भविष्य को दर्शाता था। अगर पानी का बहाव भैंसे को साथ ले जाता था और वह डूबता नहीं था तो उसे अच्छा माना जाता था और माना जाता था कि बली स्वीकार हुई। अगर भैंसा बच जाता और नदी के दूसरे किनारे चला जाए तो उसे ढी अच्छा माना जाता था कि दुर्भाग्य दूसरी ओर चला गया है। अगर भैंसा उसी तरफ वापिस आ जाता था तो उसे बुरा माना जाता था। अब भैंसे की जगह सांकेतिक रूप से नारियल की बली दी जाती है। विभाजन के बाद पाकिस्तान गए लोग भी रावी नदी के किनारे मिंजर प्रवाहित करते हैं और कूंजड़ी-मल्हार गाते हैं। 1948 से रघुवीर जी रथयात्रा की अगुवाई करते हैं।


आजादी के पूर्व क्या थी मिंजर परंपरा

चंबा के प्रसिद्ध लेखक व इतिहासकार कमल प्रसाद शर्मा की मानें तो उन्हें आज भी 1946 की वो मिंजर याद है। जब वे सात या आठ साल के रहे होंगे। उस समय चंबा में झोटे (भैंस) को रावी नदी पर उतारा जाता था। उस समय मान्यता थी कि यदि झोटा रावी के पार पहुंच जाए तो चंबा नगर के सभी दुख और कष्ट खत्म हो जाएंगे। लोगों की भीड़ दूरदराज के गांवों से मिंजर में सिर्फ अंतिम दिन यात्रा को देखने के लिए आती थी। 1947 में इस प्रथा को खत्म कर दिया गया और अब सिर्फ मिंजर का ही विसर्जन होना शुरू हुआ है। उस समय पशु क्रूरता अधिनियम को लेकर सरकार सख्त हो गई .

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