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अंतरराष्ट्रीय लवी मेले में दिखेगी हिमाचली संस्कृति की झलक, जानें क्या है इस मेले का इतिहास

11 नवंबर से 14 नवंबर तक मनाया जाने वाला अंतराष्ट्रीय लवी मेला हिमाचल की प्राचीन सभ्यता को दर्शाता है. लवी मेला न केवल हिमाचली संस्कृति को विश्व पटल पर अंकित करता है, बल्कि आज के मॉडर्न जमाने को हिमचाल की सभ्यता से रुबरु भी करवाता है.

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Published : Nov 10, 2019, 7:51 PM IST

International Lavi fair rampur

रामपुर: जिला शिमला के उपमंडल रामपुर में शुरु होने वाला अंतराष्ट्रीय लवी मेला पुरातन इतिहास, परंपरा और संस्कृति का प्रतीक है. शिमला के जिले के रामपुर बुशहर में मनाया जाने अंतरराष्ट्रीय लवी मेला इस बार 11 से 14 नवंबर तक आयोजित होगा. यह मेला न केवल अपनी संस्कृति बल्कि व्यापारिक मेले के रूप में भी प्रसिद्ध है.

प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र में पुरातन समय से विदेशों से व्यापार की परंपरा बहुत पुरानी रही है. कुल्लू दशहरा और रामपुर लवी मेला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. इन मेलों से लोग अपने साल भर की आवश्यक वस्तुओं की खरीदारी कर लिया करते थे. अत्याधिक शीत और हिमपात के कारण जनजातीय क्षेत्रों में ऐसे अवसरों पर ही जरूरी वस्तुएं खरीद कर रख ली जाती थीं, जिससे साल भर गुजारा किया जाता था.

लवी मेले का इतिहास
रामपुर सतलुज के किनारे समुद्र तल से 924 मीटर की ऊंचाई पर बसा है. जहां बुशहर रियासत का महल है. सन 1767 से 1799 तक रामपुर के राजाराम सिंह की राजधानी के रूप में जानी जाती थी. जिससे पहले सन 1639 से 1696 के समय में ही लवी मेले का शुभारंभ हो गया था. जिसका मुख्य कारण राजा केहर सिंह के समय में तिब्बत से संधि के बाद रामपुर में राजधानी बनने पर इस मेले का महत्व और भी बढ़ गया था.

वीडियो रिपोर्ट.

बता दें कि लद्दाख और तिब्बत के बीच संघर्ष चला हुआ था. सन 1681 में यह संघर्ष युद्ध में बदल गया. लद्दाख और तिब्बत के बीच युद्ध का लाभ उठाते हुए केहर सिंह ने किन्नौर का क्षेत्र जो लद्दाख के अधीन था, उसे छुड़ाने की योजना बनाई. तभी केहर सिंह सेना लेकर पश्चिमी तिब्बत की ओर गया. जहां मानसरोवर के पास उनकी भेंट तिब्बत के शासक से हुई जो लद्दाख की और युद्ध के लिए जा रहा था. दोनों राजाओं का उद्देश्य लोहा लेना था अतः दोनों में संधि हो गई.

क्या थी दोनों राजाओं के बीच हुई ऐतिहासिक संधि?
दोनों राजाओं की संधि के अनुसार तिब्बत और बुशहर के व्यापारी निर्भया होकर अपना सामना (ऊन और पश्मीना ) दोनों क्षेत्रों में बेच सकते थे. संधि के बाद लवी मेले को व्यापारिक रंग मिला. व्यापारी बेरोकटोक तिब्बत से आने-जाने लगे और मेले में पश्मीना, पट्टू, दुपट्टे, शिलाजीत, बादाम, चिलगोजा, सूखे मेवे, पहाड़ी चाय ,काला जीरा ,सेब आदि का क्रय-विक्रय करने लगे.

मेले में भेड़ बकरियों और घोड़ों का व्यापार भी किया जाता था. पुराने समय में लोग मीलों सफर तय करते हुए घूंट नस्ल के घोड़े और भेड़ बकरियों को पर्याप्त मात्रा में लाते थे. घोड़े और भेड़ बकरियों का प्रयोग बोझा ढोने के लिए किया जाता था. इन पशुओं की पीठ पर ही सामान लादकर लाया जाता था.

इसके साथ मैदानों से भी व्यापारी आने लगे. पुराने समय में यह मेला सीमावर्ती इलाकों के लिए एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मंडी के रूप में विकसित हुआ. लवी के विधिवत खोलने की घोषणा राजा बुशहर द्वारा ही की गई. रियासत के लोगों के परामर्श से ही क्रय-विक्रय आरंभ होता था.

अंतराष्ट्रीय लवी मेले की मौजूदा स्थिति
यह मेला 11 नवंबर से 14 नवंबर तक मनाया जाता है. वर्तमान में इस मेले को राजस्व राज्य स्तरीय उत्सव का दर्जा प्राप्त है. कुछ वर्ष पहले तक यह मेला रामपुर बाजार के साथ-साथ लगता था, लेकिन मेले के आयोजन के लिए बाजार से आगे मेला ग्राउंड बना दिया गया है. जहां विभिन्न विभागों की विकास सदस्यों के साथ मेले के लिए अलग-अलग बाजार बनाए जाते हैं. जिसका पुरातन स्वरूप भी देखा जा सकता है.

किन्नौर से आने वाले व्यापारी पूरे लवी मेले के दौरान रामपुर में ही अपना डेरा जमा लेते हैं. किन्नौरी सभ्यता की पट्टू-कोट की पटियां, बदाम, चिलगोजा, खुरमानियां, शिलाजीत और कई वस्तुएं किन्नौर के व्यापारी मेले के दौरान बेचते हैं. स्पीति, कुल्लू और शिमला के भीतरी भागों से व्यापारी अपना परंपरागत समान लेकर उत्साह से मेले में भाग लेते हैं.

रामपुर: जिला शिमला के उपमंडल रामपुर में शुरु होने वाला अंतराष्ट्रीय लवी मेला पुरातन इतिहास, परंपरा और संस्कृति का प्रतीक है. शिमला के जिले के रामपुर बुशहर में मनाया जाने अंतरराष्ट्रीय लवी मेला इस बार 11 से 14 नवंबर तक आयोजित होगा. यह मेला न केवल अपनी संस्कृति बल्कि व्यापारिक मेले के रूप में भी प्रसिद्ध है.

प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र में पुरातन समय से विदेशों से व्यापार की परंपरा बहुत पुरानी रही है. कुल्लू दशहरा और रामपुर लवी मेला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. इन मेलों से लोग अपने साल भर की आवश्यक वस्तुओं की खरीदारी कर लिया करते थे. अत्याधिक शीत और हिमपात के कारण जनजातीय क्षेत्रों में ऐसे अवसरों पर ही जरूरी वस्तुएं खरीद कर रख ली जाती थीं, जिससे साल भर गुजारा किया जाता था.

लवी मेले का इतिहास
रामपुर सतलुज के किनारे समुद्र तल से 924 मीटर की ऊंचाई पर बसा है. जहां बुशहर रियासत का महल है. सन 1767 से 1799 तक रामपुर के राजाराम सिंह की राजधानी के रूप में जानी जाती थी. जिससे पहले सन 1639 से 1696 के समय में ही लवी मेले का शुभारंभ हो गया था. जिसका मुख्य कारण राजा केहर सिंह के समय में तिब्बत से संधि के बाद रामपुर में राजधानी बनने पर इस मेले का महत्व और भी बढ़ गया था.

वीडियो रिपोर्ट.

बता दें कि लद्दाख और तिब्बत के बीच संघर्ष चला हुआ था. सन 1681 में यह संघर्ष युद्ध में बदल गया. लद्दाख और तिब्बत के बीच युद्ध का लाभ उठाते हुए केहर सिंह ने किन्नौर का क्षेत्र जो लद्दाख के अधीन था, उसे छुड़ाने की योजना बनाई. तभी केहर सिंह सेना लेकर पश्चिमी तिब्बत की ओर गया. जहां मानसरोवर के पास उनकी भेंट तिब्बत के शासक से हुई जो लद्दाख की और युद्ध के लिए जा रहा था. दोनों राजाओं का उद्देश्य लोहा लेना था अतः दोनों में संधि हो गई.

क्या थी दोनों राजाओं के बीच हुई ऐतिहासिक संधि?
दोनों राजाओं की संधि के अनुसार तिब्बत और बुशहर के व्यापारी निर्भया होकर अपना सामना (ऊन और पश्मीना ) दोनों क्षेत्रों में बेच सकते थे. संधि के बाद लवी मेले को व्यापारिक रंग मिला. व्यापारी बेरोकटोक तिब्बत से आने-जाने लगे और मेले में पश्मीना, पट्टू, दुपट्टे, शिलाजीत, बादाम, चिलगोजा, सूखे मेवे, पहाड़ी चाय ,काला जीरा ,सेब आदि का क्रय-विक्रय करने लगे.

मेले में भेड़ बकरियों और घोड़ों का व्यापार भी किया जाता था. पुराने समय में लोग मीलों सफर तय करते हुए घूंट नस्ल के घोड़े और भेड़ बकरियों को पर्याप्त मात्रा में लाते थे. घोड़े और भेड़ बकरियों का प्रयोग बोझा ढोने के लिए किया जाता था. इन पशुओं की पीठ पर ही सामान लादकर लाया जाता था.

इसके साथ मैदानों से भी व्यापारी आने लगे. पुराने समय में यह मेला सीमावर्ती इलाकों के लिए एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मंडी के रूप में विकसित हुआ. लवी के विधिवत खोलने की घोषणा राजा बुशहर द्वारा ही की गई. रियासत के लोगों के परामर्श से ही क्रय-विक्रय आरंभ होता था.

अंतराष्ट्रीय लवी मेले की मौजूदा स्थिति
यह मेला 11 नवंबर से 14 नवंबर तक मनाया जाता है. वर्तमान में इस मेले को राजस्व राज्य स्तरीय उत्सव का दर्जा प्राप्त है. कुछ वर्ष पहले तक यह मेला रामपुर बाजार के साथ-साथ लगता था, लेकिन मेले के आयोजन के लिए बाजार से आगे मेला ग्राउंड बना दिया गया है. जहां विभिन्न विभागों की विकास सदस्यों के साथ मेले के लिए अलग-अलग बाजार बनाए जाते हैं. जिसका पुरातन स्वरूप भी देखा जा सकता है.

किन्नौर से आने वाले व्यापारी पूरे लवी मेले के दौरान रामपुर में ही अपना डेरा जमा लेते हैं. किन्नौरी सभ्यता की पट्टू-कोट की पटियां, बदाम, चिलगोजा, खुरमानियां, शिलाजीत और कई वस्तुएं किन्नौर के व्यापारी मेले के दौरान बेचते हैं. स्पीति, कुल्लू और शिमला के भीतरी भागों से व्यापारी अपना परंपरागत समान लेकर उत्साह से मेले में भाग लेते हैं.

Intro:रामपुर बुशहर 10 नवम्बर मीनाक्षी


Body:रामपुर का लवी मेला पुरातन इतिहास परंपरा और संस्कृति का प्रतीक है । यह मेला व्यापारिक मेले के रूप में प्रसिद्ध है । प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र में पुरातन समय से विदेशों से व्यापार की परंपरा बहुत पुरानी है। कुल्लू दशहरा और रामपुर लवी मेला इसके उदाहरण है। इन मेलों से लोग अपने साल भर की आवश्यक वस्तुओं का क्रय ऐसे अवसरों पर कर लिया करते थे। अत्याधिक शीत व हिमपात के कारण जनजातीय क्षेत्रों में ऐसे अवसरों पर ही जरूरी वस्तुएं खरीद कर रख ली जाती ताकि वर्ष भर का गुजारा चल सके ।
प्रदेश के निचले क्षेत्रों में भी आवश्यक वस्तुओं की खरीद मेलों में कर ली जाती थी चाहे वह पशुधन हो चाहे दूसरा सामान सारे सामान की एक जगह उपलब्धता भी ऐसे मेलों में ही हो पाती थी। जहां आज के बिग बाजार की तरह सारा सामान एक साथ एक जगह देखा जा सकता था।
रामपुर सतलुज के किनारे समुद्र तल से 924 मीटर की ऊंचाई पर बसा है जहां बुशहर रियासत के महल है ।
रामपुर संभवत राजाराम सिंह 1767 से 1799 केसर की राजधानी कहा जाता है कि राजधानी बनाने से पहले ही राजा केहर सिंह 1639 से 1696 के समय में ही लवी मेले का शुभारंभ हो गया था क्योंकि तिब्बत से संधि इसके समय
में हुई रामपुर में राजधानी बनने पर इस मेले का महत्व और भी बढ़ गया ।

लदाक और तिब्बत के बीच संघर्ष चला हुआ था सन 1681 में युद्ध छिड़ गया लदाख और तिब्बत के बीच युद्ध का लाभ उठाते हुए केहर सिंह ने किननौर का क्षेत्र जो लद्दाख के अधीन था। छुड़ाने की योजना बनाई।
तभी केहर सिंह सेना लेकर पश्चिमी तिब्बत की ओर गया जहां मानसरोवर के पास उसकी भेंट तिब्बत के शासक से हुई जो लद्दाख की और युद्ध के लिए जा रहा था ।दोनों राजाओं का उद्देश्य लोहा लेना था अतः दोनों में संधि हो गई।



संदेशवाहक राज कर्मचारी और राजदूत स्वच्छंद इलाके में आ जा सकेंगे । आवश्यक होगा कि वह राज्य के संदेशवाहक 3 वर्ष से आए संदेशवाहक को ऊपर और नीचे अर्थात तिब्बत और वो शहर में आते जाने पर भी तंग ना किया जाए । और किसी प्रकार का कर ना लिया जाए । और ना ही कोई कष्ट पहुंचाया जाए ।

ऊपर और नीचे के राजा अपने सत्य कार्यों में ऐसी व्यवस्थाएं बनाए जिससे आने जाने वाले लोग निर्भय होकर विश और घातक हथियारों से सर्वथा मुक्त होकर विचरण करें।
इस संधि के अनुसार तिब्बत और बुशहर के व्यापारी निर्भया होकर आने-जाने लगे तिब्बत के व्यापारी उन और पश्म
बेचने के लिए ला सकते थे । इसी प्रकार व शहर के व्यापारी तिब्बत जाकर उन कपड़ा अनाज नमक बेच सकते थे ।
संधि के बाद लवी मेले को व्यापारिक रंग मिला बेरोकटोक तिब्बत से व्यापारी आने जाने लगे और मेले में पश्म, पट्टू, दुपट्टे, शिलाजीत , बादाम ,चिलगोजा ,सूखे मेवे, पहाड़ी चाय ,काला जीरा ,सेब आदि का क्रय विक्रय करने लगे ।
मेले में भेड़ बकरियों और घोड़ों का व्यापार भी होता था पुराने समय में लोग मिलो सफर तय करते हुए घूंट नस्ल के घोड़े तथा भेड़ बकरियों पर्याप्त मात्रा में लाते थे। घोड़े और भेड़ बकरियों का प्रयोग बोझा ढोने के लिए किया जाता था । इन पशुओं की पीठ पर ही सामान लादकर लाया जाता था । और बदाम चिलगोजा ,खुरमानी ,जीरा ,शिलाजीत आदि यहां से ले जाया जाता था । नमक और चीनी का भी बहुत महत्व था अतः इस का लेनदेन भी किया जाता था । इसके साथ मैदानों से भी व्यापारी आने लगे पुराने समय में यह मिला सीमावर्ती इलाकों के लिए एक महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय मंडी के रूप में विकसित हुआ लवी के विधिवत खोलने की घोषणा राजा बुशहर द्वारा की
रियासत के लोगों के परामर्श से ही क्रय-विक्रय आरंभ होता तिब्बती सन 1947 तक चलती रही ।
अब यह मेला 11 नवंबर से 14 नवंबर तक मनाया जाता है वर्तमान में इस मेले को राजस्व राज्य स्तरीय उत्सव का दर्जा प्राप्त है कुछ वर्ष पहले तक एवं मेला रामपुर बाजार के साथ-साथ लगता था सड़क के साथ ऊपर की और महल है तो नीचे की और बाजार यह बाजार वैसे ही आसपास के क्षेत्र तक इंदौर के लिए एक ऊपर की बड़ी मंडी है मेले के दौरान बाजार तो बहुत ही सस्ता है यही रात को संस्कृति कार्यक्रम किए जाते हैं ।
किंतु मेले के आयोजन के लिए बाजार से आगे मेला ग्राउंड बना दिया गया है जहां विभिन्न विभागों की विकास सदस्यों के साथ मेले के लिए अलग-अलग बाजार बनाए जाते हैं पुरातन स्वरूप भी देखा जा सकता है।


कि नोट से आने वाले व्यापारी सपरिवार वही कहते हैं वही भोजन बनाते हैं वही सोते हैं अपनी मस्ती में नाचते गाते यह पूरे मेले में यही रहता है शमशान पट्टू कोर्ट की पटिया बदाम चिलगोजा काला जीरा की कुर्बानियां शिलाजीत और कई वस्तुएं किनौरी से यहां बिक्री के लिए रखे जाते हैं कोर्ट की 19 महीने और मुलायम तैयार की जाती है जो विदेशी फ्रेंड की तरह लगती है विशेष किनौरी डिजाइन की साले बड़ी कीमती कीमती है अब क्यों नहीं आते हैं किंतु भारत चीन व्यापार संधि के अनुसार तू के 11 किलोमीटर दूर न में तिब्बत से कुछ सामान लाया आता है जिसमें मक्खन आदि शामिल है इस सामान को मेले में भी लाया जाता है और स्पीति कुल्लू तथा शिमला के भीतर भागों से व्यापारी अपना परंपरागत समान लेकर उत्साह से मेले में भाग लेते हैं चरमूर्ति नस्ल के घोड़े भी प्रदर्शनी भी कुछ वर्ष आरंभ हो गई है इस मेले में भी वे तमाम चीजें भेजने के लिए रखी जाती है जो मेलों में होती है किंतु लोग अभी भी परंपरागत सामान की खरीद के लिए इस मेले में विशेष रूप से आते हैं।



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