कुल्लू: जिला कुल्लू के मुख्यालय ढालपुर मैदान में अतंरराष्ट्रीय स्तर पर मनाए जा रहे कुल्लू दशहरा उत्सव की रथ यात्रा की अखंड परंपरा राजा जगत सिंह के समय से चली हुई है. लेकिन साल 1661 से बे रोक टोक चल रही रघुनाथ की रथ यात्रा की यह अखंड परंपरा 1971 में गोली कांड (Firing in Kullu Dussehra in 1971) से खंडित हुई थी. उसके बाद यह रथ यात्रा दो साल तक नहीं निकली. साल 1971 में उस समय के प्रशासक ने जलेब के उस रास्ते को किन्हीं कारणों से बंद कर दिया था, जहां से रघुनाथ की पालकी निकलती थी.
मगर पाबंदी के बावजूद भी जब पालकी उसी रास्ते से निकली तो पुलिस ने श्रद्धालुओं पर गोली चलाई. जिसमें एक श्रद्धालु की मौत हो गई. उसके बाद 1972 व 1973 में रथायात्रा नहीं निकली. लेकिन कुल्लू के रघुनाथपुर में भगवान रघुनाथ मंदिर में सारी रस्में पूरी होती रही. 1920 तक दशहरे का आयोजन राजा करता रहा. उसके बाद 1920 से 1966 तक जिला बोर्ड कांगड़ा द्वारा दशहरे का आयोजन व प्रबंध किया जाता रहा. उसके बाद स्थानीय नगर पालिका, परिषद व जिला प्रशासन द्वारा सयुंक्त रूप से दशहरा मनाया जाता रहा है.
कुल्लू के राजा जगत सिंह के समय से ही कुल्लू दशहरा, विजय दशमी से मनाया जाता है. स्थानीय बोली में विजय दशमी को विदा दशमी कहा जाता है. जानकारों के अनुसार राजा के समय दशहरे में चार सौ के लगभग देवी-देवता आते थे. पहले कुल्लू में राजा शांगरी आनी व कुल्लू के राजा का दरबार लगता था. राजा शांगरी का दरबार कला केंद्र के स्थान पर और राजा रूपी का दरबार वर्तमान जगह पर दशहरा मैदान में ही लगता था. उस समय राजा के दरबार को राजे री चानण कहा जाता था. दोनों राजाओं के दरबार में रात भर कुल्लवी नाटी तो चलती ही थी, साथ में रामलीला, देवी का तमाशा तथा धार्मिक प्रवचन आदि अनेक कार्यक्रम होते थे. एक तरह से उस समय कुल्लू दशहरा विशुद्ध पारंपरिक ढंग से मनाया जाता था, जिसमें लोग रातभर नाचते गाते थे.
चांदनी रात में ढालपुर मैदान में जब गांव से आए लोग मस्त होकर नाचते थे तो ऐसा लगता था मानो उन्हें सारे जहां की खुशियां हासिल हो गई हो. खासकर उस समय दशहरे में होरा 'बेजाचा बोला दिहाड़ी दोपहरे विदा दशमी राती', स्थानीय गीत पर लोग खूब झूमते थे. अब बदलते समय में दशहरा मनाने का ढंग तो बदला मगर रघुनाथ व उनकी रथयात्रा से जुड़ी परंपराएं आज भी वैसी ही हैं. रघुनाथ की पूजा व श्रृंगार तथा रथयात्रा उसी ढंग से होती है जैसे पूर्व काल में होती थी. लेकिन अब देवी-देवताओं का आना कम हो गया है.
हालांकि जब राजा शांगरी का दरबार लगता था तब तक बाहरी सिराज के देवता भी दशहरे में आते थे मगर उसके बाद उनका आना कम हो गया. इसके बावजूद भी दशहरे में हर वर्ष लगभग 300 देवी-देवता आते हैं. वहीं, सांस्कृतिक गतिविधियां भी लालचंद प्रार्थी कलाकेंद्र में सिमट गई हैं. भले ही समय काल के चलते दशहरे के आयोजन में कुछ चीजें बदल गई हों मगर दशहरे का मुख्य आकर्षण रघुनाथ की रथयात्रा व अन्य धार्मिक परंपराओं का निर्वहन आज भी पुराने तरीके से ही होता है.
ये भी पढ़ें: 80 सालों के बाद दशहरा उत्सव में आए देवता काली नाग, देवता जोड़ा नारायण और माता रूपासना