चंडीगढ़ः कहते हैं समयचक्र जब घूमता है तो किसी का समय आता और किसी का समय जाता है. इस लोकसभा चुनाव में बहुतों का वक्त गया है और बहुतों का आया है. बीजेपी को मिले प्रचंड बहुमत ने कई राजनेताओं की राजनीति पर ग्रहण लगा दिया है. लेकिन क्या कोई ये सोच सकता है कि हरियाणा में जाट कभी राजनीतिक रूप से हाशिये पर जा सकते हैं. अब से पहले शायद कोई नहीं लेकिन अब ये मिथक चकनाचूर होता दिख रहा है. क्योंकि इस बार हरियाणा की सभी सीटों पर बीजेपी ने कब्जा किया है और 10 में से मात्र 2 सांसद जाट हैं. विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी ने 47 सीटें जीती थीं, जिनमें से 6 विधायक ही जाट हैं.
बंट गया चौटाला परिवार
चुनाव से कुछ दिन पहले ही चौटाला परिवार एक बार फिर दो फाड़ हो गया. ओपी चौटाला के दूसरे बेटे अजय चौटाला ने अपने बेटों के साथ मिलकर नई पार्टी बना ली. इनेलो को ओपी चौटाला के दूसरे बेटे अभय चौटाला चलाने लगे.
जमानत नहीं बचा सके इनेलो उम्मीदवार
2019 के आम चुनाव में इनेलो के 10 में से 9 उम्मीदवार अपनी जमानत बचाने में भी नाकाम रहे. इनमें एक नाम ओपी चौटाला के पोते अर्जुन चौटाला का भी है. इनेलो की नाकामी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसके सभी उम्मीदवारों को ढाई लाख से भी कम वोट मिले. अब आप अंदाजा लगाइए कि जो पार्टी जाटों की पार्टी मानी जाती है. जिसका वोट बैंक जाट है, उसे जाटों के हरियाणा में इतने भी वोट नहीं मिले कि उसके उम्मीदवार जमानत बचा सकें. इनेलो को इस चुनाव में मात्र 1.89 प्रतिशत वोट मिले.
जेजेपी का हाल भी इनेलो जैसा
इनेलो से अलग होकर अजय चौटाला ने अपने बेटों के साथ मिलकर जननायक जनता पार्टी का गठन किया और आम आदमी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़े. इस पार्टी की नजर भी जाट वोटर्स पर थी और दुष्यंत चौटाला को उम्मीद थी कि जो जाट परंपरागत रूप से इनेलो के वोटर माने जाते थे उनमें से उनको भी वोट मिलेंगे. इसी उम्मीद में इनकी पार्टी ने पूर्व उप-प्रधानमंत्री देवीलाल के नाम पर चुनाव लड़ा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ और इस गठबंधन के भी 9 उम्मीदवार जमानत बचाने में नाकाम रहे.
दरक गया हुड्डा का किला
मौजूदा वक्त में अगर हरियाणा के सबसे बड़े नेताओं की बात की जाए तो भूपेंद्र सिंह हुड्डा की गिनती उनमें टॉप पर होती है और रोहतक को उनका गढ़ माना जाता है. जहां से उनके पुत्र दीपेंद्र हुड्डा मैदान में थे. इस सीट पर जाट वोटर्स का वर्चस्व है. लेकिन इस बार हुड्डा का ये किला दरक गया और बीजेपी के अरविंद शर्मा ने दीपेंद्र हुड्डा को हरा दिया. भूपेंद्र सिंह हुड्डा खुद सोनीपत से चुनाव लड़ रहे थे. यहां भी जाट वोटर्स की संख्या काफी है. लेकिन भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी चुनाव हार गए. वो भी डेढ़ लाख से ज्यादा वोटों से.
बंसीलाल का किला भी ध्वस्त
बाप-दादा का जनाधार सिर्फ हुड्डा परिवार या फिर चौटाला परिवार ने ही नहीं खोया है. ये हाल पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल के परिवार का भी है. भिवानी-महेंद्रगढ़ लोकसभा सीट से श्रुति चौधरी लगातार दूसरी बार चुनाव हार गईं. हालात इतने बिगड़ गए कि बंसीलाल के गढ़ तोशाम में भी श्रुति चौधरी को वोट नहीं मिल पाए. श्रुति को बीजेपी के धर्मबीर सिंह ने लगातार दूसरी बार भिवानी-महेंद्रगढ़ सीट से बुरी तरह से शिकस्त दी.
बीजेपी ने दिया गैर जाट सीएम
हरियाणा की राजनीति में 1967 के बाद से ही जाटों का दबदबा रहा. ज्यादातर मुख्यमंत्री भी जाट समुदाय से ही रहे. दो दशकों से तो लगातार जाट मुख्यमंत्री ही सरकार चलाते आ रहे थे. लेकिन 2014 में चुनाव जीतने के बाद बीजेपी ने गैर जाट मुख्यमंत्री को चुना.
काम आई बीजेपी की रणनीति
इनेलो को मूल रूप से जाटों की ही पार्टी माना जाता था और भूपेंद्र सिंह हुड्डा के वक्त से कांग्रेस पर जाट समुदाय की ही छाप रही. इसलिए बीजेपी ने गैर जाट राजनीति को आगे बढ़ाया जो 2014 में कामयाब हुई. उसके बाद मनोहर लाल को सीएम बनाकर बीजेपी ने गैर जाट समुदाय को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश की. जिसका परिणाम इस लोकसभा चुनाव में नज़र आया.
...तो जाट सत्ता में वापसी नहीं कर पाएंगे!
अगर बीजेपी की ये रणनीति कामयाब होती रही तो सत्ता के केंद्र से जाट दूर होते जाएंगे. हालांकि बीजेपी में भी जाट लीडरशिप है. लेकिन उनमें से कोई मुख्यमंत्री बनेगा. इसकी उम्मीद फिलहाल तो नहीं है और कांग्रेस में हुड्डा का जलवा भी अब वो नहीं दिखता जो कभी होता था. इनेलो और जेजेपी का हाल तो फिलहाल बेहाल है.