भिवानी: जन संघर्ष समिति भिवानी ने महान स्वतंत्रता सेनानी पंडित नेकीराम शर्मा के 134वें जन्मदिवस पर उनको याद किया और उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण किया. इस अवसर पर समिति के संयोजक कामरेड ओमप्रकाश ने कहा कि आज बहुत ही संकट का समय है. कोरोना महामारी तेजी से बढ़ रही है. महामारी और केन्द्र सरकार की नीतियों के चलते अर्थव्यवस्था पाताल में बैठ गई है. बेरोजगारी ने पिछले 45 सालों का रिकार्ड तोड़ दिया है. राज्यों को जीएसटी की भरपाई नहीं की जा रही है. िवहीं बड़े कॉरपोरेट्स को टैक्स छूट, ऋण माफी व भ्रष्टाचार के जरिये सरकारी खजाना लुटवाया जा रहा है.
उन्होंने कहा कि ऐसे समय में शासकों की जन विरोधी नीतियों के विरूद्ध आन्दोलन चलाने के लिए पंडित नेकीराम शर्मा जैसे महान देश भक्तों के विचारों व आदर्शों से ओत-प्रात नेतृत्वकारी साथियों की जरूरत हैं. जिन्हें लोभ लालच, धमकियों, जात-पात व धार्मिक प्रभाव से सही रास्ते से भटकाया न जा सके. इसलिए आज उनके विचारों की बहुत आवश्यकता है, ताकि संविधान, लोकतंत्र व जनता के अधिकारों को बचाते हुए संघर्षों से प्राप्त आजादी को कायम रखा जा सके.
कौन थे पंडित नेकीराम शर्मा?
बता दें कि, भिवानी जिला के कलिंगा गांव में सन 1887 में जन्मे महान स्वतंत्रता सेनानी पंडित नेकीराम शर्मा को अग्रणीय स्वतंत्रता सेनानियों में गिना जाता है. उन्होंने स्वतंत्रता के लिए हर छोटे-बड़े आंदोलन में हिस्सा लिया. वर्ष 1907 से वे मात्र 20 वर्ष की आयु में स्वतंत्रता आंदोलन के लिए सक्रिय भूमिका निभाने लगे. भगत सिंह, लाला लाजपत राय व 1908 में लोकमान्य तिलक को जेल भेजना नेकीराम शर्मा को सहन नहीं हुआ और वे अंग्रेजों के घोर विरोधी बन गए.
पंडित नेकीराम शर्मा ने वर्ष 1919 में रोलेट एक्ट आंदोलन के विरोध किया. 1920 व 1922 के बीच असहयोग आंदोलन, 1930 व 34 के नमक सत्याग्रह, 1942 व 44 के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने अपनी अहम भूमिका निभाई. इन सभी आंदोलनों के दौरान वे 2200 दिन जेल में रहे. देश के अग्रणीय स्वतंत्रता संग्राम के नेता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, गोपाल कृष्ण गोखले के साथ उन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया.
बताया जाता है कि अंग्रेजों के बीच उनका प्रभाव इतना था कि अंग्रेजों ने उन्हें 625 एकड़ जमीन का प्रलोभन भी दिया, लेकिन वे किसी प्रलोभन में नहीं आए. बल्कि उन्होंने जेल जाना पसंद किया. यहां तक कि वे अपने पुत्र की शादी व पुत्री के निधन पर भी जेल में ही थे, क्योंकि अंग्रेजों ने उन्हे पैरोल नहीं दी. वर्ष 1947 में देश के आजाद होने के बाद भारत सरकार ने उन्हें 200 रुपये पेंशन दी. जो उस समय बहुत बड़ी राशि होती थी, लेकिन उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन यह कहते हुए अस्वीकार कर दी कि देश की सेवा करना देश पर ऋण चढ़ाना नहीं है, ये उनका राष्ट्रधर्म है. इसकी ऐवज में उन्हे किसी पेंशन की जरूरत नहीं है. वर्ष 1956 को उनका निधन हो गया.
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