अंबाला: आज हम आजादी की 74वीं सालगिरह मना रहे हैं. हमें गर्व है कि करीब 200 सालों की गुलामी की बेड़ियों को काट कर आज हम दुनिया के सर्वोच्च देशों में अपना वजूद बना चुके हैं, लेकिन जब आज हम 15 अगस्त को खुशियां मनाते हैं, तो क्या हमने सोचा है कि साल 1947 में 15 अगस्त का दिन कैसा रहा होगा? उस वक्त जिन लोगों ने आजादी का सपना देखा था. उस सपने को साकार होते हुए उन लोगों को कैसा महसूस हुआ होगा. उन लोगों ने बंटवारे को कैसे और किन परिस्थितियों में झेला होगा?
ईटीवी भारत की टीम ने इन्हीं कुछ सवालों के जवाब ढूंडने के लिए अंबाला की दो महिलाओं से बातचीत की. जिन्होंने 1947 के दौर को जिया था और आज भी उन यादों को भुला नहीं पाईं.
गुरुचरण कौर ने साझा किए बंटवारे के अनुभव
अंबाला में रहने वाली गुरुचरण कौर कहती हैं कि तब वो सिर्फ 8 साल की थीं. वो और उनके पांच भाई-बहन अपने माता पिता के साथ पाकिस्तान, गुजरावाला में गुरुनानक नगर के चुड़ीकलां इलाके में रहती थीं. उनका कहना है कि आजादी के ऐलान से पहले सब सही था. उस इलाके में हिंदू मुस्लिम सब शांति से रहते थे. उस क्षेत्र के मुस्लिम लोगों को हाजी कहते थे, लेकिन साल 1947 में अचानक उनकी जिंदगी में तेजी से बदलाव आया.
उन्हें अपने परिवार के साथ भारत आना पड़ा. उस वक्त पाकिस्तान से भारत की यात्रा बेहद दर्दनाक थी. इंसान उस वक्त इंसान नहीं बचा था. चारों तरफ लूटपाट, कत्ल का माहौल था. धीरे-धीरे हालात और खराब होते चले गए, जिस वजह से सारी भारत जाने वाली ट्रेनें उनसे छूट गयी. बाद में उनके पिता जी ने उन्हें मालगाड़ी में ट्रंको में छिपा कर लाहौर पहुंचाया.
'ट्रंकों में बैठ कर पहुंचे अमृतसर'
उन्होंने बताया कि, 'लाहौर में बलोच मिलिट्री ने हमारा सारा सामान हमसे ले लिया. इस दौरान हमें ट्रंकों के बीच मे बस गोलियों और रोने चिल्लाने की आवाजें आती रही. जैसे तैसे हम भारत पहुंचे वह पर भी मुश्किलें कम नहीं हुई. हमें आना था अमृतसर हम पहुंच गए थे कपूरथला. वहां पर वह मालगाड़ी एक दिन एक रात खड़ी रही. हम सब ट्रंकों मे भूखे प्यासे बैठे रहे.
'पंजाब की सड़कों पर फैली थीं लाशें'
उन्होंने बताया कि दंगों के बीच उनके पिता जी ने उन्हें किसी जगह ले जाकर सूखी रोटियां खिलाई. फिर जाकर वो किसी तरह अमृतसर पहुंचे'. उन्होंने बताया कि पंजाब में सड़कों पर चारों तरफ लाशें ही लाशें पड़ी हुई थीं. इतनी बदबू थी कि उस वक़्त लाशों की वजह से बीमारियां फैल गई थीं.
स्वर्ण कौर ने बताया लाहौर से लुधियाना का सफर
वहीं स्वर्ण कौर बताती हैं कि वो भी पाकिस्तान के लाहौर में रहती थीं. उनके परिवार में पिता सरदूल सिंह माता वीरा देवी और उनके 6 भाई बहन खुशहाल जिंदगी जी रहे थे. कि अचानक दंगे बढ़ गए. जो हिन्दू-मुस्लिम-सिख साथ-साथ रहते थे. वो एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए.
'स्वर्ण कौर का पाकिस्तान में था खुशहाल परिवार'
स्वर्ण कौर कहती हैं कि उनके पिता जी वहां दर्जी का काम करते थे. उन्होंने नया घर बनाया था. जहां कुछ दिन पहले ही शिफ्ट हुए थे, लेकिन तभी भारत का विभाजन हो गया. उनका परिवार अपना घर छोड़ने को तैयार नहीं था.
हालात इतने खराब हो गए कि सरेआम दंगाई औरतों को उठाने लग गए. स्वर्ण कौर ने बताया कि मेरी माता ने मेरे पिता जी को कहा कि मुझे और मेरे बच्चों को खुद ही मार दें, वो किसी के हाथ नहीं लगना चाहती थीं. तब मेरे पिता जी ने सभी बच्चों को अमृतसर रिश्तेदारों के पास भेज दिया, लेकिन पाकिस्तान में बचे उनके पिता-माता और रिश्तेदारों की हत्या कर दी गई.
'73 साल के बाद भी यादें जीवंत हैं'
स्वर्ण कौर के पिता की उस घटना में मौत नहीं हुई थी, वो बस बेहोश थे. माहौल शांत होने पर वो पाकिस्तान से पंजाब आए. आज गुरुचरण कौर और स्वर्ण कौर दोनों के परिवार पंजाब में है और दोनों महिलाओं की शादी अंबाला में हुई है. आज दोनों अपने जीवन के आखिरी पायदान पर हैं, लेकिन यादें आज भी ताजा हैं.
बहुत कुर्बानियों के बाद मिली है आजादी
हर साल आजादी पर देश के ज्यादातर लोग सरकारी छुट्टी समझकर आनंद उठाते हैं, बेशक इसमें कोई बुराई नहीं, लेकिन हमें अपने देश की प्रति मौलिक कर्तव्यों का निर्वहन करना कभी नहीं भूलना चाहिए. ये क्योंकि इस आजादी के लिए जिन लाखों लोगों ने कुर्बानी दी है, वो हमें जिम्मेदारी देकर गए हैं, कि इस देश का विकास और अमन-शांति हमें बरकरार रखनी है.
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