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चौधर की जंग: जानिए राज्य में किस पार्टी में है कितना दम?

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Published : Oct 4, 2019, 8:03 AM IST

Updated : Oct 4, 2019, 12:03 PM IST

ये है ईटीवी भारत की खास पेशकश 'चौधर की जंग'. हरियाणा में अब जब चुनाव का बिगुल बच चुका है तो हरियाणा में राजनीतिक दलों की मौजूदा स्थिति क्या है और कौन कितने पानी में है, इसका आंकलन बहुत जरूरी है. तो आइये जानते हैं कि प्रदेश में कौन सी पार्टी में कितना दम है.

haryana political parties

चंडीगढ़: राज्य में विधानसभा चुनाव का शंखनाद हो चुका है. सभी राजनैतिक दल तैयारियों में जुटे हुए हैं. 2014 की जंग 2019 तक आते-आते काफी बदल चुकी है. 2014 में कांग्रेस सरकार के घोटाले, राबर्ट वाड्रा की लैंड डील के मुद्दे और मोदी लहर ने बीजेपी को बहुमत दिलाया था लेकिन 2019 के सूरते हाल कुछ अलग हैं.

जानिए राज्य में किस पार्टी में है कितना दम? देखिए ये स्पेशल रिपोर्ट.

कितने बदल गए हैं 2019 में हालात
कुछ नेताओं के कद बदल गए हैं, कुछ के दल बदल गए हैं. आधे से ज्यादा कांग्रेसी और इनेलो नेता बीजेपी में जा चुके हैं. राज्य में कभी 4 सीटें जीतने वाली बीजेपी का सूरज फिलहाल बुलंदी पर है. कहावत है कि उगते सूरज को हर कोई सलाम करता है. दूसरे दलों से बीजेपी में शामिल होने वाले नेताओं का सिलसिला इस बात की गवाही दे रहा है.

विधानसभा के रण में फिलहाल सत्ता की दावेदार केवल दो पार्टियां हैं- बीजेपी और कांग्रेस. कभी सत्ता में रही और पिछले लोकसभा चुनाव तक प्रमुख विपक्षी दल इंडियन नेशनल लोकदल परिवार में फूट के बाद अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. तो जननायक जनता पार्टी अपना अस्तित्व कायम करने की कवायद में है. आम आदमी पार्टी भी मैदान में ताल ठोक रही है. तो इनेलो वाया जेजेपी से गठबंधन तोड़ते हुए बीएसपी भी मैदान में है.

बीजेपी है सत्ता की प्रमुख दावेदार
सबसे पहले बात करते हैं सत्तासीन बीजेपी की. पिछले चुनाव में 47 सीट जीतकर सत्ता पाने वाली बीजेपी ने इस बार 75 पार का लक्ष्य रखा है. हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव के परिणाम और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाने के बाद बीजेपी की इस इच्छा को और बल मिल गया है. पार्टी ने लोकसभा चुनाव में सभी 10 की 10 सीटें तो जीती ही थी. साथ ही अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो लगभग 70 से ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों में बीजेपी के उम्मीदवारों ने अच्छी खासी बढ़त बनाई थी. अब राज्य में दक्षिण हरियाणा से लेकर नूंह तक बीजेपी की पकड़ बन चुकी है.

वहीं मौजूदा माहौल में मुद्दों की बात करें तो बीजेपी एक बार फिर हरियाणा में भी राष्ट्रवाद के मुद्दे पर ही सवार होकर 75 प्लस के इस लक्ष्य को हासिल करने की कवायद में जुटी है. मुख्यमंत्री के तौर पर एक बार फिर मनोहर लाल ही बीजेपी का चेहरा होंगे. मनोहर लाल के साथ सबसे अच्छा ये है कि वो बेदाग हैं और हाल के मेयर चुनाव से लेकर उपचुनाव और लोकसभा चुनाव में उनकी अगुवाई में बीजेपी को बड़ी सफलता मिली है. इसलिए मनोहर लाल ही इस जंग के सबसे बड़े महारथी दिखाई दे रहे हैं.

कांग्रेस के सामने गुटबाजी की समस्या
वहीं राज्य में सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस की बात करें तो यहां गुटबाजी चरम पर है और पार्टी कई गुटों में बटीं है. पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने रोहतक में महापरिवर्तन रैली करके आलाकमान को आंख जरूर दिखाई थी लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने हरियाणा कांग्रेस में बड़े बदलाव कर स्थिति को संभालने की कोशिश की. अशोक तंवर और हुड्डा की लड़ाई किसी से छुपी नहीं है. जिसका खामियाजा आखिर में तंवर को भुगतना पड़ा और उनको प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाकर कुमारी सैलजा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है. वहीं पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा को चुनाव समिति की कमान दी गई है. अगर चुनावी प्रदर्शन की बात करें तो. 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के दिग्गजों को करारी शिकस्त मिली थी. केवल हुड्डा पिता-पुत्र ही अपनी जमानत जब्त होने से बचा पाए थे. लेकिन रोहतक से दीपेन्द्र हुड्डा और सोनीपत से खुद भूपेन्द्र हुड्डा चुनाव हार गए थे.

पूर्व सीएम हुड्डा हरियाणा में कांग्रेस की मजबूती भी हैं और कमजोरी भी. अपनी प्रेशर पॉलिटिक्स के जरिए वो प्रदेश अध्यक्ष बदलने से लेकर अपनी कई मांगे मनवाने में सफल हो गए. यानि कांग्रेस आलाकमान को अभी भी हुड्डा के जरिए सत्ता पाने का भरोसा है. दूसरी खास बात ये है कि प्रदेश में बीजेपी के उफान के बाद भी कांग्रेस का कोई विधायक पार्टी छोड़कर नहीं गया. वहीं हुड्डा ने बीजेपी की रणनीति को भांपते हुए कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और हरियाणा में एनआरसी लागू करने के मुद्दे पर भी बीजेपी का समर्थन करके अपनी बदली रणनीति का परिचय दे दिया है. हालांकि कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या अभी भी गुटबाजी ही है.

बिखराव के मोड़ पर इनेलो
वहीं हरियाणा के सबसे बड़े सियासी घराने चौटाला परिवार की पार्टी इनेलो की बात करें तो पार्टी इस समय बिखराव के मोड़ पर खड़ी है. हरियाणा में राज करने से लेकर मुख्य विपक्ष के रूप में रहने वाली इनेलो की कमर टूट चुकी है. चौटाला परिवार में कलह के कारण भाई-भाई के सामने है. दस विधायक पार्टी छोड़कर बीजेपी में जा चुके हैं और चार विधायकों ने जननायक जनता पार्टी का दामन थाम लिया है. 15 साल तक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहने वाले और चौटाला परिवार के करीबी अशोक अरोड़ा अब इनेलो छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं. इनेलो को विधानसभा चुनाव के लिए बड़े चेहरे मिलना भी दूर की बात लग रही है.

लोकसभा चुनाव में पार्टी का कोई भी उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा पाया था. यहां तक कि बहुजन समाज पार्टी का प्रतिशत इनेलो से ज्यादा था. बीएसपी को लोकसभा चुनाव में 3.6 फीसदी वोट मिले जबकि इनेको को केवल 1.8 फीसदी. अब पूर्व सीएम ओपी चौटाला का प्रभाव भी राज्य में कम हो गया है और अभय चौटाला अभी भी अपने आपको राज्य में बड़े नेता के रूप में साबित नहीं कर पाए हैं. ऐसे में पार्टी के लिए आगामी चुनाव में दहाई का आंकड़ा छूना भी मुश्किल दिख रहा है.

जननायक जनता पार्टी के सामने बड़ी परीक्षा
चौटाला परिवार से ही निकली जननायक जनता पार्टी पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ेगी. अजय चौटाला, दुष्यंत चौटाला और दिग्विजय चौटाला ने परिवार से अलग होकर जब पार्टी बनाई थी तो राज्य में कुछ दिन तक इनकी ही चर्चा रही थी. जींद उपचुनाव में दिग्विजय चौटाला ने बेहतरीन प्रदर्शन किया दूसरे नंबर पर रहे. कांग्रेस के दिग्गज नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला मुश्किल से अपनी जमानत बचा पाए. दूसरे नंबर पर रहकर भी पार्टी इस नतीजे से खुश नजर आई थी. लेकिन लोकसभा चुनाव में मिली बुरी हार ने सबकुछ बदल दिया है.

पार्टी के मुख्य नेता दुष्यंत चौटाला खुद हिसार सीट हार गए और मुश्किल से अपनी जमानत बचा पाए थे. पार्टी ने बसपा के साथ जरूर गठबंधन किया था लेकिन वो भी कुछ दिन तक ही चल पाया. मौजूदा स्थिति को देखकर तो यही लगता है कि कोई चमत्कार ही इनको आने वालों चुनावों में जीत दिलवा सकता है. हालांकि जेजेपी ने रोहतक में देवीलाल जन सम्मान रैली करके अपना शक्ति प्रदर्शन किया. दुष्यंत युवा वोटर्स के सहारे सत्ता का सपना देख रहे हैं.

राजकुमार सैनी अकेले ही भर रहे हैं दम
वहीं पिछड़े समुदाय का हिमायती बनकर बीजेपी के पूर्व सांसद राजकुमार सैनी अपना अस्तित्व तलाशने में जुटे हैं. लोकसभा चुनाव में बीएसपी के साथ चुनाव लड़े थे. नतीजों के बाद गठबंधन टूट गया. सैनी बोले बीएसपी ने धोखा दिया है. और अब अकेले ही मैदान में दम भर रहे हैं. हालांकि वोटों का गणित देखें तो राजकुमार सैनी की लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी का वजूद ज्यादा मजबूत नजर नहीं आता.

तो कुछ ऐसे हैं राज्य में मौजूदा राजनीतिक हालात. फिलहाल तो राज्य में मनोहर लाल खट्टर को दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने से रोकने वाला कोई नजर नहीं आ रहा है बाकी चुनाव के परिणाम के दिन ही पता चलेगा.

चंडीगढ़: राज्य में विधानसभा चुनाव का शंखनाद हो चुका है. सभी राजनैतिक दल तैयारियों में जुटे हुए हैं. 2014 की जंग 2019 तक आते-आते काफी बदल चुकी है. 2014 में कांग्रेस सरकार के घोटाले, राबर्ट वाड्रा की लैंड डील के मुद्दे और मोदी लहर ने बीजेपी को बहुमत दिलाया था लेकिन 2019 के सूरते हाल कुछ अलग हैं.

जानिए राज्य में किस पार्टी में है कितना दम? देखिए ये स्पेशल रिपोर्ट.

कितने बदल गए हैं 2019 में हालात
कुछ नेताओं के कद बदल गए हैं, कुछ के दल बदल गए हैं. आधे से ज्यादा कांग्रेसी और इनेलो नेता बीजेपी में जा चुके हैं. राज्य में कभी 4 सीटें जीतने वाली बीजेपी का सूरज फिलहाल बुलंदी पर है. कहावत है कि उगते सूरज को हर कोई सलाम करता है. दूसरे दलों से बीजेपी में शामिल होने वाले नेताओं का सिलसिला इस बात की गवाही दे रहा है.

विधानसभा के रण में फिलहाल सत्ता की दावेदार केवल दो पार्टियां हैं- बीजेपी और कांग्रेस. कभी सत्ता में रही और पिछले लोकसभा चुनाव तक प्रमुख विपक्षी दल इंडियन नेशनल लोकदल परिवार में फूट के बाद अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. तो जननायक जनता पार्टी अपना अस्तित्व कायम करने की कवायद में है. आम आदमी पार्टी भी मैदान में ताल ठोक रही है. तो इनेलो वाया जेजेपी से गठबंधन तोड़ते हुए बीएसपी भी मैदान में है.

बीजेपी है सत्ता की प्रमुख दावेदार
सबसे पहले बात करते हैं सत्तासीन बीजेपी की. पिछले चुनाव में 47 सीट जीतकर सत्ता पाने वाली बीजेपी ने इस बार 75 पार का लक्ष्य रखा है. हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव के परिणाम और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाने के बाद बीजेपी की इस इच्छा को और बल मिल गया है. पार्टी ने लोकसभा चुनाव में सभी 10 की 10 सीटें तो जीती ही थी. साथ ही अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो लगभग 70 से ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों में बीजेपी के उम्मीदवारों ने अच्छी खासी बढ़त बनाई थी. अब राज्य में दक्षिण हरियाणा से लेकर नूंह तक बीजेपी की पकड़ बन चुकी है.

वहीं मौजूदा माहौल में मुद्दों की बात करें तो बीजेपी एक बार फिर हरियाणा में भी राष्ट्रवाद के मुद्दे पर ही सवार होकर 75 प्लस के इस लक्ष्य को हासिल करने की कवायद में जुटी है. मुख्यमंत्री के तौर पर एक बार फिर मनोहर लाल ही बीजेपी का चेहरा होंगे. मनोहर लाल के साथ सबसे अच्छा ये है कि वो बेदाग हैं और हाल के मेयर चुनाव से लेकर उपचुनाव और लोकसभा चुनाव में उनकी अगुवाई में बीजेपी को बड़ी सफलता मिली है. इसलिए मनोहर लाल ही इस जंग के सबसे बड़े महारथी दिखाई दे रहे हैं.

कांग्रेस के सामने गुटबाजी की समस्या
वहीं राज्य में सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस की बात करें तो यहां गुटबाजी चरम पर है और पार्टी कई गुटों में बटीं है. पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने रोहतक में महापरिवर्तन रैली करके आलाकमान को आंख जरूर दिखाई थी लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने हरियाणा कांग्रेस में बड़े बदलाव कर स्थिति को संभालने की कोशिश की. अशोक तंवर और हुड्डा की लड़ाई किसी से छुपी नहीं है. जिसका खामियाजा आखिर में तंवर को भुगतना पड़ा और उनको प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाकर कुमारी सैलजा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है. वहीं पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा को चुनाव समिति की कमान दी गई है. अगर चुनावी प्रदर्शन की बात करें तो. 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के दिग्गजों को करारी शिकस्त मिली थी. केवल हुड्डा पिता-पुत्र ही अपनी जमानत जब्त होने से बचा पाए थे. लेकिन रोहतक से दीपेन्द्र हुड्डा और सोनीपत से खुद भूपेन्द्र हुड्डा चुनाव हार गए थे.

पूर्व सीएम हुड्डा हरियाणा में कांग्रेस की मजबूती भी हैं और कमजोरी भी. अपनी प्रेशर पॉलिटिक्स के जरिए वो प्रदेश अध्यक्ष बदलने से लेकर अपनी कई मांगे मनवाने में सफल हो गए. यानि कांग्रेस आलाकमान को अभी भी हुड्डा के जरिए सत्ता पाने का भरोसा है. दूसरी खास बात ये है कि प्रदेश में बीजेपी के उफान के बाद भी कांग्रेस का कोई विधायक पार्टी छोड़कर नहीं गया. वहीं हुड्डा ने बीजेपी की रणनीति को भांपते हुए कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और हरियाणा में एनआरसी लागू करने के मुद्दे पर भी बीजेपी का समर्थन करके अपनी बदली रणनीति का परिचय दे दिया है. हालांकि कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या अभी भी गुटबाजी ही है.

बिखराव के मोड़ पर इनेलो
वहीं हरियाणा के सबसे बड़े सियासी घराने चौटाला परिवार की पार्टी इनेलो की बात करें तो पार्टी इस समय बिखराव के मोड़ पर खड़ी है. हरियाणा में राज करने से लेकर मुख्य विपक्ष के रूप में रहने वाली इनेलो की कमर टूट चुकी है. चौटाला परिवार में कलह के कारण भाई-भाई के सामने है. दस विधायक पार्टी छोड़कर बीजेपी में जा चुके हैं और चार विधायकों ने जननायक जनता पार्टी का दामन थाम लिया है. 15 साल तक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहने वाले और चौटाला परिवार के करीबी अशोक अरोड़ा अब इनेलो छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं. इनेलो को विधानसभा चुनाव के लिए बड़े चेहरे मिलना भी दूर की बात लग रही है.

लोकसभा चुनाव में पार्टी का कोई भी उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा पाया था. यहां तक कि बहुजन समाज पार्टी का प्रतिशत इनेलो से ज्यादा था. बीएसपी को लोकसभा चुनाव में 3.6 फीसदी वोट मिले जबकि इनेको को केवल 1.8 फीसदी. अब पूर्व सीएम ओपी चौटाला का प्रभाव भी राज्य में कम हो गया है और अभय चौटाला अभी भी अपने आपको राज्य में बड़े नेता के रूप में साबित नहीं कर पाए हैं. ऐसे में पार्टी के लिए आगामी चुनाव में दहाई का आंकड़ा छूना भी मुश्किल दिख रहा है.

जननायक जनता पार्टी के सामने बड़ी परीक्षा
चौटाला परिवार से ही निकली जननायक जनता पार्टी पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ेगी. अजय चौटाला, दुष्यंत चौटाला और दिग्विजय चौटाला ने परिवार से अलग होकर जब पार्टी बनाई थी तो राज्य में कुछ दिन तक इनकी ही चर्चा रही थी. जींद उपचुनाव में दिग्विजय चौटाला ने बेहतरीन प्रदर्शन किया दूसरे नंबर पर रहे. कांग्रेस के दिग्गज नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला मुश्किल से अपनी जमानत बचा पाए. दूसरे नंबर पर रहकर भी पार्टी इस नतीजे से खुश नजर आई थी. लेकिन लोकसभा चुनाव में मिली बुरी हार ने सबकुछ बदल दिया है.

पार्टी के मुख्य नेता दुष्यंत चौटाला खुद हिसार सीट हार गए और मुश्किल से अपनी जमानत बचा पाए थे. पार्टी ने बसपा के साथ जरूर गठबंधन किया था लेकिन वो भी कुछ दिन तक ही चल पाया. मौजूदा स्थिति को देखकर तो यही लगता है कि कोई चमत्कार ही इनको आने वालों चुनावों में जीत दिलवा सकता है. हालांकि जेजेपी ने रोहतक में देवीलाल जन सम्मान रैली करके अपना शक्ति प्रदर्शन किया. दुष्यंत युवा वोटर्स के सहारे सत्ता का सपना देख रहे हैं.

राजकुमार सैनी अकेले ही भर रहे हैं दम
वहीं पिछड़े समुदाय का हिमायती बनकर बीजेपी के पूर्व सांसद राजकुमार सैनी अपना अस्तित्व तलाशने में जुटे हैं. लोकसभा चुनाव में बीएसपी के साथ चुनाव लड़े थे. नतीजों के बाद गठबंधन टूट गया. सैनी बोले बीएसपी ने धोखा दिया है. और अब अकेले ही मैदान में दम भर रहे हैं. हालांकि वोटों का गणित देखें तो राजकुमार सैनी की लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी का वजूद ज्यादा मजबूत नजर नहीं आता.

तो कुछ ऐसे हैं राज्य में मौजूदा राजनीतिक हालात. फिलहाल तो राज्य में मनोहर लाल खट्टर को दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने से रोकने वाला कोई नजर नहीं आ रहा है बाकी चुनाव के परिणाम के दिन ही पता चलेगा.

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चौधर की जंग: जानिए राज्य में किस पार्टी में है कितना दम? 



ये है ईटीवी भारत की खास पेशकश 'चौधर की जंग'. हरियाणा में अब जब चुनाव का बिगुल बच चुका है तो हरियाणा में राजनैतिक दलों की मौजूदा स्थिति क्या है और कौन कितने पानी में है, इसका आंकलन बहुत जरुरी है. तो आइये जानते हैं कि प्रदेश में कौन सी पार्टी में कितना दम है.



चंडीगढ़: राज्य में विधानसभा चुनाव का शंखनाद हो चुका है. सभी राजनैतिक दल तैयारियों में जुटे हुए हैं. 2014 की जंग 2019 तक आते-आते काफी बदल चुकी है. 2014 में कांग्रेस सरकार के घोटाले, राबर्ट वाड्रा की लैंड डील के मुद्दे और मोदी लहर ने बीजेपी को बहुमत दिलाया था लेकिन 2019 के सूरते हाल कुछ अलग हैं.

कितने बदल गए हैं 2019 में हालात

कुछ नेताओं के कद बदल गए हैं, कुछ के दल बदल गए हैं. आधे से ज्यादा कांग्रेसी और इनेलो नेता बीजेपी में जा चुके हैं. राज्य में कभी 4 सीटें जीतने वाली बीजेपी का सूरज फिलहाल बुलंदी पर है. कहावत है कि उगते सूरज को हर कोई सलाम करता है. दूसरे दलों से बीजेपी में शामिल होने वाले नेताओं का सिलसिला इस बात की गवाही दे रहा है.

विधानसभा के रण में फिलहाल सत्ता की दावेदार केवल दो पार्टियां हैं- बीजेपी और कांग्रेस. कभी सत्ता में रही और पिछले लोकसभा चुनाव तक प्रमुख विपक्षी दल इंडियन नेशनल लोकदल परिवार में फूट के बाद अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. तो जननायक जनता पार्टी अपना अस्तित्व कायम करने की कवायद में है. आम आदमी पार्टी भी मैदान में ताल ठोक रही है. तो इनेलो वाया जेजेपी से गठबंधन तोड़ते हुए बीएसपी भी मैदान में है.

बीजेपी है सत्ता की प्रमुख दावेदार

सबसे पहले बात करते हैं सत्तासीन बीजेपी की. पिछले चुनाव में 47 सीट जीतकर सत्ता पाने वाली बीजेपी ने इस बार 75 पार का लक्ष्य रखा है. हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव के परिणाम और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाने के बाद बीजेपी की इस इच्छा को और बल मिल गया है. पार्टी ने लोकसभा चुनाव में सभी 10 की 10 सीटें तो जीती ही थी. साथ ही अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो लगभग 70 से ज्यादा विधानसभा क्षेत्रों में बीजेपी के उम्मीदवारों ने अच्छी खासी बढ़त बनाई थी. अब राज्य में दक्षिण हरियाणा से लेकर नूंह तक बीजेपी की पकड़ बन चुकी है.

वहीं मौजूदा माहौल में मुद्दों की बात करें तो बीजेपी एक बार फिर हरियाणा में भी राष्ट्रवाद के मुद्दे पर ही सवार होकर 75 प्लस के इस लक्ष्य को हासिल करने की कवायद में जुटी है. मुख्यमंत्री के तौर पर एक बार फिर मनोहर लाल ही बीजेपी का चेहरा होंगे. मनोहर लाल के साथ सबसे अच्छा ये है कि वो बेदाग हैं और हाल के मेयर चुनाव से लेकर उपचुनाव और लोकसभा चुनाव में उनकी अगुवाई में बीजेपी को बड़ी सफलता मिली है. इसलिए मनोहर लाल ही इस जंग के सबसे बड़े महारथी दिखाई दे रहे हैं.

कांग्रेस के सामने गुटबाजी की समस्या

वहीं राज्य में सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस की बात करें तो यहां गुटबाजी चरम पर है और पार्टी कई गुटों में बटीं है. पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने रोहतक में महापरिवर्तन रैली करके आलाकमान को आंख जरूर दिखाई थी लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने हरियाणा कांग्रेस में बड़े बदलाव कर स्थिति को संभालने की कोशिश की. अशोक तंवर और हुड्डा की लड़ाई किसी से छुपी नहीं है. जिसका खामियाजा आखिर में तंवर को भुगतना पड़ा और उनको प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाकर कुमारी सैलजा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया है. वहीं पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा को चुनाव समिति की कमान दी गई है. अगर चुनावी प्रदर्शन की बात करें तो. 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के दिग्गजों को करारी शिकस्त मिली थी. केवल हुड्डा पिता-पुत्र ही अपनी जमानत जब्त होने से बचा पाए थे. लेकिन रोहतक से दीपेन्द्र हुड्डा और सोनीपत से खुद भूपेन्द्र हुड्डा चुनाव हार गए थे.

पूर्व सीएम हुड्डा हरियाणा में कांग्रेस की मजबूती भी हैं और कमजोरी भी. अपनी प्रेशर पॉलिटिक्स के जरिए वो प्रदेश अध्यक्ष बदलने से लेकर अपनी कई मांगे मनवाने में सफल हो गए. यानि कांग्रेस आलाकमान को अभी भी हुड्डा के जरिए सत्ता पाने का भरोसा है. दूसरी खास बात ये है कि प्रदेश में बीजेपी के उफान के बाद भी कांग्रेस का कोई विधायक पार्टी छोड़कर नहीं गया. वहीं हुड्डा ने बीजेपी की रणनीति को भांपते हुए कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और हरियाणा में एनआरसी लागू करने के मुद्दे पर भी बीजेपी का समर्थन करके अपनी बदली रणनीति का परिचय दे दिया है. हालांकि कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या अभी भी गुटबाजी ही है.

बिखराव के मोड़ पर इनेलो

वहीं हरियाणा के सबसे बड़े सियासी घराने चौटाला परिवार की पार्टी इनेलो की बात करें तो पार्टी इस समय बिखराव के मोड़ पर खड़ी है. हरियाणा में राज करने से लेकर मुख्य विपक्ष के रूप में रहने वाली इनेलो की कमर टूट चुकी है. चौटाला परिवार में कलह के कारण भाई-भाई के सामने है. दस विधायक पार्टी छोड़कर बीजेपी में जा चुके हैं और चार विधायकों ने जननायक जनता पार्टी का दामन थाम लिया है. 15 साल तक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहने वाले और चौटाला परिवार के करीबी अशोक अरोड़ा अब इनेलो छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं. इनेलो को विधानसभा चुनाव के लिए बड़े चेहरे मिलना भी दूर की बात लग रही है.

लोकसभा चुनाव में पार्टी का कोई भी उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा पाया था. यहां तक कि बहुजन समाज पार्टी का प्रतिशत इनेलो से ज्यादा था. बीएसपी को लोकसभा चुनाव में 3.6 फीसदी वोट मिले जबकि इनेको को केवल 1.8 फीसदी. अब पूर्व सीएम ओपी चौटाला का प्रभाव भी राज्य में कम हो गया है और अभय चौटाला अभी भी अपने आपको राज्य में बड़े नेता के रूप में साबित नहीं कर पाए हैं. ऐसे में पार्टी के लिए आगामी चुनाव में दहाई का आंकड़ा छूना भी मुश्किल दिख रहा है.

जननायक जनता पार्टी के सामने बड़ी परीक्षा

चौटाला परिवार से ही निकली जननायक जनता पार्टी पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ेगी. अजय चौटाला, दुष्यंत चौटाला और दिग्विजय चौटाला ने परिवार से अलग होकर जब पार्टी बनाई थी तो राज्य में कुछ दिन तक इनकी ही चर्चा रही थी. जींद उपचुनाव में दिग्विजय चौटाला ने बेहतरीन प्रदर्शन किया दूसरे नंबर पर रहे. कांग्रेस के दिग्गज नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला मुश्किल से अपनी जमानत बचा पाए. दूसरे नंबर पर रहकर भी पार्टी इस नतीजे से खुश नजर आई थी. लेकिन लोकसभा चुनाव में मिली बुरी हार ने सबकुछ बदल दिया है.

पार्टी के मुख्य नेता दुष्यंत चौटाला खुद हिसार सीट हार गए और मुश्किल से अपनी जमानत बचा पाए थे. पार्टी ने बसपा के साथ जरूर गठबंधन किया था लेकिन वो भी कुछ दिन तक ही चल पाया. मौजूदा स्थिति को देखकर तो यही लगता है कि कोई चमत्कार ही इनको आने वालों चुनावों में जीत दिलवा सकता है. हालांकि जेजेपी ने रोहतक में देवीलाल जन सम्मान रैली करके अपना शक्ति प्रदर्शन किया. दुष्यंत युवा वोटर्स के सहारे सत्ता का सपना देख रहे हैं.

राजकुमार सैनी अकेले ही भर रहे हैं दम

वहीं पिछड़े समुदाय का हिमायती बनकर बीजेपी के पूर्व सांसद राजकुमार सैनी अपना अस्तित्व तलाशने में जुटे हैं. लोकसभा चुनाव में बीएसपी के साथ चुनाव लड़े थे. नतीजों के बाद गठबंधन टूट गया. सैनी बोले बीएसपी ने धोखा दिया है. और अब अकेले ही मैदान में दम भर रहे हैं. हालांकि वोटों का गणित देखें तो राजकुमार सैनी की लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी का वजूद ज्यादा मजबूत नजर नहीं आता.

तो कुछ ऐसे हैं राज्य में मौजूदा राजनीतिक हालात. फिलहाल तो राज्य में मनोहर लाल खट्टर को दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने से रोकने वाला कोई नजर नहीं आ रहा है बाकी चुनाव के परिणाम के दिन ही पता चलेगा.

 


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Last Updated : Oct 4, 2019, 12:03 PM IST
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