चंडीगढ़: दिल्ली समेत उत्तर भारत में हो रहे प्रदूषण के लिए हरियाणा और पंजाब में जलाई जा रही पराली को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है. लेकिन दिल्ली सरकार का ये दावा सिर्फ आधी हकीकत ही है.
धान का उत्पादन बढ़ा
दरअसल हर साल अक्टूबर और नवंबर के महीने में पराली जलाना किसानों की मजबूरी होती है. आंकड़ों के मुताबिक हरियाणा में हर साल धान का रकबा और उत्पादन बढ़ रहा है. साल 2014 में 12 लाख 77 हजार हेक्टेयर जमीन पर 39 लाख 89 हजार टन धान का उत्पादन होता था. जो साल 2018 में 14 लाख 47 हजार हेक्टेयर जमीन में 45 लाख 16 हजार टन धान का उत्पादन हुआ.
पराली जलाए बगैर गेहूं की बुआई नहीं हो सकती
इतने बड़े उत्पादन के बाद बचने वाली धान की जड़ों का किसानों के पास कोई समाधान नहीं होता. लिहाजा उसे जला दिया जाता है. ताकि इसके बाद गेहूं की बुआई की जा सके. क्योंकि धान की जड़ों को अगर पूरी तरह से हटाया नहीं जाएगा तो गेहूं की बुआई नहीं हो पाएगी. किसानों का कहना है कि अगर पराली को जलाया नहीं जाए तो उन्हें 5 से 10 हजार रुपये पराली के समाधान के लिए खर्च करने होंगे.
पराली जलाना किसानों की मजबूरी
प्रदेश के किसानों का भी मानना है कि प्रदूषण से लोगों को काफी तकलीफ हो रही है. लेकिन पराली जलाना उनकी मजबूरी है. क्योंकि सरकार की तरह से पराली के समाधान के लिए उन्हें पर्याप्त साधन मुहैया नहीं कराए गए. ऐसे में वो पराली लेकर कहां जाएं. यही नहीं किसानों का कहना है कि पराली तो पिछले कई साल से जला रहे हैं, लेकिन दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण बढ़ने का सिलसिला अभी कुछ साल से ही शुरू हुआ है. ऐसे में पराली को प्रदूषण बढ़ने का जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए.
किसानों के पास पर्याप्त साधन नहीं
एक तरफ किसान पर्याप्त साधन नहीं होने की बात कह रहे हैं तो दूसरी तरह सरकार किसानों को पराली के समाधान के लिए मशीनें उपलब्ध कराने का दावा कर रही है. कृषि विभाग के अधिकारी का कहना है कि किसान ऑनलाइन अप्लाई करके भी मशीनें ले सकता है. जिससे पराली का समाधान हो सके.
मतलब साफ है कि सरकार ने किसानों को पराली के समाधान के लिए साधन तो उपलब्ध कराए हैं लेकिन वो पर्याप्त नहीं हैं. ऐसे में किसानों को मजबूरी में पराली जलानी पड़ रही है. जरुरत है सरकार को इन मशीनों और संसाधनों को ज्यादा से ज्यादा किसानों तक पहुंचाने की.
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