आज की प्रेरणा: तुम ही अपने मित्र और तुम ही अपने शत्रु हो
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तुम्हारा अधिकार कर्म पर है, फल पर कभी नहीं इसलिए फल की इच्छा से कर्म मत करो और न ही काम करने में तुम्हारी आसक्ति हो. जब-जब धर्म की हानि होती है, तब-तब परमात्मा धरती पर अवतरित होते हैं. सज्जनों की रक्षा, दुष्टों का विनाश और धर्म की स्थापना के लिए परमात्मा हर युग में जन्म लेते हैं. आसक्ति का परित्याग करके, सफलता और असफलता में समभाव रखते हुए, अपने सभी कर्मों को करो. इसी समभाव को ही योग कहा जाता है. बुद्धिमान मनुष्य यहां जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनों का त्याग कर देता है. तुम भी योग में लग जाओ. कर्मों में कुशलता योग है. जो पुरुष सभी कामनाओं को त्याग कर स्पृहारहित, मम भाव रहित और निरहंकार हुआ विचरण करता है, वह शांति प्राप्त करता है. क्रोध से मति मारी जाती है और मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है. बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य स्वयं का ही नाश कर बैठता है. नि:संदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है, उसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है. बुद्धियोग की तुलना में सकाम कर्म अत्यंत निकृष्ट है इसलिए तुम बुद्धि की शरण लो, फल की इच्छा करने वाले लालची हैं. श्रेष्ठ पुरुष जो आचरण करते हैं, दूसरे मनुष्य भी वैसा ही काम करते हैं. श्रेष्ठ पुरुष जो उदाहरण प्रस्तुत करता है, सभी मनुष्य उसी का अनुसरण करने लग जाते हैं. स्वयं अपना उद्धार करें, अपना पतन नहीं करें क्योंकि तुम ही अपने मित्र और तुम ही अपने शत्रु हो.