विशेष मौकों पर सोना वेश में दर्शन देते हैं भगवान
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भगवान जगन्नाथ जी के सोना वेश को राजा वेश या राजा राजेश्वर वेश भी कहा जाता है. रथयात्रा के समय बड़े भाई बलभद्र जी और बहन देवी सुभद्रा समेत श्री जगन्नाथ रथ के ऊपर ही सोने से बनाये हुए आभूषणों को धारण करते हैं और अपने भक्तों को दर्शन देते हैं. श्री गुंडिचा मंदिर से लौटने के पश्चात आषाढ़ शुक्ल एकादशी के दिन सोना वेश धारण करते हैं. भगवान श्री जगन्नाथ के 32 वेशों में से सोना वेश एक है जिसको देखने के लिए भक्त सदैव प्रतीक्षा करते हैं. भगवान जगन्नाथ, बड़े भाई बलभद्र जी और बहन देवी सुभद्रा रथ के ऊपर ही यह वेश धारण करते हैं, जिसमें सोने के हाथ, पांव और मुकुट आदि भगवान को लगाए जाते हैं. साल में 5 बार उनको यह सोना वेश धारण करवाया जाता है. विजया दशमी, कार्तिक पूर्णिमा, पौष पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा और आषाढ़ एकादशी तिथि में भगवान सोना वेश में दर्शन देते हैं. आषाढ़ शुक्ल एकादशी में सोना वेश सिंहद्वार के बाहर रथ के ऊपर होता है, जबकि बाकी समय यह मंदिर के भीतर ही होता है. भगवान जगन्नाथ अपने एक हाथ में सोने का चक्र धारण करते हैं और एक हाथ में शंख, जबकि भगवान श्री बलभद्र बाएं हाथ में सोने से बना हल और दाएं हाथ में सोने की गदा धारण करते हैं. 1460 ईस्वी में राजा कपिलेंद्र देव के युग के दौरान सोना वेश का प्रारम्भ हुआ था. राजा कपिलेंद्र देव दक्षिण भारत के शासकों पर युद्ध जीतकर ढेर सारा सोना लाए थे, वह सोना उन्होंने भगवान को दान कर दिया था और पुजारियों से कहा कि हर साल रथयात्रा के समय यह सोना वेश किया जाए. बस तभी से ही यह परंपरा चली आ रही है. भगवान के सोने के गहने मंदिर के खजाने में रखे जाते हैं, जिसे 'भीतर भंडार घर' के नाम से जाना जाता है. भंडार निकाप पुजारी या स्टोर प्रभारी, सशस्त्र पुलिसकर्मियों और मंदिर के अधिकारियों द्वारा संरक्षित भंडार घर से आवश्यक मात्रा में सोना 1 घंटे पहले लाते हैं और उन्हें रथों पर पुष्पालक और दैतापति पुजारियों को सौंप देते हैं. दैतापति पुजारी भगवान के शरीर को सोने के आभूषणों से सजाते हैं. ऐसा माना जाता है कि जो कोई भी भक्त रथ में भगवान का यह सोना वेश स्वरूप देखता है, वो अपने सभी बुरे कर्मों से मुक्त हो जाता है.