कोरोना महामारी के दौर में संक्रमण से बचाव तथा हाथों को कीटाणुमुक्त रखने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और दुनिया भर में तमाम चिकित्सकों द्वारा हाथों को साबुन और पानी से धोने या अल्कोहल युक्त सैनिटाइजर से हाथ साफ करने की सलाह दी जाती रही है, जो संक्रमण से बचाव और उसको फैलने से रोकने में काफी कारगर भी साबित हुई है. चूंकि बार-बार और हर जगह हाथों को साबुन से धोना संभव नहीं था इसलिए लोगों ने इस दौर में हैंड सैनिटाइजर के उपयोग को ज्यादा प्राथमिकता दी.
हालांकि, महामारी का प्रकोप अभी काफी कम हो चुका है लेकिन सैनिटाइजर का उपयोग अब बड़ी संख्या में लोगों की आदत में शामिल हो गया है. अधिकांश लोग यह जानने के बावजूद कि सैनिटाइजर का ज्यादा उपयोग कई प्रकार के दुष्प्रभाव भी दे सकता है, साबुन से हाथ धोने की बजाय सैनिटाइजर के उपयोग को प्राथमिकता देते हैं. लेकिन हाल ही में हुए एक अध्धयन में सामने आया है कि सैनिटाइजर का जरूरत से ज्यादा उपयोग स्वास्थ्य के साथ पर्यावरण को भी अलग-अलग मदों में नुकसान पहुंचा सकता है. विशेषतौर पर इसके उत्पादन तथा उपयोग से वातावरण में कार्बन की मात्रा दो फीसदी तक बढ़ सकती है.
सैनिटाइजर का विस्तृत विश्लेषण
'एनवायरमेंटल साइंस एंड पोलुशन रिसर्च' (Environmental Science and Pollution Research) में प्रकाशित इस अध्ययन में शोधकर्ता वैज्ञानिकों ने सैनिटाइजर के उपयोग तथा उससे होने वाले नुकसान को लेकर एक विस्तृत विश्लेषण दिया है. इस शोध में वैज्ञानिकों ने एक वर्ष के दौरान हाथ धोने की चार विधियों, इथेनॉल आधारित सैनिटाइजिंग जेल का उपयोग, आइसोप्रोपेनॉल-आधारित सैनिटाइजिंग जेल का उपयोग, तरल साबुन और पानी का उपयोग तथा बार साबुन और पानी का उपयोग को आधार बनाते हुए ब्रिटेन की आबादी पर प्रभावों का एक मॉडल तैयार किया था. शोध के दौरान इस मॉडल पर 16 विभिन्न श्रेणियों में तुलनात्मक अध्ययन किया गया था जिनमें जलवायु परिवर्तन, मीठे या ताजे पानी के स्रोतों में प्रदूषण या विषाक्तता, ओजोन परत को नुकसान तथा पानी का उपयोग आदि शामिल हैं.
शोध के निष्कर्ष
शोध के निष्कर्षों में बताया गया है कि हालांकि अधिकांश व्यावसायिक हैंड सैनिटाइजर को अपने हाथों पर कम से कम 15 सेकंड तक रगड़ने से कई प्रकार के वायरस तथा बैक्टीरिया की एक विस्तृत संख्या कम हो जाती है. लेकिन कुछ विशेष प्रकार के रसायनयुक्त सैनिटाइजर पर्यावरण के लिये नुकसानदायक हो सकते हैं. बाजार में अलग-अलग तरह के हैंड सैनिटाइजर मिलते हैं जिनमें या तो आइसोप्रोपेनॉल होता है या फिर इथेनॉल होता है. इनमें इथेनॉल युक्त हैंड सैनिटाइजर को पर्यावरण के दृष्टिकोण से नुकसानदायक माना जाता है क्योंकि इथेनॉल को विषाक्त श्रेणी में रखा जाता है.
दरअसल इथेनॉल के वाष्पीकरण से पर्यावरणीय समस्याएं होती हैं, जैसे जमीन की सतह और भूजल में पाए जाने वाले इथेनॉल में वृद्धि होने तथा फोटोकैमिकल ओजोन की मात्रा में बदलाव के चलते उत्पन्न होने वाली धुंध बायोएथेनॉल ईंधन के साथ पर्यावरण को नुकसान पहुंचा सकती है. इथेनॉल के मुकाबले आइसोप्रोपेनॉल को कम खतरनाक माना जाता है क्योंकि यह कार्बनिक यौगिकों में तेजी से टूट जाता है. हालांकि इसे भी जल में मौजूद ऑक्सीजन के लिये नुकसानदायक माना जाता है. इसके अलावा हैंड सैनिटाइजिंग जैल के उत्पादन और उपयोग से सामान्य कार्बन में लगभग 2 प्रतिशत हो बढ़ोतरी हो सकती है. जिससे लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित होता है.
शोध के निष्कर्षों में सामने आया कि स्वास्थ्य के लिहाज से आइसोप्रोपेनॉल-आधारित सैनिटाइजिंग जैल का उपयोग 16 में से 14 श्रेणियों में अपेक्षाकृत कम नुकसानदायक रहा था. शोध में ट्रिनिटी कॉलेज डबलिन स्कूल ऑफ डेंटल साइंस में एसोसिएट प्रोफेसर तथा अध्ययनकर्ता डॉ ब्रेट डुआने ने बताया है कि लेकिन यह शोध अपनी तरह का पहला है जो सैनिटाइजिंग जेल के उपयोग का आंकलन करता है. इस अध्ययन में यह बात सामने आई है कि जटिल रसायनों वाले हैंड सैनिटाइज़िंग जेल के उपयोग तथा निर्माण दोनों से ही पर्यावरण को क्षति पहुंच सकती है. शोध में पर्यावरण के अधिक अनुकूल विकल्पों की तलाश और उनके इस्तेमाल की आवश्यकताओं पर जोर दिया गया है.