नई दिल्लीः आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है. द्वापर युग में इसी दिन महर्षि वेदव्यास जी का जन्म हुआ था. महर्षि वेदव्यास का जन्म गंगा नदी के बीच एक छोटे से द्वीप में हुआ था. बचपन में इनका नाम कृष्ण द्वैपायन पड़ा. यह महर्षि पाराशर और सत्यवती के पुत्र थे. माता की आज्ञा से बचपन से ही भगवान की तपस्या के लिए चले गए थे. माता को उन्होंने वचन दिया था कि जब भी उन्हें वेदव्यास की आवश्यकता पड़ेगी, तो वह तुरंत उनकी सेवा में उपस्थित हो जाएंगे.
ज्योतिषाचार्य और अध्यात्मिक गुरु शिवकुमार शर्मा के मुताबिक भरतवंशी राजा शांतनु और सत्यवती के दो पुत्र हुए थे. चित्रागंद और विचित्रवीर्य. दोनों ही अल्पायु में कालगति को प्राप्त हो गए थे. उनकी कोई संतान नहीं थी. वंश की वृद्धि कैसे हो? इससे चिंतित होकर माता सत्यवती ने अपने बड़े पुत्र वेदव्यास याद किया. कहा जाता है कि माता सत्यवती के आग्रह पर महर्षि वेदव्यास के द्वारा नियोग व्यवस्था के अंतर्गत सत्यवती की पुत्रवधूओं अंबा, अंबालिका और उनकी दासी ने तीन पुत्रों को जन्म दिया. धृतराष्ट्र, पांडु और दासी पुत्र विदुर. इससे संपूर्ण महाभारत का इतिहास रचा गया.
महर्षि वेदव्यास ने अपने समकालीन महाभारत के युद्ध का संपूर्ण वर्णन महाभारत ग्रंथ में लिखा. ब्रह्मा की आज्ञा से उन्होंने वेदों को चार भागों में बांटा. उसके साथ साथ उन्होंने लोक कथा पर आधारित पुराणों का भी निर्माण किया. महर्षि वेदव्यास को गुरु होने का सम्मान प्राप्त है. इसीलिए उनके जन्मदिन पर आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा का त्योहार श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है.
गुरु भगवान के पथ प्रदर्शक होते हैं जैसा कि कबीरदास ने लिखा है.
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने ,गोविंद दियो बताय।
वर्तमान युग के परिपेक्ष्य में सद्गुरु मिलना बहुत ही दुर्लभ है.
गुरु कैसा हो इसके बारे में भी बताया गया है.
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, घड़ घड़ काढे खोट।
अंदर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।
अर्थात गुरु को कुम्हार के समान होना चाहिए, जो बर्तन बनाते समय अंदर हाथ रखकर बाहर से चोट मारता है. सच्चा गुरु अपने शिष्यों को संसार के बाह्य आडम्बरों से दूर करके उसकी आंतरिक शक्तियों को जागृत करता है. लेकिन आज के युग में ऐसे गुरु का मिलना आजकल दुर्लभ है. लेकिन वे भाग्यशाली लोग होते हैं जिन्हें अच्छे गुरु मिल जाते हैं.
गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु को सम्मान पूर्वक उपहार, सेवा कार्य आदि से उन्हें प्रसन्न करना करना चाहिए. उनका आशीर्वाद लेना चाहिए. उनसे दीक्षा भी अवश्य लें ताकि जीवन में आत्मिक विकास का काम करें. 3 जुलाई को गुरु पूर्णिमा का व्रत लुम्बक योग में मनाया जाएगा. यद्यपि यह योग अच्छा नहीं होता है किन्तु लग्नानुसार गुरु पूजन के शुभ मुहूर्त इस प्रकार हैं: प्रातः 9:00 बजे से 11:07 बजे तक श्रेष्ठ मुहुर्त हैं. उसके पश्चात 13:19 बजे से और 5:57 तक भी गुरु पूजन के शुभ मुहूर्त हैं.