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विशेष : चकाचौंध से दूर रह कर भी शिखर पुरुष बने प्रणब मुखर्जी - इंदिरा गांधी

हमेशा चकाचौंध से दूर रहकर पर्दे के पीछे से काम करना प्रणब मुखर्जी की शैली थी. इसी ट्रेडमार्क ने अंततः उन्हें कांग्रेस में एक पारिवारिक नाम बना दिया. मुखर्जी कभी नायक नहीं रहे फिर भी सर्वेसर्वा रहे.

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी
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Published : Aug 31, 2020, 11:06 PM IST

Updated : Aug 31, 2021, 10:43 AM IST

हैदराबाद: इंदिरा गांधी यदि भारत के राजनीतिक सेल्युलाइड में सबसे प्रमुख महिला हैं, मनमोहन सिंह अगुवाई करने वालों में सबसे प्रमुख पुरुष किरदार में से हैं और पीवी नरसिम्हा राव सबसे अधिक चर्चित चरित्र हैं तो बगैर किसी शक के प्रणब मुखर्जी सबसे सफल फिल्म (ब्लॉकबस्टर) के सर्वश्रेष्ठ निर्माताओं में से एक हैं.

भारतीय राजनीति ने आज अपने समर्थ रणनीतिकारों में से एक को खो दिया. देश के पहले बंगाली राष्ट्रपति के निधन के साथ कांग्रेस के एक विशेष युग का पट्टाक्षेप हो गया. मुखर्जी इंदिरा गांधी के नंबर -2 थे. वह पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के भी नंबर -2 थे. उन्होंने मनमोहन सिंह के लिए भी नंबर -2 की भूमिका भी निभाई थी. प्रणब मुखर्जी, भारतीय राजनीति के अनवरत नंबर -2 रहे.

बंगाल में एक अनजाने से गांव से देश का पहला नागरिक बनने तक प्रणब मुखर्जी हमेशा से सभी चर्चाओं के केंद्र में रहे. मुखर्जी ने यह आलोचना झेली कि उन्होंने कभी लोगों का सामना नहीं किया. तब भी वर्ष 2004 में जंगीपुर लोकसभा सीट से विजयी हुए. उसके बाद उन्होंने 2009 में उस सीट को बरकरार रखा. यह एक अलग दिलचस्प कहानी है. बहुत कम लोगों को याद होगा कि मुखर्जी पहले वर्ष 1980 में बोलपुर सीट से लोकसभा चुनाव लड़े थे लेकिन वे माकपा के सरदीश राय से हार गए थे.

छह दशक से अधिक समय तक भारतीय राजनीति की उनकी सर्वोत्कृष्ट शख्सियत ने एक औरों से अलग व्यक्ति से राष्ट्रपति बनने तक की राह दिखाई. राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के रूप में मुखर्जी और नरेंद्र मोदी के बीच मतभेद थे, लेकिन मुखर्जी भारतीय राजनीति के 'चाणक्य' थे, जिन्होंने सरकार के औपचारिक प्रमुख होने के बावजूद अपनी खुद की जगह बनाई और सार्वजनिक जीवन में अपनी अमिट छाप छोड़ी. वह भी संविधान की सभी सीमा के भीतर रहते हुए. मुखर्जी की नंबर -2 से देश के राष्ट्रपति पद तक पहुंचने की इस प्रभाव वाली यात्रा थी.

राजनीतिक चकाचौंध से दूर रहकर पर्दे के पीछे रहकर काम करने का मुखर्जी का विलक्षण अंदाज उनकी विशिष्ट शैलियों में से एक था, जिसने अंततः उन्हें कांग्रेस में एक घरेलू नाम बना दिया था. वह कभी नायक नहीं रहे, फिर भी मुख्य थे. वे एक ऐसे आदमी थे जो सभी को एक साथ ला सकते थे लालकृष्ण आडवाणी से लेकर लालू प्रसाद से लेकर प्रकाश करात तक. मुखर्जी हमेशा एक सच्चे बहुलतावादी, सामंजस्य कायम करने वाले महान व्यक्ति रहे.

अपने करियर के शुरुआती दिनों में शिक्षक और पत्रकार रहे प्रणब मुखर्जी ने किसी राजनीतिक विरासत के बगैर एक निहायत परिवार संचालित राजनीतिक व्यवस्था के बीच अपना स्थान बनाया. उनके संगठनात्मक कौशल, बुद्धिमानी और नुकसान को नियंत्रित करने की क्षमताओं ने उन्हें इंदिरा गांधी करीबी लोगों में शामिल कर दिया था. इस घनिष्ठता ने मुखर्जी के राजनीतिक जीवन को प्रोत्साहित किया. लोकसभा में घुसने की उनकी राजनीतिक आकांक्षा को 1980 की हार ने उन्हें लंबे समय तक परेशान किया, क्योंकि उनका मानना था कि कांग्रेस के दिग्गज नेता एबीए गनी खान चौधरी ने उनकी उम्मीदवारी का विरोध किया था. हालांकि यह हार इंदिरा-प्रणव समीकरण के बीच बड़ी दरार पैदा करने में नाकाम रही और मुखर्जी ने इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में औद्योगिक विकास मंत्री के रूप में शपथ ली. इसके बावजूद प्रणब-बरकत के मतभेद और बढ़ गए और इंदिरा गांधी की मौत के बाद उनके बेटे राजीव गांधी की कांग्रेस से बाहर हो गए.

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस पार्टी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की. मुखर्जी का राजीव गांधी के मंत्रिमंडल से हटना, फिर पार्टी से छह साल के लिए निकाला जाना और अपनी पार्टी बनाना, इस तरह मुखर्जी के हिस्से कुछ मुश्किल भरे साल भी आए.

कांग्रेस में फिर उनकी वापसी हुई और उनकी चमक बढ़ी. राजीव गांधी की हत्या के बाद 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने मुखर्जी को योजना आयोग का उपाध्यक्ष नियुक्त किया. प्रधानमंत्री राव अंततः उन्हें केंद्रीय कैबिनेट मंत्री बनाया. मुखर्जी ने पहली बार राव के मंत्रिमंडल में 1995 से 1996 तक विदेश मंत्री के रूप में काम किया.

नई सहस्राब्दी में भारत के कदम रखते ही मुखर्जी की राजनीतिक यात्रा में ऊंचाई की ओर जाने लगी. सबसे पहले 2004 में फिर जनवरी 2009 में और फिर 2012 की गर्मियों राष्ट्रपति चुनाव से थोड़ा पहले मुखर्जी और देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी के बीच की दूरी उनकी पहुंच के बिल्कुल करीब थी, लेकिन वास्तव में उस कुर्सी पर कभी नहीं बैठे. फिर से विश्वास, गांधी टोली के भीतर की घबराहट इसका कारण हो सकता है. हो सकता है इस लिए कुछ भी रिकॉर्ड में नहीं है. कम से कम बंगाली भद्रलोक के नहीं, न तो सार्वजनिक रूप से, न ही उनकी पुस्तक -द कोएलिशन ईयर्स में.

क्या मुखर्जी ने 2004 में कांग्रेस पर सोनिया गांधी के अधिकार को चुनौती दी थी, क्योंकि मनमोहन सिंह की तुलना में उन्हें वफादारी के सूचकांक पर कम आंका गया था ? क्या सोनिया ने शीर्ष पद के लिए कम 'राजनीतिक' व्यक्ति को वरीयता दी ?

वर्ष 2004 में लोकसभा में कांग्रेस के पास भाजपा के 138 के मुकाबले केवल 145 सीटें थीं. पूरी तरह से क्षेत्रीय सहयोगियों के आधार पर सरकार बनाने के लिए सोनिया गांधी ने राजनीतिक माया वाले या केवल वफादार व्यक्ति का विकल्प नहीं चुना. इसलिए प्रधानमंत्री पद के लिए मनमोहन सिंह थे, प्रणब नहीं.

वर्ष 2009 में मनमोहन सिंह ने जब बाईपास सर्जरी करवाई और कई हफ्तों तक स्वास्थ्य लाभ करते रहे, तो मुखर्जी ने उस साल के बाद होने वाले चुनावों को देखते हुए फिर से उनका स्थान पाने की अपनी संभावनाओं के बारे में परिकल्पना की लेकिन कुछ नहीं बदला.

कांग्रेस आलाकमान ने मुंबई के आतंकी हमलों और शिवराज पाटिल के इस्तीफे के बाद केंद्रीय गृह मंत्री के पद के लिए भी मुखर्जी के नाम पर विचार नहीं किया. वर्ष 2012 तक, संप्रग-दो का नीचे जाना स्पष्ट हो गया था और सोनिया गांधी को कुछ सुधार करने के लिए फिर कुछ ठोस कदम उठाने पड़े. वह तोड़ मुखर्जी का हो सकते थे, जो राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में मनमोहन सिंह के पक्ष में न केवल एक आरामदायक बहुमत हासिल करा सकते थे, बल्कि यह सुनिश्चित करते थे कि नरेंद्र मोदी किसी भी तरह की टक्कर न दे सकें.

कॉरपोरेट इंडिया के साथ मुखर्जी के करीबी संबंध ने मोदी की राह को और कठिन बना दिया. वही यह सुनिश्चित कर सकते थे कि ममता बनर्जी कांग्रेस गठबंधन के साथ रहें. कांग्रेस को मोदी के खेमे में जाने से रोकने के लिए एक कट्टर नेता की जरूरत थी, न कि विद्वान की, फिर भी कुछ नहीं हुआ. मुखर्जी ने उन मनमोहन सिंह के अधीन काम करना जारी रखा. जिनकी भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर के रूप में नियुक्ति पत्र पर खुद मुखर्जी ने हस्ताक्षर किए थे.

संप्रग-2 टूट गया. ये वही संप्रग गठबंधन था जिसने 123 समझौते और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के साथ संधि के बाद उथल-पुथल वाले अविश्वास प्रस्ताव के समय मुखर्जी के कौशल को देखा था.

मुखर्जी के राजनीतिक करियर के अंतिम हिस्से ने रायसीना हिल्स में उनके प्रवेश पर मोहर लगाई, जहां वे अपने प्राकृतिक स्वभाव में लौटकर आ गए थे.

लोगों के लिए राष्ट्रपति भवन के दरवाजे खोलकर रखने से लेकर पड़ोसी बांग्लादेश में अपनी यात्रा के दौरान नई सड़कों के लिए चार्ट तैयार करने तक मुखर्जी हमेशा अलग थे. मोदी सरकार के साथ दो मुद्दों पर उनके रुख में जहां मतभेद थे – वह था सहिष्णु बने रहने की जरूरत और कानून बनाने के लिए बार-बार अध्यादेश का रास्ता अख्तियार करना. केंद्र को ऐसी सलाह देना उसी अंतर की गवाही देता है. इसी तरह केशव बलिराम हेडगेवार के जन्मस्थान और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालयों में उनकी यात्रा होती है. नागपुर में पोडियम पर उनके जाते ही सोनिया गांधी के चेहरे की मुस्कान ठहर गई.

उनका वास्तव में क्या कहना था जब उन्होंने कहा था, 'हिंसा के दिल में अंधेरा है' क्या किसी को इसका अनुमान है, क्योंकि मुखर्जी ने कभी नहीं समझाया. जिस तरह अरुण नेहरू और एबीए गनी खान चौधरी के अपने राजनीतिक बोध और चौधरी ने अरुण नेहरू के साथ पक्षपात क्यों किया, क्यों मुखर्जी के प्रति चौधरी का रुख बेहद ठंडा रहा , इस बारे में हमेशा अस्पष्टता बनी रहेगी. मुखर्जी इसे कभी भी रिकॉर्ड में नहीं गए और उनकी निजी डायरी जो इन पर कुछ रोशनी डाल सकती थी, उसे उनकी इच्छा के अनुसार उनके नश्वर शरीर के साथ आग की लपटों के हवाले कर दिया जाएगा. प्रणव मुखर्जी के साथ ही एक राजनीतिक युग का अंत हो गया.

प्रणब मुखर्जी के जीवन से जुड़ी कुछ अन्य दिलचस्प खबरें

हैदराबाद: इंदिरा गांधी यदि भारत के राजनीतिक सेल्युलाइड में सबसे प्रमुख महिला हैं, मनमोहन सिंह अगुवाई करने वालों में सबसे प्रमुख पुरुष किरदार में से हैं और पीवी नरसिम्हा राव सबसे अधिक चर्चित चरित्र हैं तो बगैर किसी शक के प्रणब मुखर्जी सबसे सफल फिल्म (ब्लॉकबस्टर) के सर्वश्रेष्ठ निर्माताओं में से एक हैं.

भारतीय राजनीति ने आज अपने समर्थ रणनीतिकारों में से एक को खो दिया. देश के पहले बंगाली राष्ट्रपति के निधन के साथ कांग्रेस के एक विशेष युग का पट्टाक्षेप हो गया. मुखर्जी इंदिरा गांधी के नंबर -2 थे. वह पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव के भी नंबर -2 थे. उन्होंने मनमोहन सिंह के लिए भी नंबर -2 की भूमिका भी निभाई थी. प्रणब मुखर्जी, भारतीय राजनीति के अनवरत नंबर -2 रहे.

बंगाल में एक अनजाने से गांव से देश का पहला नागरिक बनने तक प्रणब मुखर्जी हमेशा से सभी चर्चाओं के केंद्र में रहे. मुखर्जी ने यह आलोचना झेली कि उन्होंने कभी लोगों का सामना नहीं किया. तब भी वर्ष 2004 में जंगीपुर लोकसभा सीट से विजयी हुए. उसके बाद उन्होंने 2009 में उस सीट को बरकरार रखा. यह एक अलग दिलचस्प कहानी है. बहुत कम लोगों को याद होगा कि मुखर्जी पहले वर्ष 1980 में बोलपुर सीट से लोकसभा चुनाव लड़े थे लेकिन वे माकपा के सरदीश राय से हार गए थे.

छह दशक से अधिक समय तक भारतीय राजनीति की उनकी सर्वोत्कृष्ट शख्सियत ने एक औरों से अलग व्यक्ति से राष्ट्रपति बनने तक की राह दिखाई. राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के रूप में मुखर्जी और नरेंद्र मोदी के बीच मतभेद थे, लेकिन मुखर्जी भारतीय राजनीति के 'चाणक्य' थे, जिन्होंने सरकार के औपचारिक प्रमुख होने के बावजूद अपनी खुद की जगह बनाई और सार्वजनिक जीवन में अपनी अमिट छाप छोड़ी. वह भी संविधान की सभी सीमा के भीतर रहते हुए. मुखर्जी की नंबर -2 से देश के राष्ट्रपति पद तक पहुंचने की इस प्रभाव वाली यात्रा थी.

राजनीतिक चकाचौंध से दूर रहकर पर्दे के पीछे रहकर काम करने का मुखर्जी का विलक्षण अंदाज उनकी विशिष्ट शैलियों में से एक था, जिसने अंततः उन्हें कांग्रेस में एक घरेलू नाम बना दिया था. वह कभी नायक नहीं रहे, फिर भी मुख्य थे. वे एक ऐसे आदमी थे जो सभी को एक साथ ला सकते थे लालकृष्ण आडवाणी से लेकर लालू प्रसाद से लेकर प्रकाश करात तक. मुखर्जी हमेशा एक सच्चे बहुलतावादी, सामंजस्य कायम करने वाले महान व्यक्ति रहे.

अपने करियर के शुरुआती दिनों में शिक्षक और पत्रकार रहे प्रणब मुखर्जी ने किसी राजनीतिक विरासत के बगैर एक निहायत परिवार संचालित राजनीतिक व्यवस्था के बीच अपना स्थान बनाया. उनके संगठनात्मक कौशल, बुद्धिमानी और नुकसान को नियंत्रित करने की क्षमताओं ने उन्हें इंदिरा गांधी करीबी लोगों में शामिल कर दिया था. इस घनिष्ठता ने मुखर्जी के राजनीतिक जीवन को प्रोत्साहित किया. लोकसभा में घुसने की उनकी राजनीतिक आकांक्षा को 1980 की हार ने उन्हें लंबे समय तक परेशान किया, क्योंकि उनका मानना था कि कांग्रेस के दिग्गज नेता एबीए गनी खान चौधरी ने उनकी उम्मीदवारी का विरोध किया था. हालांकि यह हार इंदिरा-प्रणव समीकरण के बीच बड़ी दरार पैदा करने में नाकाम रही और मुखर्जी ने इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में औद्योगिक विकास मंत्री के रूप में शपथ ली. इसके बावजूद प्रणब-बरकत के मतभेद और बढ़ गए और इंदिरा गांधी की मौत के बाद उनके बेटे राजीव गांधी की कांग्रेस से बाहर हो गए.

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस पार्टी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की. मुखर्जी का राजीव गांधी के मंत्रिमंडल से हटना, फिर पार्टी से छह साल के लिए निकाला जाना और अपनी पार्टी बनाना, इस तरह मुखर्जी के हिस्से कुछ मुश्किल भरे साल भी आए.

कांग्रेस में फिर उनकी वापसी हुई और उनकी चमक बढ़ी. राजीव गांधी की हत्या के बाद 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने मुखर्जी को योजना आयोग का उपाध्यक्ष नियुक्त किया. प्रधानमंत्री राव अंततः उन्हें केंद्रीय कैबिनेट मंत्री बनाया. मुखर्जी ने पहली बार राव के मंत्रिमंडल में 1995 से 1996 तक विदेश मंत्री के रूप में काम किया.

नई सहस्राब्दी में भारत के कदम रखते ही मुखर्जी की राजनीतिक यात्रा में ऊंचाई की ओर जाने लगी. सबसे पहले 2004 में फिर जनवरी 2009 में और फिर 2012 की गर्मियों राष्ट्रपति चुनाव से थोड़ा पहले मुखर्जी और देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी के बीच की दूरी उनकी पहुंच के बिल्कुल करीब थी, लेकिन वास्तव में उस कुर्सी पर कभी नहीं बैठे. फिर से विश्वास, गांधी टोली के भीतर की घबराहट इसका कारण हो सकता है. हो सकता है इस लिए कुछ भी रिकॉर्ड में नहीं है. कम से कम बंगाली भद्रलोक के नहीं, न तो सार्वजनिक रूप से, न ही उनकी पुस्तक -द कोएलिशन ईयर्स में.

क्या मुखर्जी ने 2004 में कांग्रेस पर सोनिया गांधी के अधिकार को चुनौती दी थी, क्योंकि मनमोहन सिंह की तुलना में उन्हें वफादारी के सूचकांक पर कम आंका गया था ? क्या सोनिया ने शीर्ष पद के लिए कम 'राजनीतिक' व्यक्ति को वरीयता दी ?

वर्ष 2004 में लोकसभा में कांग्रेस के पास भाजपा के 138 के मुकाबले केवल 145 सीटें थीं. पूरी तरह से क्षेत्रीय सहयोगियों के आधार पर सरकार बनाने के लिए सोनिया गांधी ने राजनीतिक माया वाले या केवल वफादार व्यक्ति का विकल्प नहीं चुना. इसलिए प्रधानमंत्री पद के लिए मनमोहन सिंह थे, प्रणब नहीं.

वर्ष 2009 में मनमोहन सिंह ने जब बाईपास सर्जरी करवाई और कई हफ्तों तक स्वास्थ्य लाभ करते रहे, तो मुखर्जी ने उस साल के बाद होने वाले चुनावों को देखते हुए फिर से उनका स्थान पाने की अपनी संभावनाओं के बारे में परिकल्पना की लेकिन कुछ नहीं बदला.

कांग्रेस आलाकमान ने मुंबई के आतंकी हमलों और शिवराज पाटिल के इस्तीफे के बाद केंद्रीय गृह मंत्री के पद के लिए भी मुखर्जी के नाम पर विचार नहीं किया. वर्ष 2012 तक, संप्रग-दो का नीचे जाना स्पष्ट हो गया था और सोनिया गांधी को कुछ सुधार करने के लिए फिर कुछ ठोस कदम उठाने पड़े. वह तोड़ मुखर्जी का हो सकते थे, जो राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में मनमोहन सिंह के पक्ष में न केवल एक आरामदायक बहुमत हासिल करा सकते थे, बल्कि यह सुनिश्चित करते थे कि नरेंद्र मोदी किसी भी तरह की टक्कर न दे सकें.

कॉरपोरेट इंडिया के साथ मुखर्जी के करीबी संबंध ने मोदी की राह को और कठिन बना दिया. वही यह सुनिश्चित कर सकते थे कि ममता बनर्जी कांग्रेस गठबंधन के साथ रहें. कांग्रेस को मोदी के खेमे में जाने से रोकने के लिए एक कट्टर नेता की जरूरत थी, न कि विद्वान की, फिर भी कुछ नहीं हुआ. मुखर्जी ने उन मनमोहन सिंह के अधीन काम करना जारी रखा. जिनकी भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर के रूप में नियुक्ति पत्र पर खुद मुखर्जी ने हस्ताक्षर किए थे.

संप्रग-2 टूट गया. ये वही संप्रग गठबंधन था जिसने 123 समझौते और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के साथ संधि के बाद उथल-पुथल वाले अविश्वास प्रस्ताव के समय मुखर्जी के कौशल को देखा था.

मुखर्जी के राजनीतिक करियर के अंतिम हिस्से ने रायसीना हिल्स में उनके प्रवेश पर मोहर लगाई, जहां वे अपने प्राकृतिक स्वभाव में लौटकर आ गए थे.

लोगों के लिए राष्ट्रपति भवन के दरवाजे खोलकर रखने से लेकर पड़ोसी बांग्लादेश में अपनी यात्रा के दौरान नई सड़कों के लिए चार्ट तैयार करने तक मुखर्जी हमेशा अलग थे. मोदी सरकार के साथ दो मुद्दों पर उनके रुख में जहां मतभेद थे – वह था सहिष्णु बने रहने की जरूरत और कानून बनाने के लिए बार-बार अध्यादेश का रास्ता अख्तियार करना. केंद्र को ऐसी सलाह देना उसी अंतर की गवाही देता है. इसी तरह केशव बलिराम हेडगेवार के जन्मस्थान और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालयों में उनकी यात्रा होती है. नागपुर में पोडियम पर उनके जाते ही सोनिया गांधी के चेहरे की मुस्कान ठहर गई.

उनका वास्तव में क्या कहना था जब उन्होंने कहा था, 'हिंसा के दिल में अंधेरा है' क्या किसी को इसका अनुमान है, क्योंकि मुखर्जी ने कभी नहीं समझाया. जिस तरह अरुण नेहरू और एबीए गनी खान चौधरी के अपने राजनीतिक बोध और चौधरी ने अरुण नेहरू के साथ पक्षपात क्यों किया, क्यों मुखर्जी के प्रति चौधरी का रुख बेहद ठंडा रहा , इस बारे में हमेशा अस्पष्टता बनी रहेगी. मुखर्जी इसे कभी भी रिकॉर्ड में नहीं गए और उनकी निजी डायरी जो इन पर कुछ रोशनी डाल सकती थी, उसे उनकी इच्छा के अनुसार उनके नश्वर शरीर के साथ आग की लपटों के हवाले कर दिया जाएगा. प्रणव मुखर्जी के साथ ही एक राजनीतिक युग का अंत हो गया.

प्रणब मुखर्जी के जीवन से जुड़ी कुछ अन्य दिलचस्प खबरें

Last Updated : Aug 31, 2021, 10:43 AM IST
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