नई दिल्ली : पहली बार बात सामने आई तो लगा कि यह अफवाह है, लेकिन अप्रत्य़ाशित रूप से घोषणा हुई कि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह लौटते समय शनिवार को तेहरान में रुक सकते हैं और ईरान के रक्षा मंत्री ब्रिगेडियर-जनरल आमिर हातमी से मुलाकात कर सकते हैं.
रक्षामंत्री सिंह उस दिन अपनी मॉस्को यात्रा से लौट रहे थे. मॉस्को में उन्होंने शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (एससीओ ) के रक्षा मंत्रियों, स्वतंत्र देशों (राज्यों) के राष्ट्रमंडल (सीआईएस) और सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन यानी कलेक्टिव ट्रीटी सिक्योरिटी ऑर्गेनाइजेशन (सीएसटीओ) को संबोधित किया था.
रक्षामंत्री ने बाद में ट्वीट किया कि चर्चा अफगानिस्तान समेत क्षेत्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर थी, लेकिन निश्चित रूप से संभावनाओं के पैमाने और अहमियत को देखते हुए जो बताया गया यह उससे बहुत ज्यादा थी.
हो सकता है कि बैठक की योजना कुछ समय से बन रही हो या अचानक बनी हो लेकिन यह अर्थपूर्ण थी.
सबसे पहले तो ईरान और चीन के संबंधों में अभूतपूर्व गर्मजोशी है, जबकि भारत-चीन संबंध सीमा विवाद बढ़ने के बाद सबसे निचले स्तर पर हैं. वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) और अंदरूनी क्षेत्रों में सैन्य साजो-सामान के साथ करीब एक लाख सैनिकों को तैनात किया गया है, जिसमें वायुसेना के सामान भी शामिल हैं.
ईरान और चीन के संबंधों में गर्मजोशी आने की एक वजह तो ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध है, जिसे चीन ने अस्वीकार करने का निर्णय लिया है. जाहिर है कि चीन के पास अमेरिका को धता बताने के लिए आर्थिक वजन और भू-राजनीतिक महत्व है और इसलिए वह ईरान से तेल खरीद रहा है, जिसे बेचने के लिए ईरान बेचैन है. दूसरी तरफ, भारत जो एक समय ईरान के तेल का प्रमुख खरीदार था. वह अब अमेरिका के कड़े आदेश का पालन कर रहा है.
परंपरागत रूप से ईरान और भारत में बहुत करीबी संबंध रहे हैं. शिया-बहुल देश ईरान अपनी भू-रणनीतिक राजनीति में भारत का समर्थन करता रहा है और विशेष रूप से पाकिस्तान जैसे सुन्नी बहुल देश को रोकने में भारत का एक प्रमुख सहयोगी रहा है.
भारत बहुत इच्छुक है कि ईरान और चीन के बीच कुछ दूरी आ जाए. खासकर इस पृष्ठभूमि को देखते हुए कि चीन के साथ तनाव की तीव्रता में कमी आने या इससे छुटकारा मिलने के तत्काल कोई संकेत नहीं हैं.
दूसरी बात यह है कि सिंह ने यह देखने की कोशिश की होगी कि क्या चाबहार बंदरगाह सौदा हो सकता है, जिसे लेकर भारत की दुविधा ने ईरान को निराश कर दिया था. भारत रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण ईरान के चाबहार बंदरगाह के माध्यम से एक पारगमन गलियारे के निर्माण के लिए बहुत उत्सुक रहा है. इस बंदरगाह से भारत अफगानिस्तान, मध्य एशिया और यहां तक कि रूस तक व्यापार के लिए पहुंच बनाने में सक्षम हो जाएगा.
भारत ने चाबहार के शाहिद बेहेश्ती क्षेत्र में जहाजों के ठहराने वाले पांच बर्थ और दो टर्मिनल बनाने की योजना में बहुत अधिक देरी की थी. जो दो टर्मिनल बनाने थे उनमें 600 मीटर का कार्गो टर्मिनल और 640 मीटर कंटेनर टर्मिनल थे.
ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों ने वास्तव में यह सुनिश्चित किया है कि भारत चाबहार बंदरगाह के निर्माण के लिए तय लक्ष्यों का पालन नहीं कर सकता है. जबकि चाबहार-ज़ाहेदान रेलवे परियोजना जिस पर पहले भारत को काम करना था वह अब ईरान ने चीन को दे दी है.
तीसरी बात यह है कि ईरान मुस्लिम दुनिया में एक नए अमेरिकी-विरोधी समूह का हिस्सा है, जिसमें तुर्की, कतर और मलेशिया भी शामिल हैं. यह इस्लामिक देशों के संगठन (ओआईसी) के बाहर का एक गुट है, जो सऊदी अरब के खिलाफ उभरा है. सऊदी अरब अमेरिका का एक करीबी समर्थक है और इजरायल के साथ अच्छे संबंधों का भी आनंद उठाता है, जिसे इस्लाम की दुनिया में एक बहिष्कृत देश माना जाता है.
पाकिस्तान को लगता है कि सऊदी अरब ने कश्मीर पर उसके रुख को लेकर उसे साफ तौर पर झिड़क दिया है, इसलिए यह भी सोचने का कारण है कि पाकिस्तान ईरान-तुर्की-मलेशिया-कतर समूह का स्वाभाविक रूप से सदस्य बन सकता है.
चौथी बात कि अनुच्छेद 370 के रद्द किए जाने और अधिवास कानूनों को बदलने के बाद परिसीमन प्रक्रिया जारी है, जिससे कश्मीर में फिर से समस्याएं पैदा होनी तय हैं. कश्मीर के कई हिस्सों में शिया आबादी पर्याप्त है जो वैचारिक मार्गदर्शन के लिए ईरान की ओर देखती है. भारत चाहेगा कि ईरान परिसीमन प्रक्रिया के खिलाफ उस तरह की प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करे जिस तरह से उसने अनुच्छेद 370 रद्द किए जाने की आलोचना की थी.
ये चीजें हमें उस जरूरी सवाल पर वापस लाते हैं कि क्या भारत ईरान को पहले की तरह वापस लाने की दिशा में बहुत कम प्रयास और बहुत देर कर रहा है?