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विशेष लेख : बोरिस जॉनसन की जीत के बाद स्कॉटलैंड मांग रहा दूसरा जनमत संग्रह - ब्रेक्जिट बॉरिस जॉनसन

2016 के जनमत संग्रह के बाद से ही ब्रिटेन में ब्रेक्जिट के भविष्य को लेकर वोटर असमंजस में थे. इसलिए उन्होंने बॉरिस जॉनसन को चुना, जिन्होंने जनवरी के अंत तक यूरोपीय यूनियन को छोड़ने का वादा किया. इसके बाद ब्रेक्जिट का असर क्या होगा, अब यह एक हकीकत है. पढ़ें वीरेन्द्र कपूर का विश्लेषण.

EDITORIAL on BREXIT etv bharat
प्रधानमंत्री बॉरिस जॉनसन
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Published : Dec 18, 2019, 2:51 PM IST

Updated : Dec 18, 2019, 3:20 PM IST

ब्रेक्जिट का असर क्या होगा, इसे भुलाकर यह अब एक हकीकत है. इस मुहिम का चेहरा रहे बॉरिस जॉनसन ने 'गेट ब्रेक्जिट डन' के नारे के साथ शुक्रवार को एक ऐतिहासिक जीत दर्ज की. जुलाई में थेरेसा मे के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे के बाद जॉनसन प्रधानमंत्री पद पर काबिज हुए थे. लेकिन शुक्रवार को जॉनसन ने 1987 में मार्गेट थैचर की तीसरी चुनावी जीत के बाद से कंजर्वेटिव दल की अब तक की सबसे बड़ी चुनावी जीत दर्ज की.

2016 के जनमत संग्रह के बाद से ही ब्रिटेन में ब्रेक्जिट के भविष्य को लेकर वोटर असमंजस में थे. इसलिए उन्होंने बॉरिस जॉनसन को चुना, जिन्होंने जनवरी के अंत तक युरोपीय यूनियन को छोड़ने का वादा किया.

हालांकि, जॉनसन ने 14 नए अस्पतालों का निर्माण, पुलिस में 20 हजार नई भर्तियां और अस्पतालों में 50 हजार नर्सों की भर्ती जैसे वादे भी किये थे, लेकिन लोगों के बीच ब्रेक्जिट को लेकर उनका नारा 'गेट ब्रेक्जिट डन' सबसे ज्यादा पसंद किया गया. 650 के सदन में कंजर्वेटिव पार्टी के पास 365 सीटों का आसान बहुमत है.

मुख्य विपक्षी दल लेबर पार्टी को इन चुनावों में भारी नुकसान का सामना करना पड़ा. पिछले आधे दशक में जेरेमी कॉर्बिन शायद पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेता रहे हैं. उन्होंने न केवल पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में अपनी जगह बनाकर खलबली मचाई, बल्कि अपनी वामपंथी नीतियों के कारण पार्टी के समर्थकों के बीच भी अपने लिए विश्वास पैदा किया.

उनकी फ्री मार्केट सिस्टम पर हमले, सार्वजनिक और निजि सेवाओं को दोबारा सरकार के आधीन लाना, सामीवाद की खिलाफत, एंटी अमेरिका और प्रो रूस विचारधारा की शायद 21वीं सदी में ज्यादा समर्थक न ही मिलें. वह शीत युद्ध काल की याद दिलाते थे एक ऐसे समय में जब दुनिया आगे निकल गई है.

लेबर पार्टी को 203 सीटों से ही संतोष करना पड़ा. ये आंकड़ा पिछली बार से 59 सीट से कम रहा. लेबर पार्टी के समर्थक, कॉर्बिन के ब्रेक्जिट पर साफ रुख न होने के कारण टोरीस की तरफ चले गए.
हालांकि, इस मामले में उन्होंने अपने आप को हमेशा तटस्थ बताया, लेकिन सत्ता में आने के बाद ब्रेक्जिट पर उन्होंने एक और जनमत संग्रह कराने की बात कही. वह ये बात नहीं समझ सके कि लेबर पार्टी के मजबूत समर्थक ही ब्रेक्जिट आंदोलन में सबसे आगे थे.

यूरोपीय यूनियन में शामिल पूर्व संघीय रूस के देशों से आने वाले लोगों के कारण, ब्रिटेन के श्वेत पुरुषों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा था और इसी कारण से वह ब्रेक्जिट का समर्थन कर रहे थे. लेकिन, लेबर पार्टी इस बात से बेखबर दिखी. इसका यह असर रहा कि लेबर पार्टी के पारंपरिक इलाकों में भी टोरीज ने जीत हासिल की.

वहीं लंदन के लेबर पार्टी के समर्थकों ने पार्टी की लेबर नीतियों के कारण उसे नकार दिया. ये जॉनसन के लिए हर सूरत में जीत जैसा हो गया. वहीं कॉर्बिन ने यह कहकर पार्टी की सबसे बड़ी हार के लिए जिम्मेदारी लेकर इस्तीफे से मना कर दिया कि अब एक साल तक पार्टी एक प्रक्रिया से गुजर रही है और इसके बिना इस्तीफा नहीं हो सकता है. वहीं लिब्रल डेमोक्रेट की नेता, स्विनसन जो खुद अपनी सीट नहीं जीत सकीं हार के तुरंत बाद इस्तीफा दे चुकी हैं.

ये भी पढ़ें : विशेष लेख : CAA और कश्मीर मुद्दा अमेरिकी मीडिया की सुर्खियां

हालांकि, देशभर के रुझानों में उलटफेर स्कॉटलैंड में दिखा, जहां स्कॉटिश नेशनल पार्टी ने अपने नेता निकोला स्ट्रूजन के नेतृत्व में 48 सीटें जीतीं, जो पिछली बार की सीटों से 13 ज्यादा रही. इसके तुरंत बाद, स्कॉटलैंड ब्रिटेन में रहे या नहीं, इसके लिए दूसरे जनमत संग्रह की मांग तेज हो गई है.

स्ट्रूजन ने भी यह कहा है कि ये जीत दूसरे जनमत संग्रह की तरफ इशारा करती है. 2016 के जनमत संग्रह में स्कॉटलैंड ने ब्रिटेन में रहने के लिए मत किया था. जनवरी में अगर ब्रिटेन ईयू से अलग होता है तो यह स्कॉटलैंड के लिए असहज होगा.

स्कॉटलैंड में आजादी को लेकर दोबारा पनप रहे ज्जबातों को नए प्रधानमंत्री जॉनसन ने शायद भांप लिया है और इसलिए वह ये बात कह रहे हैं कि उनका लक्ष्य 'एक ब्रिटेन' बनाने का है. वैसे ही 31 जनवरी को ईयू से निकलने के बाद, ब्रिटेन के लिये राह आसान नहीं होगी.

ये देखना होगा कि 27 सदस्यों वाले ईयू को छोड़ने पर क्या ब्रिटेन को एक बेहतर व्यापार समझौता मिलता है. वैसे भी व्यापारिक समझौते होने में सालों का समय लग जाता है और ये जॉनसन के कार्यक्रम से मेल नहीं खा सकेंगे. जॉनसन को लेकर विश्वसनीयता की कमी, अमेरिका, भारत और अन्य देशों से उनके व्यापरिक साझेदारी करने के दावों को खोखला साबित कर सकता है.

ब्रेक्जिट को लेकर वहां मची असमंजस की स्थिति ब्रिटेन के उद्योग और व्यापार जगत में खलबली मचा सकती है. इस बड़ी जीत के बाद मजबूत होते पाउंड से हालात बेहतर बनने में कोई खास फर्क नहीं पड़ता दिख रहा है.

ब्रिटेन भी एक कमजोर होती शक्ति है और अपने यहां आर्थिक विकास को बढ़ाने के लिए उसे मजबूत व्यापारिक दोस्तों की जरूरत होगी. पिछली तिमाही में ब्रिटेन की विकास दर शून्य रही है. ये बात तय है कि जॉनसन अपने पुराने अंदाज में काम नहीं कर सकते हैं.

आने वाले दिनों में अमेरिका, भारत और ईयू आदि से बेहतर समझौतों के लिए उन्हें ये विश्वास जगाना होगा कि वह अपनी पार्टी और अन्य दलों के लोगों को साथ लेकर मेहनत से काम कर सकते हैं.

ब्रेक्जिट का असर क्या होगा, इसे भुलाकर यह अब एक हकीकत है. इस मुहिम का चेहरा रहे बॉरिस जॉनसन ने 'गेट ब्रेक्जिट डन' के नारे के साथ शुक्रवार को एक ऐतिहासिक जीत दर्ज की. जुलाई में थेरेसा मे के प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे के बाद जॉनसन प्रधानमंत्री पद पर काबिज हुए थे. लेकिन शुक्रवार को जॉनसन ने 1987 में मार्गेट थैचर की तीसरी चुनावी जीत के बाद से कंजर्वेटिव दल की अब तक की सबसे बड़ी चुनावी जीत दर्ज की.

2016 के जनमत संग्रह के बाद से ही ब्रिटेन में ब्रेक्जिट के भविष्य को लेकर वोटर असमंजस में थे. इसलिए उन्होंने बॉरिस जॉनसन को चुना, जिन्होंने जनवरी के अंत तक युरोपीय यूनियन को छोड़ने का वादा किया.

हालांकि, जॉनसन ने 14 नए अस्पतालों का निर्माण, पुलिस में 20 हजार नई भर्तियां और अस्पतालों में 50 हजार नर्सों की भर्ती जैसे वादे भी किये थे, लेकिन लोगों के बीच ब्रेक्जिट को लेकर उनका नारा 'गेट ब्रेक्जिट डन' सबसे ज्यादा पसंद किया गया. 650 के सदन में कंजर्वेटिव पार्टी के पास 365 सीटों का आसान बहुमत है.

मुख्य विपक्षी दल लेबर पार्टी को इन चुनावों में भारी नुकसान का सामना करना पड़ा. पिछले आधे दशक में जेरेमी कॉर्बिन शायद पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेता रहे हैं. उन्होंने न केवल पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में अपनी जगह बनाकर खलबली मचाई, बल्कि अपनी वामपंथी नीतियों के कारण पार्टी के समर्थकों के बीच भी अपने लिए विश्वास पैदा किया.

उनकी फ्री मार्केट सिस्टम पर हमले, सार्वजनिक और निजि सेवाओं को दोबारा सरकार के आधीन लाना, सामीवाद की खिलाफत, एंटी अमेरिका और प्रो रूस विचारधारा की शायद 21वीं सदी में ज्यादा समर्थक न ही मिलें. वह शीत युद्ध काल की याद दिलाते थे एक ऐसे समय में जब दुनिया आगे निकल गई है.

लेबर पार्टी को 203 सीटों से ही संतोष करना पड़ा. ये आंकड़ा पिछली बार से 59 सीट से कम रहा. लेबर पार्टी के समर्थक, कॉर्बिन के ब्रेक्जिट पर साफ रुख न होने के कारण टोरीस की तरफ चले गए.
हालांकि, इस मामले में उन्होंने अपने आप को हमेशा तटस्थ बताया, लेकिन सत्ता में आने के बाद ब्रेक्जिट पर उन्होंने एक और जनमत संग्रह कराने की बात कही. वह ये बात नहीं समझ सके कि लेबर पार्टी के मजबूत समर्थक ही ब्रेक्जिट आंदोलन में सबसे आगे थे.

यूरोपीय यूनियन में शामिल पूर्व संघीय रूस के देशों से आने वाले लोगों के कारण, ब्रिटेन के श्वेत पुरुषों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ा था और इसी कारण से वह ब्रेक्जिट का समर्थन कर रहे थे. लेकिन, लेबर पार्टी इस बात से बेखबर दिखी. इसका यह असर रहा कि लेबर पार्टी के पारंपरिक इलाकों में भी टोरीज ने जीत हासिल की.

वहीं लंदन के लेबर पार्टी के समर्थकों ने पार्टी की लेबर नीतियों के कारण उसे नकार दिया. ये जॉनसन के लिए हर सूरत में जीत जैसा हो गया. वहीं कॉर्बिन ने यह कहकर पार्टी की सबसे बड़ी हार के लिए जिम्मेदारी लेकर इस्तीफे से मना कर दिया कि अब एक साल तक पार्टी एक प्रक्रिया से गुजर रही है और इसके बिना इस्तीफा नहीं हो सकता है. वहीं लिब्रल डेमोक्रेट की नेता, स्विनसन जो खुद अपनी सीट नहीं जीत सकीं हार के तुरंत बाद इस्तीफा दे चुकी हैं.

ये भी पढ़ें : विशेष लेख : CAA और कश्मीर मुद्दा अमेरिकी मीडिया की सुर्खियां

हालांकि, देशभर के रुझानों में उलटफेर स्कॉटलैंड में दिखा, जहां स्कॉटिश नेशनल पार्टी ने अपने नेता निकोला स्ट्रूजन के नेतृत्व में 48 सीटें जीतीं, जो पिछली बार की सीटों से 13 ज्यादा रही. इसके तुरंत बाद, स्कॉटलैंड ब्रिटेन में रहे या नहीं, इसके लिए दूसरे जनमत संग्रह की मांग तेज हो गई है.

स्ट्रूजन ने भी यह कहा है कि ये जीत दूसरे जनमत संग्रह की तरफ इशारा करती है. 2016 के जनमत संग्रह में स्कॉटलैंड ने ब्रिटेन में रहने के लिए मत किया था. जनवरी में अगर ब्रिटेन ईयू से अलग होता है तो यह स्कॉटलैंड के लिए असहज होगा.

स्कॉटलैंड में आजादी को लेकर दोबारा पनप रहे ज्जबातों को नए प्रधानमंत्री जॉनसन ने शायद भांप लिया है और इसलिए वह ये बात कह रहे हैं कि उनका लक्ष्य 'एक ब्रिटेन' बनाने का है. वैसे ही 31 जनवरी को ईयू से निकलने के बाद, ब्रिटेन के लिये राह आसान नहीं होगी.

ये देखना होगा कि 27 सदस्यों वाले ईयू को छोड़ने पर क्या ब्रिटेन को एक बेहतर व्यापार समझौता मिलता है. वैसे भी व्यापारिक समझौते होने में सालों का समय लग जाता है और ये जॉनसन के कार्यक्रम से मेल नहीं खा सकेंगे. जॉनसन को लेकर विश्वसनीयता की कमी, अमेरिका, भारत और अन्य देशों से उनके व्यापरिक साझेदारी करने के दावों को खोखला साबित कर सकता है.

ब्रेक्जिट को लेकर वहां मची असमंजस की स्थिति ब्रिटेन के उद्योग और व्यापार जगत में खलबली मचा सकती है. इस बड़ी जीत के बाद मजबूत होते पाउंड से हालात बेहतर बनने में कोई खास फर्क नहीं पड़ता दिख रहा है.

ब्रिटेन भी एक कमजोर होती शक्ति है और अपने यहां आर्थिक विकास को बढ़ाने के लिए उसे मजबूत व्यापारिक दोस्तों की जरूरत होगी. पिछली तिमाही में ब्रिटेन की विकास दर शून्य रही है. ये बात तय है कि जॉनसन अपने पुराने अंदाज में काम नहीं कर सकते हैं.

आने वाले दिनों में अमेरिका, भारत और ईयू आदि से बेहतर समझौतों के लिए उन्हें ये विश्वास जगाना होगा कि वह अपनी पार्टी और अन्य दलों के लोगों को साथ लेकर मेहनत से काम कर सकते हैं.

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Last Updated : Dec 18, 2019, 3:20 PM IST
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