सिडनी: ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र जलवायु वार्ता शुरू हो गई है. अब तक ज्यादातर ध्यान उत्सर्जन में कटौती की आकांक्षा पर केंद्रित है जिसे प्रत्येक देश वार्ता में उठाता रहा है, लेकिन वार्ता का एक अन्य प्रमुख लक्ष्य विकासशील देशों के लिए तथाकथित 'जलवायु वित्तपोषण' को नाटकीय रूप से उभर कर सामने आना है.
जलवायु वित्तपोषण वह धन है जो धनी देश (जो एतिहासिक रूप से अधिकतर उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं) विकासशील देशों को उत्सर्जन में कमी के उपायों और अनुकूलन के लिए भुगतान करने में मदद करने के तौर पर देते हैं. जलवायु वित्त मानक विकास सहायता के अतिरिक्त होना चाहिए.
वर्ष 2009 में कोपेनहेगन जलवायु वार्ता में धनी देशों ने 2020 तक विकासशील देशों को जलवायु वित्त के मद में प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर देने का वादा किया था, लेकिन वह लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है. जर्मनी और कनाडा द्वारा विकसित एक नयी जलवायु वित्त योजना प्रस्तावित की गई है. रिपोर्ट से पता चलता है कि यह एक साल के बजाय 2020 से 2025 तक प्रदान किए गए वित्त का औसत लेकर 100 अरब डॉलर के वार्षिक लक्ष्य को पूरा करने का प्रस्ताव करेगा.
योजना पर नए सिरे से ध्यान देने का स्वागत है, लेकिन यह इतना मजबूत होना चाहिए कि आगे के विशाल कार्य से निपट सके और केवल आंकड़ों में फेरबदल करने की कवायद बनकर नहीं रह जाए. धीरे-धीरे समय समाप्त हो रहा है. यदि विकासशील राष्ट्र उत्सर्जन कम करने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं तो हम वैश्विक जलवायु लक्ष्य प्राप्त नहीं करेंगे और सभी को नुकसान होगा. पर्याप्त जलवायु वित्त प्रदान करने में विफल रहने से हम सभी जोखिम में हैं. सीओपी26 सम्मेलन में पर्याप्त जलवायु वित्तपोषण प्रदान करने के लिए विकसित देशों पर काफी दबाव डाला जाएगा.
वादा किया गया 100 अरब डॉलर प्रति वर्ष लगभग पर्याप्त नहीं है. जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) का अनुमान है कि 2035 तक अकेले ऊर्जा क्षेत्र के लिए सालाना 2.4 ट्रिलियन डॉलर की जरूरत है ताकि विनाशकारी परिणामों को रोकने के लिए वैश्विक तापमान में इजाफा 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखा जा सके. निष्क्रियता की कीमत अधिक है और आजीविका दांव पर है. फसल खराब होना, पानी की कमी और प्रमुख शहरों में प्रदूषण के कारण खराब स्वास्थ्य जैसे परिणाम सामने हैं.
ऑस्ट्रेलिया जैसे धनी राष्ट्र भी ऐसे मुद्दों से प्रभावित होते हैं लेकिन उनके पास अक्सर विकासशील देशों की तुलना में तैयारी और प्रतिक्रिया करने की अधिक क्षमता होती है. पेरिस समझौते के तहत ऑस्ट्रेलिया की जलवायु वित्त के लिए वर्तमान संकल्प 2025 तक 30 करोड़ डॉलर प्रति वर्ष है. अभी तक कोई संकेत नहीं है कि यह बदल जाएगा. यूरोपीय संघ 2027 तक अतिरिक्त 4.7 अरब यूरो का वचन दे रहा है और अमेरिका 2024 तक सालाना 11 अरब डॉलर से अधिक की अपनी प्रतिबद्धता दुगुनी कर रहा है.
यूरोपीय संघ (ईयू) जलवायु कार्रवाई में वैश्विक नेता बना हुआ है और पूरी तरह से पेरिस समझौते के लक्ष्यों के अनुरूप प्रतिबद्धताओं का वादा करता है. सीओपी26 में पेरिस समझौते के 'अनुच्छेद 6' के प्रभावी होने की भी संभावना है और यह व्यवहार में कैसे काम करेगा इस पर अधिक विवरण प्रस्तुत करेगा. सम्मेलन में एक अन्य विषय पर गहन बातचीत होने की उम्मीद है. जलवायु परिवर्तन कार्रवाई का तथाकथित 'तीसरा स्तंभ' है- मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली हानि और क्षति.
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अगर विकासशील देशों को उत्सर्जन कम करने के लिए वित्तीय सहायता नहीं मिलती है तो यह संभावना नहीं है कि हम 'ग्लोबल वार्मिंग' को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए पेरिस समझौते की प्रतिबद्धता को पूरा करेंगे. स्पष्ट रूप से विकासशील देशों को उत्सर्जन में कमी और अनुकूलन के महंगे काम के लिए भुगतान करने में मदद करने से धरती पर सभी को लाभ होता है.
पीटीआई-भाषा